अज्ञानता के नाश हेतु ध्यान योग करना चाहिये

अज्ञानता के नाश हेतु ध्यान योग करना चाहिये

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रिक्रियः।

उपविश्यासने युत्र्ज्याद्योगमात्मविशुद्वये।। 12।।

प्रश्न-यहाँ आसन पर बैठने का कोई खास प्रकार न बतलाकर सामान्य भाव से ही बैठने के लिये कहने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-‘ध्यान योग’ के साधन के लिये बैठने में जिन नियमों की आवश्यकता है, उनका स्पष्टीकरण अगले श्लोक में किया गया है। उनका पालन करते हुए, जो साधक स्वास्तिक, सिद्ध या पù आदि आसनों में जिस आसन से सुखपूर्वक अधिक समय तक स्थिर बैठ सकता हो, उसके लिये वही उपयुक्त है। इसीलिये यहाँ किसी आसन-विशेष का वर्णन न करके समान्य भाव से बैठने के लिये ही कहा गया है।

प्रश्न-‘यतचित्तेन्द्रिय क्रियः’ का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-चित्त शब्द अन्तःकरण का बोधक है। मन और बुद्धि से जो सांसारिक विषयों का चिन्तन और निश्चय किया जाता है, उसका सर्वथा त्याग करके उनसे उपरत हो जाना ही अन्तःकरण की क्रिया को वश में कर लेना है। तथा ‘इन्द्रिय’ श्रोत्र आदि दसों इन्द्रियों का बोधक है। इन सबको सुनने, देखने आदि से रोक लेना ही उनकी क्रियाओं को वश में कर लेना है।

प्रश्न-मन को एकाग्र करना क्या है?

उत्तर-ध्येय वस्तु में मन की वृत्तियों को भली भाँति लगा देना ही उसको एकाग्र करना है। यहाँ प्रकरण के अनुसार परमात्मा ही ध्येय वस्तु हैं। अतएव यहाँ उन्होंने मन लगाने के लिये कहा गया है। इसीलिये चैदहवें श्लोक में ‘मंचितः’ विशेषण देकर भगवान् ने इसी बात को स्पष्ट किया है।

प्रश्न-अन्तःकरण की शुद्धि के लिये ध्यान योग का अभ्यास करना चाहिये, इस कथन का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-इसका अभिप्राय यह है कि ध्यान योग के अभ्यास का उद्देश्य किसी प्रकार की सांसारिक सिद्धि या ऐश्वर्य को प्राप्त करना नहीं होना चाहिये। एकमात्र परमात्मा को प्राप्त करने के उद्देश्य से अन्तःकरण में स्थित राग-द्वेष आदि अवगुणों और पापों का, तथा विक्षेप एवं अज्ञान का नाश करने के लिये ध्यान योग का अभ्यास करना चाहिये।

प्रश्न-योग का अभ्यास करना क्या है?

उत्तर-उपर्युक्त प्रकार से आसन पर बैठकर, अन्तःकरण और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए और मन को परमेश्वर में लगाकर निरन्तर अविच्छिन्न भाव से परमात्मा का ही चिन्तन करते रहना-यही ‘योग’ का अभ्यास करना है।

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।

संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्वानवलोकयन्।। 13।।

प्रश्न-काया, सिर और गले को, ‘सम’ और ‘अचल’ धारण करना क्या है?

उत्तर-यहां जंगा से ऊपर और गले से नीचे के स्थान का नाम ‘काया’ है, गले का नाम ‘ग्रीवा’ है और उससे ऊपर के अंग का नाम ‘शिर’ है। कमर या पेट को आगे-पीछे या दाहिने-बायें किसी ओर भी न झुकना, अर्थात रीढ़ की हड्डी का सीधी रखना, गले को भी किसी ओर न झुकाना और सिर को भी इधर-उधर न घुमाना-इस प्रकार तीनों को एक सूत में सीधा रखते हुए जरा भी न हिलने-डुलने देना, यही इन सबको ‘सम’ और ‘अचल’ धारण करना है।

प्रश्न-काया आदि के अचल धारण करने के लिये कह देने के बाद फिर स्थिर होने के लिये क्यों कहा गया? क्या इसमें कोई नयी बात है?
उत्तर-काया, सिर और गले को सम और अचल रखने पर भी हाथ-पैर आदि दूसरे अंग तो हिल ही सकते हैं। इसीलिये स्थिर होने को कहा गया है। अभिप्राय यह है कि ध्यान के समय हाथ-पैरों को किसी भी आसन के नियमानुसार रक्खा जा सकता है, पर उन्हें ‘स्थिर’ अवश्य रखना चाहिये। किसी भी अंग का हिलना ध्यान के लिये उपयुक्त नहीं है अतः सब अंगों को अचल रखते हुए सब प्रकार से स्थिर रहना चाहिये।

प्रश्न-‘नासिका के अग्र भार पर दृष्टि जमाकर अन्य दिशाओं को न देखता हुआ’ इस कथन का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-दृष्टि को अपने नाक की नोक पर जमाये रखना चाहिये। न तो नेत्रों को बंद करना चाहिये और न इधर-उधर अन्य किसी अंग को या वस्तु को ही देखना चाहिये। नासिका के अग्र भाग को भी मन लगाकर ‘देखना’ विधेय नहीं है। विक्षेप और निद्रा न हो इसलिये केवल दृष्टि मात्र को ही वहाँ लगाना है। मन को परमेश्वर में लगाना है, न कि नाक की नोक पर।

प्रश्न-इस प्रकार आसन लगाकर बैठने के लिये भगवान ने क्यों कहा?

उत्तर-ध्यान योग के साधन में निद्रा, आलस्य, विक्षेप एवं शीतोष्णादि द्वन्द्व विघ्न माने गये हैं। इन दोषों से बचने का यह बहुत ही अच्छा उपाय है। काया, सिर और गले को सीधा तथा नेत्रों को खुला रखने से आलस्य और निद्रा का आक्रमण नहीं हो सकता। नाक की नोक पर दृष्टि लगाकर इधर-उधर अन्य वस्तुओं को न देखने से बाह्य विक्षेपों की सम्भावना नहीं रहती और आसन के दृढ़ हो जाने से शीतोष्णादि द्वन्द्वों से भी बाधा होने का भय नहीं रहता।

इसलिये ध्यान योग का साधन करते समय इस प्रकार आसन लगाकर बैठना बहुत ही उपयोगी है। इसीलिये भगवान् ने ऐसा कहा है।

प्रश्न-इन तीनों श्लोकों में जो आसन की विधि बतलायी गयी है, वह सगुण परमेश्वर के ध्यान के लिये है या निर्गुण ब्रह्म के? 
उत्तर-ध्यान सगुण का हो या निर्गुण ब्रह्म का, वह तो रुचि और अधिकार -भेद की बात है। आसन की यह विधि तो सभी के लिये आवश्यक है।
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