श्री गोवर्धन पुरी के १४४वें पीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी श्री निरंजनदेव तीर्थ जी महाराज का अलौकिक जीवन परिचय:–

श्री गोवर्धन पुरी के १४४वें पीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी श्री निरंजनदेव तीर्थ जी महाराज का अलौकिक जीवन परिचय:–

सनातन, मृत्युञ्जयी, वैदिक भारतीय संस्कृति के समुद्धारक साक्षात् श्रीमत्शङ्कर स्वरूप आद्य जगद्गुरु शंकराचार्य भगवत्पाद ने धर्म जागरण एवं धर्म संरक्षण की परम्परा अविच्छिन्न रखने के लिए पुण्यभूमि भारत के चारों कोनों में चार शाङ्कर मठों की स्थापना की और घोषणा की कि इन पीठों पर अभिषिक्त शङ्कराचार्य मेरे ही स्वरूप होंगे। इन वेदवेदाङ्ग–श्रौताचार-विचार परिनिष्ठ विमलात्मा, अमलात्मा महात्मा ब्रह्मज्ञानियों को मेरा ही स्वरूप माना जाये। 'मठाम्नाय महानुशासन' में उद्घोषित इस घोषणा के अनुरूप इन पीठों पर अभिषिक्त आचार्यों को भारत की धर्मप्राण जनता महाप्राज्ञ मनीषी एवं धर्माचार्य सभी साक्षात् शङ्कराचार्य मानकर ही पूजन, अभिनन्दन और वन्दन करते हैं। समस्त सनातनधर्मी जगत् में शङ्कराचार्य की प्रतिष्ठा सर्वोपरि है। इन्हीं चतुष्पीठों में से एक पूर्वाम्नाय, गोवर्द्धनमठ पुरीपीठ के 144वें जगद्गुरु शङ्कराचार्य थे, अनन्त श्रीविभूषित श्रीमन्निरञ्जनदेवतीर्थजी महाराज जो परमपूज्य पुरीपीठाधीश्वर श्री भारतीकृष्णतीर्थ जी महाराज के लोक विश्रुत यशस्वी उत्तराधिकारी बने।

आचार्य शङ्कर ने समग्र भारत में शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करने के पश्चात् वैदिक धर्म और संस्कृति के संरक्षणार्थ चारों दिशाओं में मठ स्थापित किए – उत्तर में बदरीनाथ का ज्योतिर्मठ [जोशीमठ], दक्षिण में शृंगेरी मठ, पूर्व में पुरी का गोवर्धन मठ तथा पश्चिम में द्वारकापुरी का शारदा मठ विश्वविख्यात है। पुरी के गोवर्धन मठ के प्रथम अधिपति आचार्य आदि शङ्कराचार्य के परम शिष्य सनन्दन [पद्मपाद] थे। उनके बाद 142 आचार्यों ने इस पीठ के अधिपति पद को सुशोभित किया, जो आजन्म ब्रह्मचारी थे। 143 वें आचार्य के रूप में स्वामी भारती कृष्ण तीर्थ अभिषिक्त हुए, जो दाक्षिणात्य ब्राह्मण थे। वे संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी तथा विज्ञान के प्रकाण्ड पण्डित एवं ओजस्वी वक्ता थे। उन्होंने लुप्त हुई, भारतीय गणित पद्धति पर 'वैदिक गणित' नामक ग्रन्थ अंग्रेजी में लिखा, जिससे उन्हें अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि मिली। इस पुस्तक का अध्ययन कर पहली बार विश्व के गणितज्ञ वैदिक गणित के प्रति उन्मुख हुए । विज्ञान में अधिस्नातक उपाधि भी इन्हें प्राप्त थी। उनका देहावसान 2 फरवरी 1958 को बम्बई में हुआ। उनको अलौकिक प्रतिभा के कारण इस मठ को पर्याप्त प्रतिष्ठा मिली।

