सर्वागीण एवं सौभाग्य की देवी माँ सावित्री

सर्वागीण एवं सौभाग्य की देवी माँ सावित्री

सत्येंद्र कुमार पाठक
वेदों और स्मृतियों में सावित्री के सतीत्व और व्यक्तित्व का उल्लेख किया गया है । सौभाग्य और सुहाग को देने वाला और संतान की प्राप्ति में सहायता देने वाला व्रत वट सावित्री है। भारतीय संस्कृति में वटसावित्री व्रत आदर्श नारीत्व का प्रतीक है। साहित्यकार व इतिहासकार सत्येंद्र कुमार पाठक ने कहा कि स्कंद पुराण तथा भविष्यपुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास की अमावस्या को व्रत करने की परंपरा है। वट सावित्री ज्येष्ठ मास की अमावस्या को वटसावित्री सौभाग्य की वृद्धि और पतिव्रत के संस्कारों को आत्मसात कराता है । वट सावित्री व्रत में 'वट' और 'सावित्री' दोनों का विशिष्ट महत्व माना गया है। पाराशर ऋषि के अनुसार- 'वट मूले तोपवासा' कहा गया है। पुराणों में उल्लेख है की बरगद वृक्ष ( वट वृक्ष ) में भगवान ब्रह्मा, विष्णु व महेश वास है। बरगद की छाया में बैठकर पूजन, व्रत कथा आदि सुनने से मनोकामना पूरी होती है। वट वृक्ष अपनी विशालता के कारण वनगमन में ज्येष्ठ मास की तपती धूप से रक्षा के लिए वट की छया में पूजा की जाती है। दार्शनिक के अनुसार वट वृक्ष दीर्घायु व अमरत्व-बोध के प्रतीक , ज्ञान व निर्वाण का भी प्रतीक है। महिलाएँ व्रत-पूजन कर कथा कर्म के साथ-साथ वट वृक्ष के आसपास सूत के धागे परिक्रमा के दौरान लपेटती हैं। वट वृक्ष का पूजन और सावित्री-सत्यवान की कथा का स्मरण करने के विधान के कारण वट सावित्री ब्रत हुआ है । सावित्री का अर्थ वेद में माता सावित्री है। भद्र देश के राजा अश्वपति के कोई संतान नही रहने के कारण संतान की प्राप्ति के लिए मंत्रोच्चारण के साथ प्रतिदिन एक लाख आहुतियाँ अठारह वर्षों के बाद सावित्रीदेवी ने प्रकट होकर वर दिया कि 'राजन तुझे एक तेजस्वी कन्या पैदा होगी।' सावित्रीदेवी की कृपा से जन्म लेने की वजह से कन्या का नामकारण सावित्री रखा गया।कन्या बड़ी होकर बेहद रूपवान थी। योग्य वर न मिलने की वजह से सावित्री के पिता दुःखी थे। राजा अश्वपति ने कन्या सावित्री को स्वयं वर तलाशने भेजा। सावित्री तपोवन में भटकने लगी। वन में साल्व देश के राजा द्युमत्सेन रहते थे क्योंकि उनका राज्य किसी ने छीन लिया था। राजा द्युम्नसेन का पुत्र सत्यवान को देखकर सावित्री ने पति के रूप में उनका वरण किया । साल्व देश पूर्वी राजस्थान या अलवर अंचल के इर्द-गिर्द था। राजा द्युम्नसेन का पुत्र सत्यवान वेद ज्ञाता लेकिन अल्पायु थे। नारद मुनि ने सावित्री से मिलकर सत्यवान से विवाह न करने की सलाह दी थी परंतु सावित्री ने सत्यवान से ही विवाह रचाया। पति की मृत्यु की तिथि में जब कुछ ही दिन शेष रह गए तब सावित्री ने घोर तपस्या की थी, जिसका फल उन्हें बाद में मिला था।पुराण, व्रत व साहित्य में सावित्री की अविस्मरणीय साधना की गई है। सौभाय के लिए किया जाने वाले वट-सावित्री व्रत आदर्श नारीत्व के प्रतीक के नाते स्वीकार किया गया है।पूजा स्थल पर पहले रंगोली बना लें, उसके बाद अपनी पूजा की सामग्री वहां रखें।