आज की नारी
नहीं बनना उस कृष्ण की राधा,
जो चहुँ ओर रास रचाता है।
नहीं बनना वह जोगन मीरा,
जिसने विष भी पी डाला है।
जिस पर कंटक तुमने बिछाया है।
अब नशा है स्वयं को प्रेम करने का,
वह क्षण तो गरल का प्याला है।
नहीं हूँ मैं अबला और बेचारी,
हूँ स्वाभिमानी और संस्कारी,
सम्मान के बदले सम्मान चाहती हूँ,
प्रेम पर ही अपना सर्वस्व वारति हूँ।
वह दौर नहीं जो अग्निपरीक्षा वाला है,
मेरा विश्वास ही मेरा रखवाला है।
सती-सावत्री नहीं मैं,इक साधारण नारी हूँ,
पर अस्तित्व की रक्षा में तुम पुरुषों पर भारी हूँ।
हमारे अंदर ही पलते हैंभविष्य के पौध,
ममता की छाया कभी रूप काली का रौद्र।
सम्मान दिया प्रतिपल संस्कार अपना निराला है,
कमज़ोर नहीं समझ लेना हमसे ही उजियारा है।
सहज सुगम मैं सरिता हूँ,
निर्मल भावों की कविता हूँ।
समझ सको तो राग-रागिनी,
या माया की मरीचिका हूँ।
जोगन हूँ मैं जब तक,
तू मेरे जोग का पालनहारा है।
हाँ,अब कुछ नया सवेरा लेकर,
सूरज कल का आनेवाला है।
डॉ रीमा सिन्हा
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