उन्होंने अपने उत्तराधिकारियों की सूची बनाई थी, जिसमें जयपुर के महाराज संस्कृत कॉलेज के तत्कालीन अध्यक्ष पण्डित चन्द्रशेखर द्विवेदी का नाम भी था। इन के नाम को देखकर पुरी पीठ की स्थाई समिति ने उक्त आसन ग्रहण करने का इनसे अनुरोध किया। तब पं. द्विवेदी ने लोककल्याणार्थ एवं धर्मरक्षणार्थ अपने परिवार तथा पद का परित्याग कर संन्यास ग्रहण किया। आचार्य द्विवेदी की संन्यास दीक्षा तथा गोवर्धन पीठाधीश्वर के रूप में अभिषेक पश्चिम के द्वारकापीठाधीश्वर स्वामी अभिनव सच्चिदानन्द तीर्थ के द्वारा सम्पन्न हुआ, जो कि विश्व हिन्दू परिषद् के वर्षो अध्यक्ष रहे तथा 1972 में टाटानगर में हुए धर्मसंघ अधिवेशन के भी अध्यक्ष थे। संन्यास दीक्षा के बाद उनको 'निरञ्जन देवतीर्थ' नाम दिया। 1964 से 1992 तक उन्होंने पुरी के शङ्कराचार्य का पद सुशोभित किया। आचार्य शङ्कर के प्रतिनिधि होने के कारण चारों शाङ्कर पीठ के अधिपतियों को जगद्गुरु शङ्कराचार्य के नाम से जाना जाता है। एक वाहन दुर्घटना के बाद उन्होंने इस पद पर श्री करपात्री स्वामी जी के संन्यासी शिष्य तथा स्वसदृश निडर विद्वान् स्वामी निश्चलानन्द सरस्वती को अभिषिक्त किया तथा स्वयं काशी-वास करने लगे। जयपुर नगर के दक्षिण पूर्व भाग से कुछ दूर विद्यमान टोडा भीम नामक ग्राम में इनके पूर्वज रहा करते थे। इस ग्राम में अनेक प्रसिद्ध विद्वान रहते थे, जो कि गुजरात के पाटन राज्य के अधीश्वर सिद्धराज सोलंकी के समय उस प्रदेश के वासी थे। कालान्तर में ये औदीच्य गुर्जर ब्राह्मण जयपुर के राजा जयसिंह के समय से जयपुर में आकर बसने लगे। उन्हीं में से उनके पूर्वज टोडाभीम में रहने लगे। जहां से कुछ विद्वान् ब्यावर चले गए। ब्यावर में ऋग्वेद के सांख्यायनशाखीय पण्डित गणेश लाल द्विवेदी के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में चन्द्रशेखर द्विवेदी का जन्म आश्विन कृष्णा चतुर्दशी रविवार संवत् 1967 को हुआ। आपकी माता का नाम रम्भा देवी था। आपके चार छोटे भाई है- दामोदर, गिरिवरधर, शिववल्लभ तथा विश्वनाथ । आपके वंश में अनेक संस्कृत विद्वान् हुए। इस समय भी आपके पुत्र डॉ. चन्द्रकान्त दवे, लाल बहादुर संस्कृत विद्यापीठ दिल्ली में सांख्ययोग विभागाध्यक्ष के रूप में सारस्वत साधना कर रहे हैं।

