क्यों खो दिये अपने...
वो ऐसे आये मेरे सपनो में
की हम उन्हें भूला न सके।
जिंदगी के दोह राह पर
खड़े होकर उन्हें देखते रहे।
आलम इस तरह का था की
सपने के लिए जल्दी सो थे।
जिंदगी का सफर इसी तरह
सपनो के सहारे चलता रहा।।
न हमने उन्हें सामने से देखा
न उन्होंने मुझे समाने से देखा।
दोनों की सोच कैसी क्या थी
न उन्हें पता था न हमे पता था।
परंतु सपनो में आना जाना
उनका निरंतर बना हुआ था।
वो उस तरफ थे हम इस तरफ
फिर भी दोनों किनारे मिल चुके थे।।
हमें तो हवाओं के झोंको से
उनके आने का भास होता था।
बहते हुये पानी की आवाजे
हमें प्यार का संदेश देती थी।
और साथ बहाने को हमसे
मानो वो कहती रहती थी।
हम भी उनके साथ बहकर
एक दिन समुद्र में समा गये।।
जितना जी सके उनके साथ
उतना जीकर हम धन्य हो गये।
नदी रूप में सबके काम आये
परंतु समुद्र में मिलकर खो गये।
सच कहे तो अपना खुदका
अस्वत्र ही हम दोनों खो दिये।
अब तो कुछ जगह ही हमें देखा
और मेहसूस किया जाता है।।
जय जिनेंद्रसंजय जैन "बीना" मुंबई
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