अपने पूजा स्थल पर एक चौकी पर लाल रंग का कपड़ा बिछाकर उस पर लक्ष्मी नारायण और शिव-पार्वती की प्रतिमा या मूर्ति स्थापित करें।पूजा स्थल पर तुलसी का पौधा रखें।सबसे पहले गणेश जी और माता गौरी की पूजा करें। तत्पश्चात बरगद के वृक्ष की पूजा करें। पूजा में जल, मौली, रोली, कच्चा सूत, भिगोया हुआ चना, फूल तथा धूप का प्रयोग करें. भिगोया हुआ चना, वस्त्र और कुछ धन अपनी सास को देकर आशिर्वाद प्राप्त करें। सावित्री-सत्यवान की कथा का श्रवण करना चाहिये । पुष्कर शहर का रत्नागिरी पहाडी की ऊँचाई 750 फीट पर सावित्री मंदिर है ।जेष्ठ कृष्ण अमावस्या को सुहागिन महिलाए वटसावित्री व्रत कर अपने सुहाग की लंबी आयु और सुख, सौभाग्य का आशीर्वाद प्राप्त करती हैं । प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ माह की अमावस्या को वट सावित्री का व्रत किया जाता है ।
प्रतिवर्ष ज्येष्ठ मास की अमावस्या को सनातन धर्म की सुहागिनों महिलाओं द्वारा तथा ज्येष्ठ मास की अमावस्या को वट सावित्री व्रत का पर्व मनाया जाता है। वट वृक्ष की जड़ों में ब्रह्मा, तने में भगवान विष्णु व डालियों व पत्तियों में भगवान शिव का निवास स्थान माना जाता है। सावित्री व्रत में महिलाएं वट वृक्ष की पूजा करती हैं, सती सावित्री की कथा सुनने व वाचन करने से सौभाग्यवती महिलाओं की अखंड सौभाग्य की कामना पूरी होती है। वट सावित्री व्रत कथा के अनुसार सावित्री के पति अल्पायु थे, उसी समय देव ऋषि नारद आए और सावित्री से कहने लगे की तुम्हारा पति अल्पायु है। आप कोई दूसरा वर मांग लें। पर सावित्री ने कहा- मैं एक हिन्दू नारी हूं, पति को एक ही बार चुनती हूं। इसी समय सत्यवान के सिर में अत्यधिक पीड़ा होने लगी।सावित्री ने वट वृक्ष की छाया में अपने गोद में पति के सिर को रख उसे लेटा दिया। उसी समय सावित्री ने देखा अनेक यमदूतों के साथ यमराज आ पहुंचे है। सत्यवान के जीव को दक्षिण दिशा की ओर लेकर जा रहे हैं। यह देख सावित्री यमराज के पीछे-पीछे चल देती हैं।सावित्री को आता देख यमराज ने कहा कि- हे पतिव्रता नारी! पृथ्वी तक ही पत्नी अपने पति का साथ देती है। अब तुम वापस लौट जाओ। उनकी इस बात पर सावित्री ने कहा- जहां मेरे पति रहेंगे मुझे उनके साथ रहना है। यही मेरा पत्नी धर्म है। सावित्री के मुख से यह उत्तर सुन कर यमराज बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने सावित्री को वर मांगने को कहा और बोले- मैं तुम्हें तीन वर देता हूं। बोलो तुम कौन-कौन से तीन वर लोगी। तब सावित्री ने सास-ससुर के लिए नेत्र ज्योति मांगी, ससुर का खोया हुआ राज्य वापस मांगा एवं अपने पति सत्यवान के सौ पुत्रों की मां बनने का वर मांगा। सावित्री के यह तीनों वरदान सुनने के बाद यमराज ने उसे आशीर्वाद दिया और कहा- तथास्तु! ऐसा ही होगा।‍सावित्री पुन: उसी वट वृक्ष के पास लौट आई। जहां सत्यवान मृत पड़ा था। सत्यवान के मृत शरीर में फिर से संचार हुआ। इस प्रकार सावित्री ने अपने पतिव्रता व्रत के प्रभाव से न केवल अपने पति को पुन: जीवित करवाया बल्कि सास-ससुर को नेत्र ज्योति प्रदान करते हुए उनके ससुर को खोया राज्य फिर दिलवाया। तभी से वट सावित्री अमावस्या और वट सावित्री अमावस्या के दिन वट वृक्ष का पूजन-अर्चन करने का प्रावधान है। यह व्रत करने से सौभाग्यवती महिलाओं की मनोकामना पूर्ण होती है और उनका सौभाग्य अखंड रहता है।