इंडिया भारत नहीं हो सकता।
आवश्यक नहीं किसद्ग्रंथों की समझ
व्याकरण से हो।
यह आवश्यक है कि
इनकी परख
अंतःकरण से हो।
आवश्यक यह भी नहीं
कि चरित्र की परख
आवरण से हो।
आवश्य यह है कि
चरित्र की परख
आचरण से हो।
आवश्यता नाम बदलने की नहीं
विचार बदलने की है
आहार और व्यवहार
बदलने की है।
भारत का पर्याय
इंडिया हो सकता है
किंतु इंडिया कभी
भारत ,नहीं हो सकता है।
संस्कृति हमारी धरोहर है
प्रकृति हमारी मनोहर है
सभ्यता यदि सहोदर है
तो,संस्कार भी पयोधर है
इनकी रक्षा हमारा धर्म है
यही तो शास्त्रों का मर्म है।
...मनोज कुमार मिश्र"पद्मनाभ"।
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