अरमा जल कर धुआं हुआ
अरमा जल कर धुआं हुआ,
राख लिये मैं बैठी थी.
हवा ने बरपाया कहर, जब,
राख भी मुझ से लूटी थी .
आंसू कब के सुख चुके,
हंसना भी भूल गयी हूँ मैं ,
उम्र की ढलती ढलान पर,
सीं रही जख्मों को सारे,
इधर सींते उधर फट जाते,
हौंसला बुलंद किये बैठी थी.
जिन्दगी की हसरतें बहुत थी,
इन ख्वाबों की बाजार में,
ना दुख बेचे ना सुख खरीदे,
जीवन मोल भाव में बीते,
कब सुलझे उलझन सेजीवन,
इसी चिंतन में मैं बैठी थी .
खुब सताया वक्त ने मुझ को,
जिन्दा ही मुझ को मौत दिया,
सासों को आने जाने से ,
एहसास हुआ मैं जिन्दा हूँ,
आंखें खुली खुद को पाया,
काल चक्र बीच लेटी थी .
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