एकनिष्ठ पतिपरायणा स्त्रियां अपने पति को सभी दुख और कष्टों से दूर रखने में समर्थ होती है। जिस प्रकार पतिव्रता धर्म के बल से ही सावित्री ने अपने पति सत्यवान को यमराज के बंधन से छुड़ा लिया था। इतना ही नहीं खोया हुआ राज्य तथा अंधे सास-ससुर की नेत्र ज्योति भी वापस दिला दी। उसी प्रकार महिलाओं को अपना गुरु केवल पति को ही मानना चाहिए। गुरु दीक्षा के चक्र में इधर-उधर नहीं भटकना चाहिए।सावित्री और सत्यवान की कथा सबसे पहले महाभारत के वनपर्व में मिलती है। युधिष्ठिर मारकण्डेय ऋषि से पूछ्ते हैं कि क्या कभी कोई और स्त्री थी जिसने द्रौपदी जितना भक्ति प्रदर्शित की थी । सावित्री प्रसिद्ध तत्त्‍‌वज्ञानी राजर्षि अश्वपति की एकमात्र कन्या थी। अपने वर की खोज में जाते समय उसने निर्वासित और वनवासी राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान् को पतिरूप में स्वीकार कर लिया। जब देवर्षि नारद ने उनसे कहा कि सत्यवान् की आयु केवल एक वर्ष की ही शेष है तब सावित्री ने बडी दृढता के साथ कहा- जो कुछ होना था सो तो हो चुका। माता-पिता ने भी बहुत समझाया, परन्तु सती अपने धर्म से नहीं डिगी! सावित्री का सत्यवान् के साथ विवाह हो गया। सत्यवान् बडे धर्मात्मा, माता-पिता के भक्त एवं सुशील थे। सावित्री राजमहल छोडकर जंगल की कुटिया में आ गयी। आते ही उसने सारे वस्त्राभूषणों को त्यागकर सास-ससुर और पति वल्कल के वस्त्र पहनते थे वैसे ही पहन लिये और अपना सारा समय अपने अन्धे सास-ससुर की सेवा में बिताने लगी। सत्यवान् की मृत्यु का दिन निकट आ पहुँचा।सत्यवान् अगिन्होत्र के लिये जंगल में लकडियाँ काटने जाया करते थे। आज सत्यवान् के महाप्रयाण का दिन है। सावित्री चिन्तित हो रही है। सत्यवान् कुल्हाडी उठाकर जंगल की तरफ लकडियाँ काटने चले। सावित्री ने भी साथ चलने के लिये अत्यन्त आग्रह किया। सत्यवान् की स्वीकृति पाकर और सास-ससुर से आज्ञा लेकर सावित्री भी पति के साथ वन में गयी। सत्यवान लकडियाँ काटने वृक्षपर चढे, परन्तु तुरंत ही उन्हें चक्कर आने लगा और वे कुल्हाडी फेंककर नीचे उतर आये। पति का सिर अपनी गोद में रखकर सावित्री उन्हें अपने आंचल से हवा करने लगी।थोडी देर में ही उसने भैंसे पर चढे हुए, काले रंग के सुन्दर अंगोंवाले, हाथ में फाँसी की डोरी लिये हुए, सूर्य के समान तेजवाले एक भयंकर देव-पुरुष को देखा। उसने सत्यवान् के शरीर से फाँसी की डोरी में बँधे हुए अँगूठे के बराबर पुरुष को बलपूर्वक खींच लिया। सावित्री ने अत्यन्त व्याकुल होकर आर्त स्वर में पूछा- हे देव! आप कौन हैं और मेरे इन हृदयधन को कहाँ ले जा रहे हैं? उस पुरुष ने उत्तर दिया- हे तपस्विनी! तुम पतिव्रता हो, अत: मैं तुम्हें बताता हूँ कि मैं यम हूँ और आज तुम्हारे पति सत्यवान् की आयु क्षीण हो गयी है, अत: मैं उसे बाँधकर ले जा रहा हूँ। तुम्हारे सतीत्व के तेज के सामने मेरे दूत नहीं आ सके, इसलिये मैं स्वयं आया हूँ। यह कहकर यमराज दक्षिण दिशा की तरफ चल पडे।