फुरसत के पल
यह क्लांत तन - मन लिएभागती-दौड़ती जिंदगी में
तलाशता फुरसत के पल
थक गया भागते - भागते
क्या शांत होगा मेरा कल
इस बदलते मौसम सदृश
मेरी ये जिंदगी बदलती है
हर दिन हैं नई चुनौतियां
रोज़ नये संघर्षों की दास्तां
कब मिलेगा थोड़ा सा सुकूं
खुद से सवाल करता रहता हूं
क्या मैं सच में जी भी रहा हूं
या जीने का नाटक कर रहा हूं
या लक्ष्यहीन यूंही भटक रहा हूं
क्या कांत होगा मेरा भी ये कल
क्या मेरी जिंदगी में आएगा सुकूं
क्या मैं पा पाऊंगा अपनी मंजिल
क्या मैं कभी स्थिर भी हो पाऊंगा
कभी बैठो खुद के साथ भी
बिताओ फुरसत के दो पल
स्वयं का भी विश्लेषण करो
भीतर के द्वंद को शांत करो
अपने विचारों की भी तो सुनो
अपने दिल की आवाज सुनो
अपने भावनाओं को समझो
अपनी इस अंतरात्मा से जुड़ो
खुद को भी तो तुम प्यार करो
खुद को भी तुम सम्मान दो
खुद को अपना सबसे अच्छा
दोस्त बनाने का प्रयास करो
तो ही तुम सच में जी पाओगे
स्वरचित एवं मौलिक
पंकज शर्मा (कमल सनातनी)
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