भगवान् ध्यान योग के अधिकारी का वाचक है

भगवान् ध्यान योग के अधिकारी का वाचक है

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-‘समबुद्धिः’ का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-सर्वत्र परमात्मय-बुद्धि हो जाने के कारण उन उपर्युक्त अत्यन्त विलक्षण स्वभाव वाले मित्र, बैरी, साधु और पापी आदि के आचरण, स्वभाव और व्यवहार के भेद का जिस पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता, जिसके बुद्धि में किसी समय, किसी भी परिस्थिति में, किसी भी निमित्त से भेदभाव नहीं आता उसे ‘समबुद्धि’ समझना चाहिये।

योगी युअजीत सतममात्मानं रहसि स्थितः।

एकाकी यतचित्तात्मा निराशीर परिग्रहः।। 10।।

प्रश्न-‘निराशीः’ का क्या भाव है?

उत्तर-इस लोक और परलोक के भोग्य पदार्थों की जो किसी भी अवस्था में, किसी प्रकार भी, किंचित मात्र भी इच्छा या अपेक्षा नहीं करता, वह ‘निराशीः’ है।

प्रश्न-‘अपरिग्रहः’ का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-भोग-सामग्री के संग्रह का नाम परिग्रह है, जो उससे रहित हो उसे ‘अपरिग्रह’ कहते हैं। वह यदि गृहस्थ हो तो किसी भी वस्तु का ममता पूर्वक संग्रह न रक्खे और यदि ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ या संन्यासी हो तो स्वरूप से भी किसी प्रकार का शास्त्र प्रतिकूल संग्रह न करे। ऐसे पुरुष किसी भी आश्रम वाले हों ‘अपरिग्रह’ ही हैं।

प्रश्न-यहाँ ‘योगी’ पद किसका वाचक है?

उत्तर-यहाँ भगवान् ध्यान योग के अधिकारी का वाचक है, न कि सिद्ध योगी का।

प्रश्न-यहाँ ‘एकाकी’ विशेषण किस लिये दिया गया है?

उत्तर-बहुत से मनुष्यों के समूह में तो ध्यान का अभ्यास अत्यन्त कठिन है ही, एक भी दूसरे पुरुष का रहना बातचीत आदि के निमित्त से ध्यान में बाधक हो जाता है। अतएव अकेले रहकर ध्यान का अभ्यास करना चाहिये। इसीलिय ‘एकाकी’ विशेषण दिया गया है।

प्रश्न-एकान्त स्थान में स्थित होने के लिये कहने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-वन? पर्वत गुफा आदि एकान्त देश ही ध्यान के लिये उपयुक्त है। जहाँ बहुत लोगों का आना-जाना हो, वैसे स्थान में ध्यान योग का साधन नहीं बन सकता। इसीलिये ऐसा कहा गया है।

प्रश्न-यहाँ ‘आत्मा’ शब्द किसका वाचक है और उसको परमात्मा में लगाना क्या है?

उत्तर-यहाँ ‘आत्मा’ शब्द मन-बुद्धि रूप अन्तःकरण का वाचक है और मन-बुद्धि को परमात्मा मंे तन्मय कर देना ही उसको परमात्मा में लगाना है।

प्रश्न-‘सततम्’ का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-‘सततम्’ पद ‘युज्जीत’ क्रिया का विशेषण है और निरन्तरता का वाचक है। इसका अभिप्राय यह है कि ध्यान करते समय जरा भी अनतराय न आने देना चाहिये। इस प्रकार निरन्तर परमात्मा का ध्यान करते रहना चाहिये, जिसमें ध्यान का तार टूटने ही न पावे।

शुचै देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिर मासनमात्मनः।

नात्युच्छिन्तं नातिनीचं चैला जिनकुशोत्तरम्।। 11।।

प्रश्न-‘शुचै देशे’ का क्या भाव है?

उत्तर-ध्यान योग का साधन करने के लिये ऐसा स्थान होना चाहिये, जो स्वभाव से ही शुद्ध हो और झाड़-बुहारकर, लीप-पोतकर अथवा धो-पोंछकर स्वच्छ और निर्मल बना लिया गया हो। गंगा, यमुना या अन्य किसी पवित्र नदी का तीर, पर्वत की गुफा, देवालय, तीर्थ स्थान अथवा बगीचे आदि पवित्र वायु मण्डल युक्त स्थानों में से जो सुगमता से प्राप्त हो सकता हो और स्वच्छ, पवित्र तथा एकान्त हो-ध्यान योग के लिये साधक को ऐसा ही कोई एक स्थान चुन लेना चाहिये।

प्रश्न- यहाँ ‘आसनम्’ पद सिका वाचक है और उसके साथ ‘नात्युच्छिन्तम् ‘नातिनीचम्’ और ‘चैलाजिनकुशोत्तरम्’ इस प्रकार तीन विशेषण देने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-काठ या पत्थर के बने हुए पाटे या चैकी को जिस पर मनुष्य स्थिर भाव से बैठ सकता हो-यहाँ आसन कहा गया है। वह आसन यदि बहुत ऊँचा हा तो ध्यान के समय विश्व रूप में आलस्य या निद्रा आ जाने पर उससे गिरकर चोट खाने का डर रहता है और यदि अत्यन्त नीच हो तो जमीन की सरदी-गरमी से एवं चीटी आदि सूक्ष्म जीवों से चित्त होने का डर रहता है। इसलिये ‘नास्युद्विछतम् और ‘नाति नीचम्’ विशेषण देकर यह बात कही गयी है कि वह आसन न बहुत ऊँचा होना चाहिये और न बहुत नीचा ही। काठ या पत्थर का आसन कड़ा रहता है, उस पर बैठने से पैरों में पीड़ा होने की सम्भावना है, इसलिये ‘चैलाजिनकुशोत्तरम्’ विशेषण देकर यह बात समझायी गयी है कि उस पर पहले कुशा, फिर मृगचर्म और उस पर कपड़ा बिछाकर उसे कोमल बना लेना चाहिये। मृगचर्म के नीचे कुशा रहने से वह शीघ्र खराब नहीं होगा और ऊपर कपड़ा रहने से उसके रोम-शरीर में नहीं लगेंगे। इसीलिये तीनों के बिछाने का विधान किया गया है।

प्रश्न-‘आत्मनः’ का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-उपर्युक्त आसन अपना ही होना चाहिये। ध्यान योग का साधन करने के लिये किसी दूसरे के आसन पर नहीं बैठना चाहिये।

प्रश्न-‘स्थिर’ प्रतिष्ठाप्य’ का क्या अभिप्राय है? 
उत्तर-काठ या पत्थर के बने हुए उपर्युक्त आसन को पृथ्वी पर भली भाँति जमाकर टिका देना चाहिये, जिससे वह हिलने-डुलने न पावे; क्योंकि आसन के हिलने-डुलने से या खिसक जाने से साधन में विघ्न उपस्थित होने की संभावना है।
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