सावित्री भी यम के पीछे-पीछे जाने लगी। यम ने बहुत मना किया। सावित्री ने कहा- जहाँ मेरे पतिदेव जाते हैं वहाँ मुझे जाना ही चाहिये। यह सनातन धर्म है। यम बार-बार मना करते रहे, परन्तु सावित्री पीछे-पीछे चलती गयी। उसकी इस दृढ निष्ठा और पातिव्रतधर्म से प्रसन्न होकर यम ने एक-एक करके वररूप में सावित्री के अन्धे सास-ससुर को आँखें दीं, खोया हुआ राज्य दिया, उसके पिता को सौ पुत्र दिये और सावित्री को लौट जाने को कहा। परन्तु सावित्री के प्राण तो यमराज लिये जा रहे थे, वह लौटती कैसे? यमराज ने फिर कहा कि सत्यवान् को छोडकर चाहे जो माँग लो, सावित्री ने कहा-यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे सत्यवान् से सौ पुत्र प्रदान करें। यम ने बिना ही सोचे प्रसन्न मन से तथास्तु कह दिया। वचनबद्ध यमराज आगे बढे। सावित्री ने कहा- मेरे पति को आप लिये जा रहे हैं और मुझे सौ पुत्रों का वर दिये जा रहे हैं। यह कैसे सम्भव है? मैं पति के बिना सुख, स्वर्ग और लक्ष्मी, किसी की भी कामना नहीं करती। बिना पति मैं जिना भी नहीं चाहती।वचनबद्ध यमराज ने सत्यवान् के सूक्ष्म शरीर को पाशमुक्त करके सावित्री को लौटा दिया और सत्यवान् को चार सौ वर्ष की नवीन आयु प्रदान की। नारी की सतीत्व और कर्तव्य का रूप माता सावित्री है । अथर्ववेद में माता सावित्री की महान नारीत्व तथा सतीत्व की रक्षिका कहा गया है । वट सावित्री ब्रत सुहागन और इच्छाशक्ति है ।ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या 2080 दिनांक 19 मई 2023 को व्रत सुहागिन महिलाएं बट सावित्री व्रत को रखेंगी। ज्योतिष एवं विभिन्न पंचांगों के अनुसार , 18 मई 2023 की रात 9 बजकर 42 मिनट पर अमावस्या की तिथि का प्रारंभ और 19 मई 2023 की रात 9 बजकर 22 मिनट तक रहेगी । सुहागिन महिलाओं के लिए वट सावित्री का पूजन और पति की लम्बी आयु की कामना के लिए सुहागिन महिलाएं पूरे दिन व्रत रख कर वट वृक्ष के नीचे पूजा के साथ कथा सुनती हैं । पंचाग के मुताबिक, ज्येष्ठ मास की अमावस्या तिथि को व्रत सावित्री व्रत रखा जाता है। 18 मई 2023 की रात 9 बजकर 42 मिनट पर अमावस्या की तिथि का प्रारंभ एवं 19 मई रात 9 बजकर 22 मिनट तक समाप्त होगी । वट सावित्री ब्रत 19 मई को गज केसरी योग के साथ शश राजयोग है । वट सावित्री पूजन के दिन सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठकर सुहागिन महिलाओं को स्नान करने के बाद सोलह श्रृंगार करने के बाद भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी का ध्यान कर व्रत का संकल्प लेने के बाद वट वृक्ष (बरगद) के नीचे बैठ कर पूजा के साथ सावित्री और सत्यवान की कथा भी सुननी चाहिए । सुहागिन ब्रतधारी द्वारा श्रृंगार का सामान, ऋतु फल और कच्चे सूत के धागे को वट वृक्ष के तने में बांधकर कम से कम 7 बार परिक्रमा करनी चाहिए. पूजन के बाद घर के बड़ों का आशीर्वाद लेती है। बट सावित्री व्रत और पूजन से पति की आयु लम्बी होती है तथा घर में सुख शांति के साथ वैभव और ऐश्वर्य की प्राप्ति और पति पर आने वाले संकट भी दूर हो जाते हैं।
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