बाजारवाद

बाजारवाद

मैंने कहा
भारतीय संस्कृति मे
बेटी के घर का खाना
उचित नहीं माना जाता,
हमारी परम्परा
बहन बेटी को देने की है
उनसे कुछ भी लेने की नहीं।


लोगों ऩे मुझे पढ़ा, सुना और
अतीत की दिवार पर चस्पा कर दिया,
मुझे भारी जवानी मे
बूढ़ा करार दे दिया गया।


बाजारवाद के इस दौर मे
सभ्यता और संस्कृति के
शाश्वत नियमों का उल्लंघन,
अंतहीन, प्रयोजन रहित
बहस करना
वर्तमान बता दिया।
और
एक नई बहस को जन्म दिया
कि नारी
मात्र वस्तु है, भोग्या है
तथा
उसे विज्ञापन बना दिया,
घर दफ्तर से
दिवार पर लगे पोस्टर तक।
और नारी खुश हो गई
पैसों कि चमक मे
कहीं खो गई।


शायद
इन आधुनिक बाजारवादी लोगों के लिए
कल बहन और बेटी भी
वस्तु / विज्ञापन
या भोग्या बन जायेंगी
यही इनका भविष्य होगा।
और हम
काल के गर्त मे समाकर
प्राचीन असभ्य युग मे
वापस आ जायेंगे।


सच ही तो है
इतिहास स्वयं को दोहराता है।
सृष्टि के विकास क्रम मे
मनुष्य नंगा रहता था,
आज हम पुनः
बाजारवाद की दौड़ मे
सभ्यता को छोड़कर
नग्नता की और बढ़ रहे हैं,
मन से भी और तन से भी।
प्राचीन कबीलाई संस्कृति को
पुनः अपना रहे हैं,
जातिवाद, क्षेत्रवाद व धर्मवाद के
नए कबीले
तैयार किये जा रहे हैं।


असभ्य मानव
अज्ञानवश पशुओं को खाता था
आज बाजारवाद मे
प्रायोजित तरीकों से
पशु-पक्षियों को
खाद्य बताया जा रहा है,
जिसके कारण
अनेक प्रजातियाँ लुप्त हो गयी
कुछ होने के कगार पर हैं,
मगर हम सभ्य हैं,
बाज़ार की भाषा मे
विकास कर रहे हैं,
जंगलों को काटकर
मकान तथा
अस्त्र शस्त्र निर्माण कर रहे हैं।
अब हैजे या प्लेग जैसी
बीमारी की जरुरत नहीं,
सिर्फ एक बम ही काफी है
लाखों लोग नींद मे सो जायेंगे,
उनके संसाधनों पर
हम कब्ज़ा जमायेंगे।


यही तो होता था,
कबीलों मे भी
जिसने जीता
स्त्री पुरुष, धन संपत्ति
सब उसकी
और आज भी यही होता है
जंगल के राजा
शेर के व्यवहार मे
बंदरों के संसार मे,
और
इन आधुनिकों के
उन्मुक्त विचार मे,
घर व्यापार मे।


हम
सुनहरे कल की और बढ़ रहे हैं,
वह सुनहरा कल
जिसका आधार
बीता हुआ कल है,
जिसका वर्तमान
लंगड़ा व अँधा है,
जिसका भविष्य
अंधकारमय है,
और
जो स्थिर होना चाहता है
बाजारवाद के
खोखले कन्धों पर।


तमसो माँ ज्योतिर्गमय।

डॉ अ कीर्तिवर्धन
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