श्री चंद्रशेखर द्विवेदी की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा ज्येष्ठ पितृव्य श्री मोतीलाल के सान्निध्य में हुई। संस्कृत के प्रारंभिक अध्ययन के मूलग्रंथ लघुसिद्धान्तकौमदी, अष्टाध्यायी तथा अमरकोष को उन्ही से पढ़ा। इसके बाद आपने सनातन धर्म पाठशाला ब्यावर में पं. गोविन्दनारायण शास्त्री, पं. मुरारिलाल, पं. रामेश्वर त्रिवेदी तथा पं. प्यारेलाल शर्मा व्याकरणाचार्य से, व्याकरण शास्त्री प्रथम वर्ष तक का अध्ययन किया। तत्पश्चात् उच्चशिक्षा के लिए आपने विद्यानगरी काशी से व्याकरण शास्त्री, व्याकरणाचार्य तथा पोष्टाचार्य की उपाधि क्वींस कॉलेज [सम्प्रति सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय] में नियमित अध्ययन कर अधिगत की। काशी में आपने प्रसिद्ध पण्डित गणपति शास्त्री मोकाटे से व्याकरण व मीमांसा, म. म. हाराण चंद्र भट्टाचार्य तथा म. म. हरिहर कृपालु से वेदान्तदर्शन, नारायण शास्त्री [नृसिंह] तथा सूर्यनारायण न्यायव्याकरणचार्य से न्यायशास्त्र का अध्ययन किया। तपोनिधि रामयश त्रिपाठी ने आपको व्याकरण का उच्चस्तरीय ज्ञान प्रदान किया। आपने पोष्टाचार्य परीक्षा में म. म. गोपीनाथ कविराज से न्याय तथा वेदान्त का विशिष्ट अध्ययन किया। इसके अतिरिक्त स्वतंत्र अध्येता के रूप में आपने बंगीय परिषद कलकत्ता की वेदान्ततीर्थ, न्यायतीर्थ तथा सांख्यतीर्थ परीक्षाएं भी उत्तीर्ण की। यद्यपि आपके अनेक विद्यागुरु रहे हैं, परन्तु आपके जीवनदर्शन के वास्तविक गुरु स्वामी करपात्री हरिहरानन्द सरस्वती जी रहे हैं जिनके नेतृत्व एवं निर्देशन में आपने अपने समस्त जीवन को समर्पित किया।

अध्यापन:- पं. चंद्रशेखर द्विवेदी ने सन् 1937 ई. में साङ्गवेद विद्यालय काशी से अध्यापन प्रारम्भ किया। इसके बाद नारायण संस्कृत विद्यालय पेटलाद [गुजरात] के प्रधानाचार्य बने। इसके बाद 2 वर्ष अपने घर पर ही प्राचीन परिपाटी [गुरुकुल पद्धति] से विद्यालय का सञ्चालन किया। धर्मसंघ करपात्रीजी द्वारा स्थापित संस्था है, जो प्राचीन शास्त्री परंपरा को ही सर्वश्रेष्ठ तथा शाश्वत मानती है। धर्मसंघ सनातनधर्मियों को धार्मिक नेतृत्व करने वाली बहुअंगीय प्रमुख संस्था है, जिसमें करपात्री जी का प्रधान नेतृत्व तथा इनका प्रधान सहयोग रहा। आपने धर्मशिक्षा मंडल के निरीक्षक पद पर कार्य किया। सम्पादक के रूप में वाराणसी से प्रकाशित 'सन्मार्ग' दैनिक का कार्य सम्हाला तथा प्रसिद्धि पाई। आपने एक राष्ट्रीय राजनैतिक दल ’अखिल भारतीय रामराज्य परिषद’ के मंत्री पद पर भी कार्य किया। करपात्रीजी के निर्देश पर ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम, हरिद्वार में लगभग 2 वर्ष तक प्राचार्य रहे तथा अध्यापन कार्य किया। उसी समय आपने अनेक यज्ञयागादिकों [ पञ्चलक्षचंडी प्रयोग, अनेक शतमुख कोटि होम तथा श्रौतयाग आदि] को आचार्यत्व के साथ अनुष्ठित करवाया। एक वर्ष पं. द्विवेदी राष्ट्रीय आयुर्वेद अनुसंधान संस्थान, जामनगर [गुजरात] में आयुर्वेद मुख्याङ्ग वर्ण निश्चय, प्रकृतिनिर्णय आदि कार्यों का सम्पादन किया। उन्होंने तीन हजार पद्यात्मिका व्याख्यानमाला का हिन्दी अनुवाद किया, जो सत्संग मंडल सिहोरनगर [गुजरात] से प्रकाशित है।

