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अश्रु

अश्रु

अश्रु कहे गरजकर नारी से ,
क्यों बैठ आँसू बहा रही है ।
रोकर स्वयं हो रही है बेहाल ,
स्वशक्ति स्वयं घटा रही है ।।
तुम तो हो स्वयं में ही देवी ,
अब स्वपरचम लहराना होगा ।
नारी होती नर से कम नहीं ,
नारीशक्ति ही दिखाना होगा ।।
नारी थी वह सती सावित्री ,
मौत को भी जिसने हराई थी ।
नारी थी वह लक्ष्मीबाई भी ,
गोरों के अहं स्वयं मिटाई थी ।।
एक सीता के कारण ही तो ,
रावण का भी नाश हुआ था ।
एक द्रौपदी के कारण ही तो ,
कौरव कुल विनाश हुआ था ।।
नारी है तू कभी कमजोर नहीं ,
तेरे हेतु सारे चाचा भाई नर हैं ।
वे नर होते कभी भी नर नहीं ,
जिनमें निहित दैत्य असर है ।।
नर ही थे भगवान रामचन्द्र भी ,
त्रैलोक्य नारायण कहलाए थे ।
नर ही था वह विद्व रावण भी ,
राम जिसे मौत गोद सुलाए थे ।।
नारी कभी भी निर्बल नहीं है ,
नारी सदा जग सबल रही है ।
नारी दुर्गा करुणा की सागर ,
नारीशक्ति सदा प्रबल रही है ।।
मत बहा नारी निज तू अश्रु ,
तुझे काली चामुण्डा बनना है ।
हर नर पिशाचों पर जमकर ,
देवीशक्ति ले तुझे तो तनना है ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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