तुलसीदास के बारेमें कुछ भ्रम और दुष्प्रचार-

तुलसीदास के बारेमें कुछ भ्रम और दुष्प्रचार-

संकलन अश्विनी कुमार तिवारी
तुलसीदास ने अपने जन्मस्थान के विषय में रामचरितमानस के आरम्भ में हि बहुत स्पष्ट निर्देश किया है। विपरीत पदार्थों की सूची में २ जोड़े हैं- काशी-मग सुरसरि-क्रमनाशा। तुलसीदास जैसा सन्त जो इसके तुरत बाद असन्तों की वन्दना कर रहा है, कभी भी मगध की एक क्षेत्र के रूप में निन्दा नहीं करेगा यह पुराने शाहाबाद (उसके बाद भोजपुर, अभी बक्सर जिला) के राजापुर गांवके थे जहां उनके वंशज अभी भी वर्तमान हैं। इस गांव के निकट कर्मनाशा नाम एक छोटी सी नदी है और वहीं के लोग इसका नदी के रूप में उल्लेख कर सकते हैं। इसी क्षेत्र के लिये काशी पश्चिम और मगध उत्तर है और इस अर्थ में विपरीत हैं। तुलसीदास जी की १०वीं पीढ़ी में पण्डित रामगुलाम द्विवेदी संस्कृत के विख्यात विद्वान् थे, पर तुलसी परम्परा में ही उन्होंने केवल लोकभाषा भोजपुरी में ही लिखा, मुख्यतः सामाजिक सुधार के लिये कई नाटक और कवितायें। उनके पौत्र जगदीश द्विवेदी १९६३ में मेरे ग्राम (आरा के निकट पैगा) में ग्रामसेवक थे, उनके पास मैंने तुलसीदास की वंशावली देखी थी। उनके पास ग्रियर्सन और बिहार नागरी प्रचारिणी सभा, आरा से प्रकाशित शिवनन्दन सहाय लिखित तुलसीदास की जीवनी भी देखी थी। १९१५ की यह पुस्तक राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना द्वारा पुनः प्रकाशित हुयी है, १९९० में। मेजर ग्रियर्सन १८५८ में कुंवर सिंह के विद्रोह क्षेत्रों में व्यापक नरसंहार करने वालों में से थे, जिसके बाद इस षेत्र के निवासियों को मारिशस, फिजी, गुयाना आदि मजदूर या गुलाम बना कर भेजा गया। उनको गिरमिटिया (ऐग्रीमेण्ट वाले) मजदूर कहते थे पर वे भारत नहीं लौट सकते थे, अतः गुलाम ही थे। भारत से बाहर जाते समय भी आरा से आजमगढ़ तक के लोग तुलसीदास की रचनाओं रामचरितमानस और हनुमान चालीसा ही ले गये जो उनकी आत्मिक रक्षा का आधार बना। इससे ग्रियर्सन आदि अंग्रेजों को बहुत चिढ़ हुयी और उन्होंने तुलसीदास को ही भोजपुरी क्षेत्र से सुदूर पश्चिम बान्दा जिले में खिसका दिया। अपने दीर्घ १२६ वर्ष के जीवन में तुलसीदास बान्दा के १०० किमी. निकट भी कभी नहीं गये थे। उनसे सम्पर्क करने वाले रहीम और मीराबाई ने भी ऐसा कोई उल्लेख नही किया है कि वे बान्दा के आसपास भी कभी रहे हों। ग्रियर्सन ने उनको बान्दा जिले का सिद्ध करने के लिये केवल एक ही प्रमाण दिया है कि उनकी रचना अवधी में है। अवधी और भोजपुरी में बहुत कम अन्तर है, केवल २-४ शब्द ही ऐसे हैं जिनका प्रयोग भोजपुरी में ही होता है। तुलसीदास ने रउआ (आप), राउर (आपका) बाटे (वर्तते) आदि का प्रयोग प्रायः किया है जिनका प्रयोग केवल भोजपुरी में ही होता है। बाद के कई संस्करणों में इन विशेष शब्दों को यथासम्भव बदलने की भी चेष्टा हुयी है”जो राउर अनुशासन पावौं, कन्दुक इव ब्रह्माण्ड उठावौं’ को ’जो आपन अनुशासन पावौं ....’ आदि किया गया जहां छन्द को रखा जा सके। पर सभी स्थानों पर यह नहीं हो पाया। तुलसीदास प्रायः पूरे जीवन काशी के असी घाट पर रहे, वहां की लोकभाषा भोजप्री ही है, वरन् काशी ही भोजपुरी भाषा या सरयूपारीण ब्राह्मणों का केन्द्रस्थल है, उसके चारों तरफ अग्निरूप अष्टमूर्त्ति शिव के ८ नगर थे, केन्द्र के काशी को मिलाकर इनको नवपुरिया भी कहा जाता है। तुलसीदास की सभी जीवनियों में इनको सरयूपारीण कहा गया है। यहां तक कि रामचन्द्र शुक्ल ने भी काशी और अपने जिला बलिया (काशी का पड़ोसी) के बाद्ले आरा (शाहाबाद) को ही