धर्म के विषय में धर्मज्ञ ब्राह्मण ही प्रमाण हैं

धर्म के विषय में धर्मज्ञ ब्राह्मण ही प्रमाण हैं

- प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
सनातन धर्म में प्रत्येक विषय पर सांगोपांग विचार किया गया है। मनुष्य के सभी गुणों और सब प्रकार की शक्तियों का सम्यक प्रतिपादन और प्रतिष्ठा धर्मशास्त्रों में है। प्रत्येक विषय पर विवेकपूर्वक विचार कर सुसंगत व्यवस्थायें दी गई हैं। अन्य मजहबों आदि में किसी पद या गुणविशेष को अतिरंजित महत्व देकर शेष सब मानवीय गुणों को उनके ही नियंत्रण में सौंपने की अविवेकपूर्ण बातें मिलती हैं। सनातन धर्म में ऐसा नहीं है। उदाहरण के लिये सन्यासी सर्वपूज्य हैं। क्योंकि वे वीतराग हैं और ब्रह्मचिन्तन ही उनका स्वधर्म है। अतः वे साक्षात नारायण स्वरूप हैं। परन्तु ज्ञान और भक्ति की दृष्टि से ही वे सर्वपूज्य हैं। उनका शील सब प्रकार से वंदनीय है। परन्तु यदि वे धर्मशास्त्रों के विधिवत अध्येता नहीं है और गृहस्थ आश्रम सहित तीनों प्रमुख आश्रमों के विविध क्षेत्रों के विषय में संबंधित सनातन धर्मशास्त्रों का ज्ञान वे नहीं रखते, तो वे उन विषयों में प्रमाण नहीं माने जाते। क्योंकि वे उन विषयों में उदासीन तो हैं ही, जानकारी से भी रहित हैं।
अतः किसी मठ के महन्त या सन्यासी होने से धर्मविषयों में निर्णय देने की पात्रता उनमें नहीं आ जाती। केवल ऐसी स्थिति में जब धर्मज्ञ ब्राह्मणों के बीच कोई संशय हो या मतभिन्नता हो, उस समय वीतराग सन्यासी और साधु का मत सर्वमान्य होता है - उनके वीतराग होने के कारण। क्योंकि विद्वान ब्राह्मण में व्यक्तिगत आसक्ति नहीं भी हो तो भी शास्त्र संबंधी किसी व्याख्या में आसक्ति हो सकती है। अतः सन्यासी का निर्णय उस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। क्योंकि वह सर्वसम्मति से मान्य होता है। परन्तु धर्मविषय में धर्मसंबंधी विचार कर निर्णय देने के मूल अधिकारी धर्मज्ञ ब्राह्मण ही हैं। सन्यासी का न तो वह कार्य है और सामान्यतः वे न तो उस विषय में अधिकारी होते हैं। पादरियों आदि की नकल में कुछ लोगों ने इस विषय में वीतराग सन्यासियों के गृहस्थ और राज्य शासन संबंधी विषयों में अभिमत को केन्द्रीय महत्व देने का जो प्रयास प्रारंभ किया है, वह शास्त्र से अनुमोदित नहीं है। लौकिक विषयों में सन्यासी का सामान्यतः कोई प्रयोजन नहीं होता और अधिकार भी नहीं होता।
पांडुरंग वामन काणे जी द्वारा लिखित धर्मशास्त्र का इतिहास के प्रथम भाग में स्मृतिमुक्ताफल एवं यतिधर्मसंग्रह से ये उद्धरण दिये गये हैं -
अग्न्याधेयं गवालम्भं संन्यासं पलपैतृकम्।
देवरेण सुतोत्पत्तिं कलौ पन्च विवर्जयेत्।।
तस्यापवादमाह स एव।
यावद्वर्णविभागोऽस्ति यावद्वेदः प्रवर्तते।
तावन्न्यासोऽग्निहोत्रं च कर्तव्यं तु कलौ युगे।।
