कृष्ण ने अर्जुन को पंडित का बताया अर्थ

कृष्ण ने अर्जुन को पंडित का बताया अर्थ

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक



प्रश्न-कर्म योग का तो परमार्थ ज्ञान के द्वारा परम पद की प्राप्ति रूप फल बतलाना उचित ही है, क्योंकि ‘मैं उनको वह बुद्धि योग देता हूँ, जिससे वे मुझे प्राप्त होते हैं। उन पर दया करने के लिये ही मैं ज्ञानरूप दीपक के द्वारा उनका अन्धकार दूर कर देता हूँ; कर्मयोग से शुद्धान्तःकरण होकर अपने-आप ही उस ज्ञान को प्राप्त कर लेता है, इत्यादि भगवान् के वचनों से यह सिद्ध ही है। परन्तु सांख्य योग तो स्वयं ही तत्त्वज्ञान है। उसका फल तत्त्वज्ञान के द्वारा मोक्ष का प्राप्त होना कैसे माना जा सकता है?

उत्तर-‘सांख्य योग’ परमार्थ तत्त्व ज्ञान का नाम नहीं है, तत्त्वज्ञानियों से सुने हुए उपदेश के अनुसार किये जाने वाले उसके साधन का नाम है। क्योंकि तेरहवें अध्याय के चैबीसवें श्लोक में ध्यान योग, सांख्य योग और कर्मयोग ये तीनों आत्मदर्शन के अलग-अलग स्वतन्त्र साधन बताये गये हैं। इसलिये सांख्य योग का फल परमार्थ ज्ञान के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति बतलाना उचित ही है। भगवान् ने अठारहवें अध्याय में उनचासवें श्लोक से पचपनवें तक ज्ञाननिष्ठा का वर्णन करते हुए ब्रह्मभूत होने के पश्चात अर्थात् ब्रह्म में अभिन्न भाव से स्थित रूप सांख्य योग को प्राप्त होने के बाद उसका फल तत्त्वज्ञान रूप पराभक्ति और उससे परमात्मा के स्वरूप को यथार्थ जानकर उसमें प्रविष्ट हो जाना बतलाया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सांख्य योग के साधन से यथार्थ तत्त्वज्ञान होता है, तब मोक्ष की प्राप्ति होती है।

प्रश्न-‘पण्डित’ शब्द का क्या अर्थ होता है?

उत्तर-परमार्थ-तत्त्वज्ञान रूप बुद्धि का नाम पण्डा है और वह जिसमें हो, उसे ‘पण्डित’ कहते हैं। अतएव यथार्थ तत्त्वज्ञानी सिद्ध महापुरुष का नाम ‘पण्डित’ है।

प्रश्न-एक ही निष्ठा में पूर्णतया स्थित पुरुष दोनों के फल को कैसे प्राप्त कर लेता है?

उत्तर-दोनों निष्ठाओं का फल एक ही है और वह है परमार्थ ज्ञान के द्वारा परमात्मा की प्राप्ति। अतएव यह कहना उचित ही है कि एक में पूर्णतया स्थित पुरुष दोनों के फल को प्राप्त कर लेता यदि कर्मयोग का फल सांख्य येाग होता और सांख्य योग का फल परमात्म-साक्षात्कार रूप मोक्ष की प्राप्ति होती तो दोनों में फल भेद होने के कारण ऐसा कहना नहीं बनता। क्योंकि ऐसा मानने से सांख्य योग में पूर्ण रूप से स्थित पुरुष कर्मयोग के फलरूवरूप सांख्य योग में तो पहले से ही स्थित है, फिर वह कर्मयोग का फल क्या प्राप्त करेगा? और कर्मयोग में भलीभाँति स्थित पुरुष यदि सांख्य योग में स्थित होकर ही परमात्मा को पाता है तो वह सांख्य योग का फल सांख्य योग के द्वारा ही पाता है, फिर यह कहना कैसे सार्थक होगा कि एक ही निष्ठा में भलीभाँति स्थित पुरुष दोनों के फल को प्राप्त कर लेता है। इसलिये यही प्रतीत होता है कि दोनों निष्ठाएँ स्वतन्त्र हैं और दोनों का एक ही फल है।

इस प्रकार मानने से ही भगवान् का यह कथन सार्थक होता है कि दोनों में से किसी एक निष्ठा में भलीभाँति स्थित पुरुष दोनों के फल को प्राप्त कर लेता है। तेरहवें अन्याय के चैबीसवें श्लोक में भी भगवान् ने दोनों को ही आत्म साक्षात्कार के स्वतन्त्र साधन माना है।

प्रश्न-पहले श्लोक में अर्जुन ने कर्म संन्यास और कर्मयोग के नाम से प्रश्न किया और दूसरे श्लोक में भगवान् ने भी उन्हीं शब्दों से दोनों को कल्याण कारक बतलाते हुए उत्तर दिया, फिर उसी प्रकरण में यहाँ ‘साँख्य’ और ‘योग’ के नाम से दोनों के फल की एकता बतलाने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-‘कर्म संन्यास’ का अर्थ ‘कर्मों को स्वरूप से छोड़ देना’ और कर्मयोग का अर्थ ‘जैसे-तैसे कर्म करते रहना’ मानकर लोग भ्रम में न पड़ जायँ इसलिये उन दोनों का शब्दान्तर से वर्णन करके भगवान् यह स्पष्ट कर देते हैं कि कर्म संन्यास का अर्थ है-‘सांख्य’ और कर्मयोग का अर्थ है-सिद्धि और असिद्धि में समत्वरूप ‘योग’। अतएव दूसरे शब्दो ंका प्रयोग करके भगवान् ने यहाँ कोई नयी बात नहीं कही है।

प्रश्न-यहाँ ‘अपि’ से क्या भाव निकलता है?

उत्तर-भलीभाँति किये जाने पर दोनों ही साधन अपना फल देने में सर्वथा स्वतन्त्र और समर्थ हैं, यहाँ ‘अपि’ इसी बात का द्योतक है।

सत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।

एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।। 5।।

प्रश्न-जब सांख्य योग और कर्म योग दोनों सर्वथा स्वतन्त्र मार्ग हैं और दोनों की साधन प्रणाली में भी पर्व पश्चिम जाने वालों के मार्ग की भाँति परस्पर भेद है, (जैसा कि दूसरे श्लोक की व्याख्या में बतलाया गया है) तब दोनों प्रकार के साधकों को एक ही फल कैसे मिल सकता है?

उत्तर-जैसे किसी मनुष्य को भारत वर्ष से अमेरिका को जाना है, तो वह यदि ठीक रास्ते से होकर यहाँ से पूर्व-ही-पूर्व दिशा में जाता रहे तो भी अमेरिका पहुँच जायगा और पश्चिम-ही-पश्चिम की ओर चलता रहे तो भी अमेरिका पहुँच जायगा।

वैसे ही सांख्य योग और कर्मयोग की साधन प्रणाली में परस्पर भेद होने पर भी जो मनुष्य किसी एक साधन में दृढ़तापूर्वक लगा रहता है वह दोनों के ही एकमात्र परम लक्ष्य परमात्मा तक पहुँच ही जाता है।

संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमात्पुमयोगतः।

योगयुक्तो मुनिब्र्रह्म नचिरेणाधिगच्छति।। 6।।

प्रश्न-‘तु’ का यहाँ क्या अभिप्राय है? उत्तर-यहाँ ‘तु’ इस विलक्षणता का द्योतक है कि संन्यास (सांख्य योग) और कर्मयोग का फल एक होने पर भी साधन में कर्मयोग की अपेक्षा सांख्य योग कठिन है।
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