आदर्श भोजपुरी का क्षेत्र कहा है (उनका हिन्दी साहित्य का इतिहास)। इसका कोई आधार नहीं है, काशी-बलिया-आरा और गोरखपुर देवरिया की भी वही भाषा है केवल १३ कोस पर बानी बदले के अनुसार कुछ शब्दों की शैली बदल गयी है। इसका एकमात्र कारण लगता है कि काशी में ही तुलसीदास रहते थे, कहीं उनकी भाषा भोजपुरी न हो जाये। शिवनन्दन सहाय ने बान्दा जिला में जन्मभूमि होने का एक हास्यास्पद प्रमाण दिया है। बान्दा जिले में जन्मस्थान बनाने का एक ही कारण था कि उनको आरा-आजमगढ़ क्षेत्र से दूर किया जाय और संयोग से वहां भी राजापुर नामक गांव मिल गया। खोजने पर इसनाम के गांव महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, गुजरात में भी मिल सकते हैं पर बान्दा से ग्रियर्सन का काम चल गया। ग्रियर्सन को बान्दा के राजापुर में १८८० में २ बूढ़ी स्त्रियां मिलीं थी जिन्होंने कहा कि तुलसीदासका जन्म इसी गांव में हुआ था। कोई पुरुष नहीं मिला। क्या वे स्त्रियां इतनी बूढ़ी थीं (प्रायः ५०० वर्ष की) कि उनके सामने तुलसीदास का प्रसव हुआ था?
तुलसीदास के परम मित्र रहीम अकबर के दरबारी और कृष्णभक्त कवि थे। उनके पिता बैरम खान ने १३ वर्ष के अकबर को राजा बनवाया था, वह स्वयं भी बन सकता था पर हुमायूं की स्वामीभक्ति के कारण उसने अकबर को ही राजा बनाया। तथापि उसके भविष्य में राजा बनने के डर से बैरम की हत्या करवा कर उसकी पत्नी को अपने हरम में डाल दिया तथा रहीम को भी अपनी नजर के सामने रखा। रहीम के भी दो पुत्रों की हत्या करवा दी जिससे वे सत्ता के दावेदार नहीं हो सके। रहीम ने उसके बाद अकबर से कहा कि उन्हें सत्ता नहीं चाहिये और चित्रकूट में सन्यासी बनकर रहना चाहते हैं-चित्रकूट में रमि रहे रहिमन अवध नरेश। जाके विपदा परत है, सो आवत एहि देश। वहां वे तुलसीदास के साथ कुछ समय रहे। अर्थात् तुलसीदास चित्रकूट में भी रहे थे। १६३१ सम्वत् में चैत्र शुक्ल नवमी को रामचरितमानस पूर्ण होने पर वे अयोध्या गया थे, पुनः काशी लौट आये।
एक व्यक्तिको तुलसीदास ने आर्थिक सहायता के लिये रहीम के पास भेजा था तो उनकी प्रशंसा में एक पंक्ति लिखी थी-सुरतिय नरतिय नागतिय, सब चाहति अस होय (अर्थात् सभी मातायें रहीम जैसा धर्मात्मा पुत्र चाहती हैं)। रहीम ने दूसरी पंक्ति जोड़कर इसे तुलसीदास की प्रशंसा बना दी-गोद लिये हुलसी फिरे, तुलसी से सुत होय। अर्थात् ऐसे पुत्र को गोद लेकर प्रसन्नता से माता फिरती है। यहीं हुलसी का अर्थ है प्रसन्न, पर इस विख्यात पंक्ति के कारण तुलसीदास की माता का नाम हुलसी कर दिया गया है।
इसी प्रकार रामचरितमानस के मंगलाचरण में भगवान् राम की परब्रह्म रूप में स्तुति है, कि उनकी माया के कारण मिथ्या जगत् भी सत्य जैसा दीखता है, जैसे रस्सी भी सांप जैसी दीखती है। (यन्माया वशवर्त्तिविश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा, यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः। यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां, वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्॥६॥) पर तुलसीदास की यह ज्ञान दृष्टि बेकार गयी-इसका अर्थ यह लगाया कि वे पत्नी से मिलने के लिये इतने बेचैन थे कि छत से एक सांप लटक रहा था उसे रस्सी समझ कर उसी को पकड़कर चढ़ गये। सांप को रस्सी समझने का भ्रम हो सकता है, जबतक वह दूर है। पर उसे रस्सी की तरह पकड़कर नहीं चढ़ा जा सकता है। सांप न तो उतना लमा होगा, न उसकी पकड़ दीवाल पर उतनी मजबूत होगी, न वैसी चिकनी चीज को पकड़ा जा सकता है। सबसे पहले तो वह काट लेगा।
✍🏼अरुण उपाध्याय