अर्थात् अग्न्याधेय, यज्ञ में स्पर्श पूर्वक गाय को मुक्त छोड़ देना (वृषभ छोड़ने या वृषोत्सर्ग से यह भिन्न है। इसमें गायों को मुक्त छोड़ने की बात है।), सन्यास, पल-पैतृक तथा पति के नहीं रहने पर अथवा पति की अनुमति से देवर से पुत्र की उत्पत्ति - ये पांच बातें कलि के 4400 वर्ष बीतने के बाद वर्जित हैं। परंतु इसका अपवाद भी शास्त्र में निर्दिष्ट है। जब तक समाज के एक बड़े हिस्से में वर्ण व्यवस्था एवं आश्रम व्यवस्था प्रवर्तित है और वेदों का पठन-पाठन प्रवर्तित है, तब तक यज्ञ, अग्निहोत्र एवं सन्यास कलियुग में भी कर्तव्य है।
हेमाद्रि (13वीं शताब्दी ईस्वी) ने 7 कलिवर्ज्य गिनाये हैं और कुछ अन्य विद्वानों ने (17वीं शताब्दी ईस्वी में) 26 कलिवर्ज्यों का उल्लेख किया है। इसमें मुख्य हैं - बड़े बेटे को पैतृक सम्पत्ति का अधिकांश या सम्पूर्ण देना, नियोग, औरस तथा दत्तक पुत्र को छोड़कर अन्य पुत्रों की परम्परा चलाना, विधवा विवाह, भूख की स्थिति में तीन दिन तक भूखे रहने पर शूद्रों या नीच लोगों से भी अन्न ग्रहण करना, समुद्र यात्रा, दीर्घकालीन यज्ञ सत्रों का आयोजन, कमन्डलु धारण, वानप्रस्थ आश्रम, पतित की संगति से प्राप्त अपवित्रता, वर्जित स्त्रियों के साथ रतिसंबंध रखने पर प्रायश्चित के उपरांत जाति संसर्ग, दूसरे के लिये अपने जीवन का परित्याग, भोजन से बचे हुये पदार्थ का दान, अपने चरवाहे (गौरक्षक) या अपने दास या किसी भी वर्ण के अपने वंशानुगत मित्र अथवा किसी भी वर्ण के साझेदार के यहां ब्राह्मण द्वारा भोजन करना, दूर-दूर तक तीर्थों की यात्रा पर जाना, स्त्रियों द्वारा तीर्थयात्रा, विपदा की स्थिति में ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रिय एवं वैश्य की वृत्तियों को धारण करना, ब्राह्मणों द्वारा भविष्य के लिये धन या अन्न का संग्रह ना करना, ब्राह्मणों द्वारा लगातार यात्रायें करना, अपवित्र स्त्रियों के साथ शास्त्र से अनुमोदित सामाजिक संसर्ग की अनुमति, सन्यासी द्वारा सभी वर्णों के सदस्यों से भिक्षा लेना, ब्राह्मणों द्वारा अपने घर में शूद्र के द्वारा भोजन बनवाना, वृद्ध लोगों द्वारा आत्महत्या करना, सन्यास ग्रहण, दीर्घअवधि का ब्रह्मचर्य आदि।
परंतु इन कलिवर्ज्यों का सम्पूर्ण पालन कभी देखने को नहीं मिलता। इसका अर्थ है कि विभिन्न धर्मशास्त्रकारों ने इन कलिवर्ज्यों की उपेक्षा की अनुमति अवश्य दी होगी। क्यांकि 15 अगस्त 1947 ईस्वी तक सम्पूर्ण हिन्दू समाज में धर्मशास्त्रों के पालन पर सर्वानुमति थी। अतः इन कलिवर्ज्य की उपेक्षा तब तक असंभव है, जब तक धर्मशास्त्र में ही इस उपेक्षा की अनुमति ना हो। इसी संदर्भ में हमने स्मृतिमुक्ताफल और यतिधर्मसंग्रह के श्लोकों को उद्धृत किया है। ऐसा लगता है कि जब तक वेदों के प्रति आदरपूर्ण पठन-पाठन विद्यमान है और वर्णव्यवस्था के प्रति आदरभाव विद्यमान है, तब तक ये कलिवर्ज्य उपेक्षणीय माने गये हैं। क्योंकि 18वीं शताब्दी ईस्वी तक मराठे एवं गुजराती तथा दक्षिण भारत के सभी प्रतापी हिन्दू सम्राट निरंतर समुद्र यात्रा करते रहे हैं और अत्यंत समृद्ध नौसेना रखते रहे हैं एवं भारतीय व्यापारी 20वीं शताब्दी ईस्वी के मध्य तक समुद्री मार्गों से व्यापार करते रहे हैं और वे पूर्णतः धर्मनिष्ठ माने जाते रहे हैं।
