मुक्त-छंद के प्रथम कवि थे महेश नारायण, कथा-साहित्य के एक युग का नाम है प्रेमचंद:-डा अनिल सुलभ

मुक्त-छंद के प्रथम कवि थे महेश नारायण, कथा-साहित्य के एक युग का नाम है प्रेमचंद:-डा अनिल सुलभ

  • राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन को भी किया गया श्रद्धापूर्वक स्मरण, आयोजित हुई लघुकथा-संगोष्ठी ।

पटना, १ अगस्त। भारत के मानचित्र पर 'बिहार' का नाम भी अंकित हो, इस हेतु महा-संग्राम का प्रथम शंख-नाद करने वाले बाबू महेश नारायण 'बिहारी-अस्मिता' के जागरण का प्रतीक ही नहीं, एक महान सांस्कृतिक-योद्धा, बड़े पत्रकार और हिन्दी-साहित्य में मुक्त-छंद के प्रथम कवि भी थे। महाप्राण निराला की 'जूही की कली' के प्रकाशन के तीन दशक पूर्व महेश बाबू की काव्य रचना 'स्वप्न-भंग' प्रकाशित हो चुकी थी। दूसरी ओर प्रेमचंद हिन्दी-कथा-साहित्य के एक ऐसे महानायक हैं, जिनके लेखन-काल को उनके नाम से जाना जाता है। कथा-साहित्य के एक युग का नाम है प्रेमचंद।
यह बातें मंगलवार को, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में आयोजित जयंती समारोह और लघुकथा-गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए,सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। डा सुलभ ने कहा कि, 'सोजे-वतन' जैसी उर्दू कहानियों से अपनी साहित्यिक यात्रा आरंभ करने वाले मुंशी प्रेमचंद हिन्दी के कथा-सम्राट के रूप में इसलिए ख्यात हुए कि उन्होंने भारत के लोक-जीवन और उनकी समस्याओं का नब्ज़ पकड़ा था। उनकी कहानियाँ, भारत के आमलोगों की कहानियाँ हैं। उनमें किसान, मज़दूर और ग़रीबों की पीड़ा और प्रतिकार के स्वर हैं। इसीलिए वे आम पाठकों को उनकी अपनी कहानियाँ लगीं हैं। प्रेमचंद मानव-मन की मूल-ग्रंथियों को स्पर्श करते हैं, इसलिए हर काल में प्रासंगिक हैं।
अखिल भारतवर्षीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के संस्थापक प्रधानमंत्री राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन को स्मरण करते हुए उन्होंने कहा कि टण्डन जी भारत की स्वतंत्रता का संग्राम लड़ने वाले बलिदानी तपस्वियों की पीढ़ी के पुरोधा संत थे। राष्ट्र और राष्ट्रभाषा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले इस ऋषि-तुल्य मनीषी ने हिन्दी के लिए नेहरू से भी लड़ने में संकोच नही किया। भारत की संघीय सरकार की भाषा'हिन्दी' और लिपि 'देवनागरी' हो, इस हेतु टण्डन जी ने अपनी सारी शक्तियाँ लगाई। हिन्दी के प्रचार-प्रसार में उनका अतुल्य योगदान रहा है।
अतिथियों का स्वागत करते हुए, सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद ने कहा कि, प्रेमचंद 'युगबोध' के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कथाकार हैं। उनकी कहानियों में कठोर यथार्थ और गहरी पीड़ा भी। उन्होंने अपने युग की सभी प्रवृतियों को समझा और उन्हें अपनी सर्जना का विषय बनाया। वे अपनी कहानियों में सदा जीवित और प्रासंगिक रहेंगे।
सम्मेलन की उपाध्यक्ष डा मधु वर्मा, प्रसिद्ध फ़िल्मकार किरण कांत वर्मा, भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी और कवि बच्चा ठाकुर,ई आनंद किशोर मिश्र, डा तलत परवीन, अरुण कुमार श्रीवास्तव, डा मनोज गोवर्द्धनपुरी, तथा ने भी अपने विचार व्यक्त किए।
इस अवसर पर आयोजित लघुकथा-गोष्ठी में, डा शंकर प्रसाद ने 'अफ़सोस' शीर्षक से, कमल किशोर 'कमल' ने 'साक्षात्कार', कुमार अनुपम ने 'विश्वास', जय प्रकाश पुजारी ने 'घरौंदा', शमा कौसर 'शमा' ने 'सिस्टर', अर्जुन प्रसाद सिंह ने 'अंधा', अंकेश कुमार ने ''अपेक्षा', अरविंद अकेला ने 'कुत्तों का बौस' शीर्षक से अपनी लघुकथा पढ़ी। मंच का संचालन ब्रह्मानन्द पाण्डेय ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन डा मनोज गोवर्द्धनपुरी ने किया। चंदा मिश्र की वाणी-वंदना से आरंभ हुए इस समारोह में, सम्मेलन के अर्थमंत्री प्रो सुशील झा,व्यंग्यकार बाँके बिहारी साव, इलमी मजलिस के महासचिव परवेज़ आलम, पत्रकार राकेश दत्त मिश्र, लेखक अनिल कुमा, डा चंद्रशेखर आज़ाद, अमन वर्मा, ललितेश्वर प्रसाद सिंह, दुःख दमन सिंह, श्रीबाबू आदि अनेक प्रबुद्धजन उपस्थित थे।
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