जय हो धरती मइया

जय हो धरती मइया

मार्कण्डेय शारदेय(ज्योतिष धर्मशास्त्र विशेषज्ञ)
जय हो, जय हो धरती मइया की! हम तेरे पूत तुझसे बड़ी-बड़ी अपेक्षाएँ रखते हैं। आखिर रखें भी क्यों नहीं, जब तू नहीं रहेगी तो हम ही न तेरी बिरासत सँभालेंगे! नालायक कह या लायक हम ही न हैं तेरे असली बारिस!मौजो मस्ती में जीना हमारा शौक है।परदुःख-कातरता तेरा स्वभाव हो सकता है,पर हम तो अपने दुःख को दुःख और अपने सुख को सुख माननेवाले हैं।हमें इतनी फुर्सत कहाँ कि तेरी सेहत पर गौर फरमाएँ।हमारा पक्का विश्वास है कि तू सर्वंसहा है ।सब कुछ सहकर भी चूँ तक नहीं करनेवाली है।आखिर चूँ करेगी भी तो क्यों ?क्षमाशीलता का सम्मान-पत्र जो मिला है।समस्त जड़-चेतन का मातृत्व जो तुझे प्राप्त है।
सुना था कभी गाय बनकर अपने आका विधाता के पास गई थी। धरती पर पाप,बोझ बढ़ने का रोना रोया था। ब्रह्मा की विनती पर विष्णु ने तेरे लिए कई रूपों में अवतार धरे। बात सच भी हो तो आखिर तू बन भी सकती है तो निरीह गाय ही न!गाय भी दयालुता का ही पर्याय है।वह मारेगी भी तो सींग मारेगी,जैसे कभी-कभी कुपित माता कोमल चाँटा मारती है। पर अब तो गायें बिनसींगी बनाई जा रही हैं।अब गाय बनकर मारेगी तो क्या मारेगी।हाँ,विधाता के पास शिकायत लेकर जाएगी और वह विष्णु से आरजू करेंगे तो भी कोई परवा नहीं।विष्णु के रूप धरते-धरते हम अपने अरमान,मौज में पूरा डूबे रहेंगे। या मरेंगे भी तो सुख में मरेंगे।परन्तु हम तुझे इस कदर कर चुके रहेंगे कि तू निपूती व बाँझ रहने का आशीर्वाद-वरदान माँगती फिरेगी। हम तो अपने लिए जीने-मरनेवाले हैं।हमारे लिए यह भी कोई मायने नहीं रखता कि हमारी सन्तानों का क्या होगा।
सुना है ,आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है तो अगली पीढ़ी अपना सोचेगी।‘पूत कपूत तो क्यों धन संचैं ,पूत सपूत तो क्यों धन संचैं’ इस कहावत का पालन भी तो करना है,जो जैसा रोगी चाहे वैसा वैद्य बताए है।हम अपने सुख के आगे किसी को आड़े आने देना नहीं चाहते।
खैर,विष्णु अवतार लेकर हमें मार डालेंगे।मार डालें।कौन भागता है।जंगेजिन्दगी में एक न एक दिन सबको कुर्बान होना ही है।क्या दुश्मन को ताकतवर जानकर बहादुर सिपाही मैदान छोड़ भागता है?क्या हवाई दुर्घटना,रेल दुर्घटना,सामुद्रिक तूफान,भूकम्प से जिन्दगी रुक गई?लोग रुक गए?
हाँ,हम तेरी ही सन्तान हैं तो कुछ न कुछ अच्छाई हममें होगी ही।है ही। हम भले जंगल काटते हों,पर निर्माण कार्य भी करते ही हैं।जंगलों को शहर बनाते हैं और पर्यावरण के लिए गमलों में पौधे लगाते हैं।प्रदूषण न फैले इसलिए कीचड़-कादो को दूर भगाने के लिए घर की फर्श ही नहीं,सड़कों,गलियों,नालों को भी पक्का बनाते हैं।जल को गन्दा करते हैं तो मशीनों से काम भर साफ भी करके पीते हैं।ध्वनि प्रदूषण फैलाकर वातानुकूलित बन्द कमरे में रहते भी हैं। सबसे बड़ी बात कि हम लायक हों या नालायक अपनी आर्ष संस्कृति को भूले नहीं हैं। हम नित्य परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं कि आकाश चुप रहे,अन्तरिक्ष चुप रहे,पृथ्वी चुप रहे,जल-जलाशय चुप रहें,सभी प्रकार के पेड़-पौधे चुप रहें,सभी देवता चुप रहें;यहाँ तक कि ब्रह्माण्ड के समस्त अवयव और सर्वव्यापक परमात्मा भी चुप रहें।ये चुप्पियाँ हमारी अनुभूति में आएँ अर्थात् हमें यह महसूस हो कि ये सबके सब चुप हैं और रहेंगे भी ।प्रार्थना होती भी है ऐसी ही-हमारे प्रभु अवगुन चित न धरौं।वाकई सब चुप हैं,तभी तो धरती पर जीवन है,सभी साधन हैं और हम मौज में हैं।“ऊँ द्यौस्शान्ति....”यह वैदिक प्रार्थना खुद नहीं करते तो पण्डितों को बुलाकर कराते हैं।स्वयं सुनते हैं या भगवान को सुनाते हैं।तो क्या हम स्वार्थी हैं?कोई माने न माने ,हम सच्चे सपूत हैं।हमारे स्वार्थ में भी भरपूर परमार्थ है।जय हो,जय हो धरती मइया की !पर्यावरण दिवस मनाकर हम तेरा मान तो रख ही रहे हैं न!तू मान या न मान हम ही तेरे नए युग के नई सोच के,नए संस्कार के सच्चे वारिस हैं। हमारे रंग में भंग मत डाल। डालना है तो डाल दे और जल्दी अपना सरबस सौंपकर गोलोक सिधार।हम विश्वामित्र की तरह नई सृष्टि में लग जाएंगे।भाड़े की माँ मँगा लेंगे। वर्ना हम जो कर रहें हैं करने दे।तू चुप रह,चुप रह,चुप रह धरती मइया! (सांस्कृतिक तत्त्वबोध से)
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