ज्ञान से होता है संशय का विनाश

ज्ञान से होता है संशय का विनाश

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-‘ज्ञानसंछिन्न संशयम्’ पद में ‘ज्ञान’ शब्द का क्या अर्थ है? गीता में ‘ज्ञान’ शब्द किन-किन श्लोकों में किन-किन अर्थों में व्यवहृत हुआ है।

उत्तर-उपर्युक्त पद में ‘ज्ञान’ शब्द किसी भी वस्तु के स्वरूप का विवेचन करके तद्विषयक संशय का नाश कर देने वाली विवेक शक्ति का वाचक है। ‘ज्ञा अवबोधने’ इस धात्वर्थ के अनुसार ज्ञान का अर्थ ‘जानना’ है। अतः गीता में प्रकरण के अनुसार ‘ज्ञान’ शब्द निम्नलिखित प्रकार से भिन्न-भिन्न अर्थों में व्यवहृत हुआ है।

(क) बारहवें अध्याय के बारहवें श्लोक में ज्ञान की अपेक्षा ध्यान को और उससे भी कर्म फल के त्याग को श्रेष्ठ बतलाया है। इस कारण वहाँ ज्ञान का अर्थ शास्त्र और श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा होने वाला विवेक ज्ञान है।

(ख) तेरहवें अध्याय के सतरहवंे श्लोक में ज्ञेय के वर्णन में विशेषण के रूप में ‘ज्ञान’ शब्द आया है। इस कारण वहाँ ज्ञान का अर्थ परमेश्वर का नित्यविज्ञानानन्दधन स्वरूप ही है।

(ग) अठारहवें अध्याय के बयालीसवें श्लोक में ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्मों की गणना में ‘ज्ञान’ शब्द आया है। उसका अर्थ शास्त्रों का अध्ययनाध्यापन माना गया है।

(घ) इस अध्याय के छतीसवें से उन्तालीसवें श्लोक तक आये हुए सभी ‘ज्ञान’ शब्द का अर्थ परमात्मा का तत्त्वज्ञान है; क्योंकि उसको समस्त कर्मकलाप को भस्म कर डालने वाला, समस्त पापों से तार देने वाला, सबसे बढ़कर पवित्र, योग सिद्धि का फल और परम शान्ति का कारण बतलाया है। इसी तरह पाँचवंे अध्याय के सोलहवें श्लोक में परमात्मा के स्वरूप को साक्षात् कराने वाला और चैदहवें अध्याय के पहले और दूसरे श्लोकांे में समस्त ज्ञानों में उत्तम बतलाया जाने के कारण ‘ज्ञान’ का अर्थ तत्त्वज्ञान है। दूसरी जगह भी प्रसंग से ऐसा ही समझ लेना चाहिये।

(ड) अठारहवें अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में नाना वस्तुओं को और जीवों को भिन्न-भिन्न जानने का द्वार होने से ‘ज्ञान’ शब्द का अर्थ ‘राजस ज्ञान’ है।

(च) तेरहवें अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में तत्त्वज्ञान के साधन समुदाय का नाम ‘ज्ञान’ है।

(छ) तीसरे अध्याय के तीसरे श्लोक में ‘योग’ शब्द के साथ रहने से ‘ज्ञान’ शब्द का अर्थ ज्ञानयोग यानी सांख्य योग है। इसी तरह दूसरी जगह भी प्रसंगानुसार ‘ज्ञान’ शब्द सांख्य योग के अर्थ में आया है और भी बहुत-से स्थलों पर प्रसंगानुसार ‘ज्ञान’ शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थों में हुुआ है, उसे वहाँ देखना चाहिये।

प्रश्न-‘ज्ञान संछिन्नसंशयम्’ पद में ‘ज्ञान’ शब्द का अर्थ यदि ‘तत्त्व ज्ञान’ मान लिया जाय तो क्या हानि है?

