शुचिता
जीवन चाहते यदि हैं दीर्घायु ,
मन में निज शुचिता बनाएँ ।
मात पिता व दीनों की सेवा ,
तन मन से हम अपनाएँ ।।
नहीं दें हम कष्ट किसी को ,
नहीं करें किसी का शोषण ।
हुए पीड़ित तेरे ही कारण ,
तुम्हीं होगे इसका दोषण ।।
जो कुछ भी खाओ पियो ,
सब कुछ हो जाता बेकार ।
लगती है दुखिया की हाय ,
मानव होता तब है लाचार ।।
तन मन सदा शुचिता रखो ,
शुचिता पे रखो सदा ध्यान ।
जन जन से आशीष मिले ,
पूर्ण होंगे तेरे ही अरमान ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )
बिहार ।हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें|
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