प्रशंसा, बड़ाई , तारीफ , गुणगान
प्रशंसा तो उसी की करूॅं ,जो प्रशंसा का ही पात्र हो ।
जो रहता हो स्वयं प्रसन्न ,
दूसरे हेतु भी दिवा रात्र हो ।।
सदा सीखने की लगन हो ,
स्वभावतः सदा ही छात्र हो ।
संस्कार रग रग भरा जिसमें ,
अहमता भी न नाम मात्र हो ।।
जो हो जाता बहुत गुणवान ,
सर्वत्र उसका गुणगान होता है ।
जन जन का आंखों का तारा ,
रग रग में स्वाभिमान होता है ।।
अटल होकर रहता सदा वह ,
सजग अविचल दृढ़ हो जाता है ।
समाज को मजबूत खड़ा करना ,
तन का ही दृढ़ रीढ़ हो जाता है ।।
उसी की तो होती है ये प्रशंसा ,
उसी की सच्ची होती है बड़ाई ।
जितनी तारीफ उतना ही कम ,
गुणगान की अभिलाषा बढ़ाई ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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