इस प्रकार अनेक स्थानों पर शिक्षा का प्रकाश बांटते हुए राजस्थान लोकसेवा आयोग जयपुर द्वारा चयनित होकर [25 फरवरी 1955 से 28 जून 1964 तक ] महाराजा संस्कृत कॉलेज, जयपुर के अध्यक्ष [प्राचार्य] पद को विभूषित किया। इनसे पूर्व इस पद पर पं. गिरिधरशर्मा चतुर्वेदी तथा पं. पट्टाभिरामशास्त्री जैसी विभूतियां रह चुकी थी। उनके ये सुयोग्य उत्तराधिकारी सिद्ध हुए। यहां से शङ्कराचार्य के रूप अभिषिक्त होकर उन्होंने राजस्थान का गौरव वर्धन किया। सनातन धर्म के उपदेशक, शिक्षक, प्रचारक, संरक्षक, उपासक तथा नेता के रूप में उल्लेखनीय सेवाएं आपके द्वारा प्रदान की गई। अपनी बहुमुखी विद्वत्ता तथा अलौकिक प्रतिभा के कारण समय-समय पर महामहोपाध्याय, विद्याभूषण, पंडित मार्तण्ड आदि उपाधियों से विभूषित हुए।

शास्त्रों के पारगामी विद्वान, अतुलमेधावी, कट्टर शास्त्रानुयायी, प्रभविष्णु लेखक, ओजस्वी वक्ता, दुर्धर्ष नेता, शास्त्रार्थ धुरन्धर, कुशल प्रशासक, तपस्वी, त्यागी, सरल शिक्षक तथा शास्त्र मर्मज्ञ आदि योग्यता को रखते हुए महामानव के रूप में आपने हिन्दूधर्म के प्रचार-प्रसार तथा संरक्षण में सतत् प्रयत्न किया। आप संस्कृत तथा संस्कृति की सुरक्षा के लिए सदैव दृढ़प्रतिज्ञ रहे। 1966-67 ई. के गौरक्षा आन्दोलन में लगातार 72 दिन का अनशन दिल्ली किया, जिसके क्रम में तत्कालीन केन्द्र सरकार ने किसी प्रकार अनशन तुड़वाया। दुर्भाग्य है कि इसके बाद भी धर्मप्राण भारत में आज भी गोहत्या का कलंक विद्यमान है।

शङ्कराचार्य के रूप में प्राप्त छत्र, दण्ड तथा सिंहासन का गौ हत्या के विरोध में परित्याग इनके ऋषि सदृश अद्वितीय स्वाभिमान तथा निर्भीकता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। उन्हें अनेक बार जेल यात्रा करनी पड़ी। सदैव उन्होंने शास्त्र सम्मत परम्पराओं का पूर्ण समर्थन किया। उन्होंने 'हिन्दू कोड बिल' तथा 'गौहत्या' विरोधी आन्दोलनों का भी सक्रिय संचालन किया। उन्होंने गुरुकुल पद्धति के अनेक विद्यालयों की स्थापना करवाई। धर्म नियंत्रित शासन व्यवस्था के प्रबल पक्षधर रहे एवम् प्रखर आलोचना के बाद भी अपनी मान्यता पर सदैव अडिग रहे।

आदि शङ्कराचार्य के द्वारा पूर्व दिशा में स्थापित जगन्नाथ पुरी [उड़ीसा] के गोवर्द्धन पीठ के 86 वर्षीय परमाचार्य स्वामी श्री निरञ्जन देव तीर्थ ने अपने भौतिक शरीर का, भाद्रपद शुक्ला प्रतिपदा शुक्रवार 13 सितम्बर, 1996 को, काशी में परित्याग कर दिया।परमपूज्य प्रातःस्मरणीय विद्वत्ता के निकष, अभयत्व के सुमेरु, शास्त्रार्थकाननपंचानन, सनातनधर्ममर्यादापालक, परमगो उपासक , बहत्तर दिवस तक गौरक्षार्थ अनशन करने वाले, नास्तिकों विधर्मियों के कुतर्क रूपी सघन वन को काटने में परशुधर के समान,श्रीविद्या के सांगोपांग परमोपासक, धर्मसम्राट् स्वामी श्रीकरपात्री जी महाराज के अद्वितीय आज्ञानुवर्ती, यतिकुलतिलक पूर्वाम्नाय ऋग्वेदीय गोवर्धन मठाधीश्वर जगद्गुरुशंकराचार्य ब्रह्मलीन स्वामी श्री निरंजनदेव तीर्थ जी महाराज की २७वें आराधना पर्व (भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा) के पावन अवसर पर कोटि कोटि साष्टांग प्रणाम।🙏🙏🙏🙏
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