उत्तर-तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होने पर समस्त संशयों का समूल नाश होकर तत्काल ही परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है, फिर परमात्मा की प्राप्ति के लिये किसी दूसरे साधन की आवश्यकता नहीं रहती। इसलिये यहाँ ज्ञान का अर्थ तत्त्व ज्ञान मानना ठीक नहीं है; क्योंकि तत्त्वज्ञान कर्म योग का फल है और इसके अगले श्लोक में भगवान् अर्जुन को ज्ञान के द्वारा अज्ञान जनित संशय का नाश करके कर्मयोग में स्थित होने के लिये कहते हैं। इसलिये यहाँ जैसा अर्थ किया गया है, वही ठीक मालूम होता है।

प्रश्न-विवेक ज्ञान द्वारा समस्त संशयों का नाश कर देना क्या है?

उत्तर-ईश्वर है या नहीं है, तो कैसा है, परलोक है या नहीं, यदि है तो कैसे है और कहाँ है, शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि ये सब आत्मा हैं या आत्मा से भिन्न हैं, जड़ हैं या चेतन, व्यापक हैं या एकदेशीय, कर्ता-भोक्ता जीवात्मा है या प्रकृति, आत्मा एक है या अनेक, यदि वह एक है तो कैसे है और अनेक है तो कैसे, जीव स्वत़न्त्र है या परतन्त्र, यदि परतन्त्र है तो कैसे है और किसके परतन्त्र है, कर्म-बन्धन से छूटने के लिये कर्मों को स्वरूप से छोड़ देना ठीक है या कर्मयोग के अनुसार उनका करना ठीक है, अथवा सांख्य योग के अनुसार साधन करना ठीक है-इत्यादि जो अनेक प्रकार की शंकाएँ तर्कशील मनुष्यों के अन्तःकरण में उठा करती हैं, उन्हीं का नाम संशय है।

इन समस्त शंकाओ का विवेक ज्ञान के द्वारा विवेचन करके एक निश्चय कर लेना अर्थात् किसी भी विषय में संशय युक्त न रहना और अपने कर्तव्य को निर्धारित कर लेना, यही विवेक ज्ञान द्वारा समस्त संशयों का नाश कर देना है।

प्रश्न-‘आत्मवन्तम्’ पद का यहाँ क्या भाव है?

उत्तर-आत्मशब्द वाच्य इन्द्रियों के सहित अन्तःकरण पर जिसका पूर्ण अधिकार है, अर्थात् जिनके मन और इन्द्रिय वश में किये हुए हैं-अपने काबू में हैं, उस मनुष्य के लिये यहाँ ‘आत्मवन्तम्’ पद का प्रयोेग किया गया है।

प्रश्न-उपर्युक्त विशेषणों से युक्त पुरुष को कर्म नहीं बाँधते, इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया है कि उपर्युक्त पुरुष के शास्त्र विहित कर्म ममता, आसक्ति और कामना से सर्वथा रहित होते हैं; इस कारण उन कर्मों में बन्धन करने की शक्ति नहीं रहती।

तस्मादज्ञानसंभूतं हत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।

छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्त्ष्ठि भारत।। 42।।

प्रश्न-‘तस्मात् ’ पद का यहाँ भाव है?

उत्तर-हेतु वाचक ‘तस्मात्’ पद का प्रयोग करके भगवान् ने अर्जुन को कर्मयोग में स्थित होने के लिये उत्साहित किया है। अभिप्राय यह है कि पूर्व श्लोक में वर्णित कर्मयोग में स्थित मनुष्य कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता है, इसलिये तुम्हें वैसा ही बनना चाहिए।

‘प्रश्न-भारत’ सम्बोधन का क्या भाव है? उत्तर-‘भारत’ सम्बोधन से सम्बोधित करके भगवान् राजर्षि भरत का चरित्र याद दिलाते हुए यह भाव दिखलाते हैं कि राजर्षि भरत बड़े भारी कर्मठ, साधन परायण, उत्साही पुरुष थे। तुम भी उन्हीं के कुल में उत्पन्न हुए हो; अतः तुम्हें भी उन्हीं की भाँति वीरता, धीरता और गम्भीरता पूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करने में तत्पर रहना चाहिये।
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