सोचता हूँ हुआ यह कैसे गजब

सोचता हूँ हुआ यह कैसे गजब

डॉ रामकृष्ण मिश्र
सोचता हूँ हुआ यह कैसे गजब
अक्षरों में स्वर उठा अलगाव का।।
बस्तियाँ अखबार बन कर रह गयीं
भूख अब हथियार बनना चाहती।
मुट्ठियों में त्रास का संदर्भ है
भावना में विष मिला बिखराव का।।
शिखर गाता रहा मंगल गान है
ढोल में बजने लगा अभिमान है।
आईना पहचान पाता है नहीं
दे रहा संकेत है टकराव‌ का।।
जंगलों की कथा गढ़ती मालती
बोतलों में रम रहे हैं आफती
मंदिरों की घँटियों में सिरफिरे 
ढूँढते हैं रास्ता भटकाव का।।
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