20वीं शताब्दी ईस्वी के उत्तरार्द्ध के बाद भी भारतीय व्यापारी समुद्री मार्ग से व्यापार करते रहे हैं, परंतु उसका उल्लेख इस संदर्भ में सम्यक नहीं है। क्योंकि 15 अगस्त 1947 ईस्वी के बाद तो हिन्दू धर्मशास्त्रों को वर्तमान भारतीय राज्य ने कोई विधिक मान्यता ही नहीं दे रखी है और हिन्दू धर्म को कोई वैसा राजकीय संरक्षण भी नहीं दिया है, जैसा कि विश्व के सभी राष्ट्रराज्यों में बहुसंख्यकों को प्राप्त है।
अतः धर्मशास्त्रों को समाज व्यवस्था का अंग नहीं रहने देने वाला वर्तमान भारतीय राज्य सनातन धर्म से उदासीन राज्य है और शक्तिशाली तथा सम्पन्न हिन्दुओं ने इस पर कोई प्रभावपूर्ण आपत्ति भी विगत 75 वर्षों में नहीं की है। अपितु विचित्र वाग्जाल से युक्त चर्चायें ही वे लोग भी इन विषयों पर करते रहे हैं। धर्मशास्त्रों को अस्वीकृत करने वाली शासन व्यवस्था के प्रति सक्षम विरोध के अभाव में वर्तमान सामाजिक कार्यों को धर्मशास्त्रों की निरंतरता में नहीं देखा जा सकता।
परंतु तीर्थयात्रा, पूजापाठ, मठ-मंदिर, यज्ञ-हवन, दान-पुण्य आदि अभी भी धर्मशास्त्रों को ही प्रमाण मानते हुये किये जाते हैं। अतः उस संदर्भ में धर्मशास्त्र ही महत्वपूर्ण हैं।
स्त्रियों की तीर्थयात्रा एवं अन्य प्रसंग
स्त्रियों की तीर्थयात्रा भी कलिवर्ज्य मानी गई है। परंतु सभी धर्मज्ञ विद्वानों की उपस्थिति में और सहमति से धर्मनिष्ठ सदाचारिणी स्त्रियां विशाल संख्या में तीर्थयात्रा करती हैं। इससे प्रमाणित है कि यह कलिवर्ज्य धर्मज्ञ विद्वानों द्वारा मान्य नहीं किया गया है।
यहां यह सदा स्मरणीय है कि सार्वभौम सत्य, अहिंसा, इन्द्रियसंयम, अतिसंग्रह की वर्जना और अस्तेय जैसे यमों को और शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा भगवद्भक्ति जैसे सार्वभौम नियमों को और मानवधर्म (सामान्य धर्म या साधारण धर्म) को मानने पर ही हिन्दुओं में सर्वानुमति है। शेष कर्मकांडों को लेकर व्यापक मत भिन्नता को हिन्दुओं में सहज स्वाभाविक एवं समादरणीय माना गया है। परंतु इसका अर्थ भी मनमानी या अराजकता नहीं है। इस विषय में नियम यह है कि आप हिन्दू धर्म के जिस भी सम्प्रदाय के अनुयायी हों, उसके कर्मकांडी विस्तार को और नियम-विस्तार को मानें। केवल यम-नियम और मानवधर्म यानी सामान्य धर्म के विषय में सभी को मानने की अनिवार्यता है। जो इन्हें नहीं माने, वह हिन्दुओं के किसी भी सम्प्रदाय का अंग नहीं है। कुशिक्षा के प्रभाव से चोचलिस्टों, कम्युनिस्टों और धर्मद्रोहियों को भी हिन्दू मानने का आग्रह कुछ हिन्दू संगठनों ने शुरू किया है जो केवल कुबुद्धि और धर्मशून्यता का प्रमाण है। चार्वाक मत के विषय में दो-चार श्लोकों के अतिरिक्त और कहीं कोई भी प्रमाण नहीं है और उन्हें कहीं भी धर्मनिष्ठ समाज का अंग भी नहीं माना गया है। अपितु उन्हें समाजद्रोही और धर्मद्रोही व्यक्तियों के रूप में ही वर्णित और चिन्हित किया गया है। इसलिये उस उल्लेख मात्र को धर्मसम्मत बताना उतना ही दुष्टता पूर्ण और अमान्य है, जितना कि कंस या अन्य नरपिशाचों को धर्मसम्मत बताना। - प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
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