कालप्रवाह शाश्वत है, सनातन है:- प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

कालप्रवाह शाश्वत है, सनातन है:- प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज

विंस्टन चर्चिल के नेतृत्व में ब्रिटेन का जो अभिजन समूह अपनी ब्रिटिश पहचान को संसार में सर्वाधिक गौरव योग्य मान रहा था और विश्व में अपना प्रभाव बनाये रखने की रणनीति पर जीजान से जुटा था, वह आज कहाँ है? चर्चिल आज होते तो पगला ही जाते। स्वयं को हिन्दू कहने वाले ऋषि शुनक आज ब्रिटेन के प्रधानमंत्री हैं और भारत की संस्कार सम्पन्न एक बेटी उनकी पत्नी है। आज से 80 साल पहले ब्रिटेन का कोई भी अभिजन इसकी कल्पना नहीं कर सकता था। आज यह सत्य है।
बहुत से लोग जो ब्रिटिश ईसाई प्रभाव से हिन्दुओं में उभरे नये राजनैतिक मतवादों के आस्थावान अनुयायी हैं, वे बड़े उत्साह से भरकर यह तर्क दिये जाते हैं कि हिन्दू धर्म लचीला है और परिवर्तनशील है तथा इसीलिये एंग्लो ईसाई राज्य रचना और उसके पोषक दलों के प्रति ही पूर्ण श्रद्धा युग का धर्म है। परंतु वे उसी समय यह भूल जाते हैं कि परिवर्तन सत्य है, कालप्रवाह सत्य है और यह स्वयं उन पर भी लागू होता है। अतः यदि वे सोचते हों कि सनातन धर्म के वास्तविक मूलस्वरूप का पुनः अभ्युदय नहीं होगा और भारत का राज्य राजधर्म को अपना आदर्श मानने वाला कभी नहीं बनेगा तथा उनका मतवाद ही राजधर्म है तो वे महाकाल के सनातन सत्य को भूल रहे हैं।
महाकाल सदा हैं, सर्वत्र हैं, सनातन हैं। अतः परिवर्तन सतत है। वर्तमान अर्ध-ईसाई, अर्धकम्युनिस्ट राज्य भी अवश्य ही परिवर्तित होगा। भारत की सनातन प्रज्ञा नई राजनैतिक अभिव्यक्तियों के रूप में प्रगट नहीं होगी, यह सोचना महाकाल की अवज्ञा है। अतः जो सनातन धर्म के प्रति श्रद्धावान लोग हैं, उन्हें निष्ठापूर्वक और वर्तमान सत्ता सरंचना से निस्पृह होकर स्वधर्म पालन करते रहना चाहिये। राज्य के वर्तमान ढांचे में रति उन्हें स्वधर्म पालन में बाधित करती है। सनातन धर्म की पुनः प्रतिष्ठा वर्तमान ढांचे वाली किसी राजनैतिक पार्टी का कार्य नहीं है। अतः कोई वास्तविक हिन्दू पार्टी बनाना असंभव भी है और हास्यास्पद भी है। वास्तविक हिन्दू राजनैतिक जाग्रति के लिये व्यापक आंदोलन तो चलाया जा सकता है और चलाना ही चाहिये, परंतु कोई हिन्दू पार्टी या सनातन पार्टी असंभव है। क्योंकि पार्टियाँ वर्तमान राजनैतिक ढांचे में ही काम करेगीं और इसी ढांचे में सत्ता का एक हिस्सा पाने का प्रयास करेंगी। जबकि राजनैतिक अभिजनों में हिन्दुत्व की कोई अभीप्सा ही नहीं जगी है। मुख्य तो वह अभीप्सा ही है। व्यापक साधना और जनजाग्रति से वह अभीप्सा जगना पहले आवश्यक है। फिर उसके अनुरूप एक से अधिक पार्टियाँ भी हो सकती हैं। जो कि इस पुरूषार्थ साधना का एक गौण पक्ष ही होंगी। विद्याकेन्द्र और ज्ञानसाधना ही प्रधान पक्ष होंगे।
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