वाल्मीकि रामायण और तुलसीकृत रामचरितमानस की एक साथ बात करें तो दोनों में कवि श्री राम की कथा ही कह रहे होते हैं। जैसे ही इन्होंने राम की कथा को आम जन तक पहुँचाने का प्रयास किया, वैसे ही इनका खुद का नाम भी अमर हो गया! अब अगर चाहें भी तो रामायण कहते ही वाल्मीकि या रामचरितमानस कहते ही तुलसीदास याद न आएं ये असंभव है। ये एक बार नहीं कई बार हुआ है। अच्छे ढंग से लिखने के बदले, अपनी मर्जी से तोड़ने-मरोड़ने, उसमें कहीं महाभारत तो कहीं दूसरी अनसुनी कहानियां घुसेड़ने वाले आज कल के लेखक भी इसके नाम पर अच्छी खासी प्रसिद्धि (और मुद्रा) बटोर ले जाते हैं।


जहाँ नतीजे ऐसे साफ़, उदाहरणों में दिखें वहां अगर कोई पूछे कि आज के समय में इसे पढ़ने, लिखने या सुन लेने का क्या फायदा? उसे मुस्कुराकर टाल देना चाहिए। आकार की दृष्टी से देखें तो दोनों ग्रंथों में बहुत अंतर है। जहाँ वाल्मीकि की रामायण बहुत वृहत है, तुलसीदास की रामचरितमानस उससे बहुत छोटी होती है। समय काल के हिसाब से दोनों में हजारों साल का अंतर है। तुलसी के काल तक वाल्मीकि के लेखन के आधार पर अनेकों रचनाएँ लिखी जा चुकी थीं। उनकी भाषा भी संस्कृत नहीं इसलिए उनके किये को अर्थ का अनुवाद और फिर उसमें कुछ प्रसंगों का बदलाव माना जा सकता है।


