बुज़ुर्गों की इज्जत कम होने पर लोग दामन में दुआएं कम और दवाएं ज्यादा भरने लगते हैं - यह घटना सुखद है या दुखद

बुज़ुर्गों की इज्जत कम होने पर लोग दामन में दुआएं कम और दवाएं ज्यादा भरने लगते हैं - यह घटना सुखद है या दुखद

उपसम्पादक जितेन्द्र कुमार सिन्हा की कलम से |

मेरे बड़े भाई साहब बी के सिन्हा ने एक सच्ची घटना को लिखते हुए मुझसे पूछा है कि यह घटना सुखद है या दुखद। उन्होंने सनातनी हिन्दू राष्ट्रवादी को संबोधित करते हुए देश वासियों को बताना चाहा है कि -
एक सच्ची घटना है, कहानी नहीं बल्कि हकीकत है। उन्होंने बताया कि उनके मित्र मनोहर बाबु जो झारखण्ड राज्य के लातेहार शहर में रहते थे। उनकी पत्नी का निधन हो गया है। उन्हें एक बेटा है, जो बंगलुरु में अपनी पत्नी और बच्चों के साथ रहता है।
मनोहर बाबु की दिली इच्छा थी कि वे अपनी पत्नी के निधन के बाद वे अपने बेटे-बहु के साथ नहीं रहना चाहते थे। लेकिन उनके बेटे और बहु ने जबरजस्ती मनोहर बाबू को बंगलुरु शहर में साथ रहने के लिए ले आए। मनोहर बाबु ने सोचा शायद बेटा-बहु पर बिरादरी का दबाव होगा या समाज में अपनी छवि खराब होने का भय। उनका बेटा एक विदेशी कंपनी में उच्च पद पर कार्यरत है।

मनोहर बाबु अपने बेटा-बहु के साथ आकर बंगलुरु में रहने लगे। पत्नी की निधन का दुख अभी पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ था कि मनोहर बाबू को तानों का सामना करना पड़ा। यह ताना दिनों- दिन अक्सर बढ़ने लगा।

"क्या पापाजी आप ठीक से खाना भी नहीं खा सकते हैं, देखिए, कितना खाना गिरा दिया है टेबल पर।"

"क्या पापा, कम से कम बाथरूम में पानी तो ठीक से डाल दिया करो, कितनी गंदगी छोड़ दी है आपने।"

मनोहर बाबू को यह ताना किसी और का नहीं, बल्कि उनकी एक मात्र बहु की थी। बहु की बोली में यूपी की मिठास भरी ताना थी।

मनोहर बाबु भरसक कोशिश करते की बेटा और बहु को शिकायत का कोई मौका नहीं दें, मगर साठ पार की उम्र में उनके कंपकंपाते हाथ और कम दिखाई देती नजरें अक्सर धोखा दे जाती थी।

मनोहर बाबु को, धीरे-धीरे ताना मिठास की जगह करकस सुनाई पड़ने लगी। फिर भी मनोहर बाबु चुपचाप रह जाते थे, कभी-कभी तो उनका मन करता था कि इससे अच्छा तो गांव में अकेले रहकर भूखे या घुटघुट कर मर जाता। लेकिन फिर अपने बेटे की प्रतिष्ठा का ख्याल आता तो सिसक कर रह जाते।

पहले जैसे तैसे उनकी पत्नी के साथ कट जाती थी, कुछ वो, तो कुछ मनोहर बाबू, साथ देते हुए गुजर बसर कर लेते थे। लेकिन अब वो भी उन्हें अकेला छोड़कर चली गई थी।

मनोहर बाबु का बंगलुरु में रुकने की एक वजह और भी था, उनका पोता। वो कहते है ना, मूल से ज्यादा ब्याज प्यारी लगती है, तो बस उन्हें अपने पोते केशव से प्यार और उसके साथ सुबह शाम पार्क में समय व्यतीत करना अच्छा लगता था।

आज भी सुबह-सुबह बहु ने जोरदार लताड़ लगाई थी नाश्ते पर। बेचारे मनोहर बाबु ठीक से नाश्ता भी नहीं कर पाए थे। जब वे पार्क की बेंच पर बैठे हुए अपनी पलकें भींगो रहें थे, तो उस समय उनके पोता केशव उनकी भीगी हुई पलकों को साफ करते हुए उनके आंसुओं को पोंछते हुए पूछा -

"दादाजी हम इंसान बूढ़े क्यों हो जाते हैं?"

पोते केशव की बात सुनकर मनोहर बाबू कुछ देर उसे निहारते रहे, फिर अपने आसपास नजरें घुमाने लगे, आसपास बच्चों से लेकर जवान बुजुर्ग सभी नजर आ रहे थे, उनकी आँखों में उनके बचपन से लेकर उनके बुढ़ापे तक का पूरा सफर तैर गया।

मनोहर बाबु अपनी भीगी आँखे और कंपकंपाती जुबान से अपने पोता केशव को इतना ही बोल पाएं -

"ताकि हमारे मरने पर किसी को कोई अफसोस ना हो!"

कुछ दिन बाद, एक दिन उनका पोता केशव, अपने दादा के कमरे में गया, तो देखा कि दादा अपने पलंग पर सो रहे हैं, केशव थोड़ा देर बैठे रहा और देखा कि दादा हिल डोल भी नहीं रहे हैं। वह चुपचाप अपने कमरे में आ गया। वह नहीं समझ सका कि उनके दादा मनोहर बाबु अब इस संसार को छोड़ कर जा चुके थे।

मेरे बड़े भाई साहब बी के सिन्हा का मानना है कि यह कटु सत्य है कि जब लोग बुज़ुर्गों की इज्जत कम करने लगते हैं, तब लोग दामन में दुआएं कम और दवाएं ज्यादा भरने लगते हैं। इसलिए साठ की उम्र पार करने वाले और पत्नी बिना अकेला रहने वाले सभी लोगों को अवश्य सोचना चाहिए....।
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