वो वाल्मीकि की रचना पर ही आधारित है, ऐसा मान लिया जाता, तुलसीदास को ये अलग से लिखने की जरूरत नहीं थी। संभवतः तुलसीदास की नैतिकता के मापदंड आजकल के हिन्दी लेखकों जैसे नहीं थे इसलिए वो शुरुआत में ही स्पष्ट लिख देते हैं कि उन्होंने आधार किसे माना है। एक भाषा से दूसरी भाषा में करते समय मूल लेखक का नाम गायब नहीं करते। जिस व्यक्तित्व तो इन दोनों कवियों ने अपनी रचना के केंद्र में रखा, उन्हें देखें तो एक बात स्पष्ट है कि राम पूर्व के काल में मत्स्य न्याय चल जाता था। जिसके पास लाठी है, भैंस भी उसी की होगी वाला जंगल का कानून था।


अगर किसी को आपकी पूजा पद्दतियों, आपके यज्ञ करने पर आपत्ति है तो वो मारीच की तरह उसमें हड्डियाँ फेंककर जा सकता था। अगर किसी को आपके रहने के क्षेत्र अपने क्षेत्र से ज्यादा हरे-भरे, पशु-पक्षियों से भरे, रमणीय लगते हैं तो वो ताड़का की तरह जबरन घुसपैठ करके वहां बस सकता था। अगर किसी को अपनी पत्नी के अलावा दूसरों के घरों की स्त्रियाँ पसंद आ जाएँ तो वो रावण या बाली की तरह उन्हें उठा कर ले जा सकता था। श्री राम धर्म को व्यक्ति से पहले रखते हैं, स्वयं से भी आगे। यही वजह है कि जब “रावन रथी विरथ रघुवीरा” देखकर विभीषण अधीर होने लगते हैं तो तुलसीदास राम के रथ के रूप में धर्म के लक्षणों की पुनःस्थापना कर देते हैं।


तुलसीदास भक्ति काल के कवि हैं तो उनका ग्रन्थ जहाँ भक्ति से सराबोर है, वहीँ वाल्मीकि के रामावतार मर्यादापुरुषोत्तम हैं, उनके गुणों की अपेक्षा आम आदमी से की जा सकती है। दोनों की बात इसलिए क्योंकि न पढ़ने से कई समस्याएँ हैं। उदाहरण के तौर पर वाल्मीकि रामायण या किसी “लक्ष्मण-रेखा” की बात नहीं करता। तो कई बार मर्यादा लांघने के लिए जो लक्ष्मण-रेखा पार करना कहा जाता है, उसका सन्दर्भ रामचरितमानस का लंका कांड (रावण-मंदोदरी संवाद) होगा। कई बार लोग हनुमान चालीसा को रामचरितमानस का ही कोई हिस्सा “मान” लेते हैं। वो भी रामचरितमानस में नहीं आता।


कथा का एक क्रम में होना रामायण कहलाने के लिए आवश्यक है इसलिए कम्ब रामायण होती है लेकिन तुलसीकृत रामायण नहीं कह सकते। उनकी रामकथा का नाम रामचरितमानस ही रहेगा। काण्डों के नाम में जहाँ राम-रावण युद्ध होता है उसे वाल्मीकि युद्ध काण्ड कहते हैं और तुलसीदास लंका कांड। वाल्मीकि के सुन्दरकाण्ड में वीभत्स, रौद्र जैसे रस आयेंगे लेकिन तुलसीदास की भक्ति इसे एक दो बार भी उभरने नहीं देती। यानी सीधे तौर पर कहा जाए तो भावना बेन नाजुक होने पर वाल्मीकि रामायण पढ़ने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। ऐसे में रामचरितमानस ठीक रहेगा।


बाकी चर्चा इसलिए क्योंकि दोनों ग्रन्थ हमारे हैं, इसलिए उनपर बात भी हमें ही करनी होगी। अंडमान के आदिवासियों की तरह आत्मा-चोर गिद्धों को तीर नहीं मारेंगे तो कब नोच भागे इसका कोई ठिकाना नहीं!✍🏼आनन्द कुमार
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