सभी नहीं होते ज्ञान के उपदेश के पात्र

सभी नहीं होते ज्ञान के उपदेश के पात्र

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-यहाँ ‘अखिलम्’ और ‘सर्वम्’ विशेषण के सहित ‘कर्म’ पद किसका वाचक है और ‘यावन्मात्र सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं’ इस कथन का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-उपर्युक्त प्रकरण में जितने प्रकार के साधन रूप कर्म बतलाये गये हैं तथा इनके सिवा और भी जितने शुभ कर्म रूप यह वेद-शास्त्रों में वर्णित हैं। उनका सबका वाचक यहाँ ‘अखिलम्’ और ‘सर्वम्’ विशेषणों के सहित ‘कर्म’ पद है। अतः यावन्मात्र सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं, इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि इन समस्त साधनों का बड़े-से-बड़ा फल परमात्मा का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करा देना है। जिसको यथार्थ ज्ञान द्वारा परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है, उसे कुछ भी प्राप्त होना शेष नहीं रहता।

प्रश्न-इस श्लोक में आये हुए ‘ज्ञान यज्ञ’ और ‘ज्ञान’ इन दोनों शब्दों का एक ही अर्थ है या अलग-अलग?

उत्तर-दोनों का एक अर्थ नहीं है; ‘ज्ञानयज्ञ’ शब्द तो यथार्थ ज्ञान प्राप्ति के लिये किये जाने वाले विवेक, विचार और संयम-प्रधान साधनों का वाचक है और ‘ज्ञान’ शब्द समस्त साधनों के फलरूप परमात्मा के यथार्थ ज्ञान (तत्त्वधान) का वाचक है। इस प्रकार दोनों के अर्थ में भेद है।

तद्विद्धि प्रतिपातेन परिप्रश्रेन्न सेवया।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।। 34।।

प्रश्न-यहाँ ‘तत’ पद किसका वाचक है?

उत्तर-समस्त साधनों के फलरूप जिस तत्त्वज्ञान की पूर्व श्लोक में प्रशंसा की गयी है और जो परमात्मा के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान है, उसका वाचक यहाँ ‘तत्’ पद है।

प्रश्न-उस ज्ञान को जानने के लिये कहने का क्या भाव है?

उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि परमात्मा के यथार्थ तत्त्व को बिना जाने मनुष्य जन्ममरणरूप कर्म बन्धन से नहीं छूट सकता, अतः उसे अवश्य ज्ञान लेना चाहिये।

प्रश्न-यहाँ तत्त्वदर्शी ज्ञानियों से ज्ञान को जानने के लिये कहने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-भगवान् के द्वारा बार-बार परमात्मत्त्व की बात कही जाने पर भी उसे न समझने से अर्जुन में श्रद्धा

की कुछ कमी सिद्ध होती है। अतएव उनकी श्रद्धा बढ़ाने के लिये अन्य ज्ञानियों से ज्ञान सीखने के लिये कहकर उन्हें चेतावनी दी गयी है।

प्रश्न-‘प्रणिपात’ किसको कहते हैं?

उत्तर-श्रद्धा-भक्तिपूर्वक महापुरुषों के पास निवास करना, उनकी आज्ञा का पालन करना? उनके मानसिक भावों को समझकर हरेक प्रकार से उनको सुख पहुँचाने की चेष्टा करना-ये सभी सेवा के अन्तर्गत हैं।

प्रश्न-‘परिप्रश्न’ किसको कहते हैं?

उत्तर-परमात्मा के तत्त्व को जानने की इच्छा से श्रद्धा और भक्तिभाव से किसी बात को पूछना ‘परिप्रश्न’ है। अर्थात् मैं कौन हूँ? माया क्या है? परमात्मा का स्वरूप है? मेरा और परमात्मा का क्या सम्बन्ध है? बन्धन क्या है? मुक्ति क्या है? और किस प्रकार साधन करने से परमात्मा की प्राप्ति होती है?-इत्यादि अध्यात्म विषयक समस्त बातों को श्रद्धा, भक्ति और सलतापूर्वक पूछना ही ‘परिप्रश्न’ है; तर्क और वितण्डा से प्रश्न करना ‘परिप्रश्न; नहीं है।

प्रश्न-प्रणाम करने से, सेवा करने से और सरलतापूर्वक प्रश्न करने से, तत्त्वज्ञानी तुझे ज्ञान का उपदेश करेंगे-इस कथन का क्या अभिप्राय है? क्या ज्ञानीजन इन सबके बिना ज्ञान का उपदेश नहीं करते?

उत्तर-उपर्युक्त कथन से भगवान् ने ज्ञान की प्राप्ति में श्रद्धा, भक्ति और सरल भाव की आवश्यकता का प्रतिपादन किया है। अभिप्राय यह है कि श्रद्धा-भक्ति रहित मनुष्य को दिया हुआ उपदेश उसके द्वारा ही ग्रहण नहीं होता; इसी कारण महापुरुषों को प्रणाम, सेवा और आदर-सत्कार की कोई आवश्यकता न होने पर भी, अभिमान पूर्वक, उदण्डता से, परीक्षा बुद्धि से या कपट भाव से प्रश्न करने वाले सामने तत्त्वज्ञान सम्बन्धी बातें कहने में उनकी प्रवृत्ति नहीं हुआ करती। अतएव जिसे तत्त्व ज्ञान प्राप्त करना हो, उसे चाहिये कि श्रद्धा-भक्तिपूर्वक महापुरुषों के पास जाकर उनके आत्म समर्पण करे, उनकी भलीभाँति सेवा करे और अवकाश देखकर उनसे परमात्मा के तत्त्व की बातें पूछे। ऐसा करने से जैसे बछड़े को देखकर वात्सल्य भाव से गौ के स्तनों और बच्चे के लिये मां के स्तनों में दूध का स्रोत बहने लग जाता है, वैसे ही ज्ञानी पुरुषों के अन्तःकरण में उस अधिकारी को उपदेश करने के लिये ज्ञान का समुद्र उमड़ जाता है। इसलिये श्रुति में भी कहा है-

‘तद्विज्ञानार्थ स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रेात्रियं ब्रह्मनिष्ठम्।’

अर्थात् उस तत्त्वज्ञान को जानने के लिये वह (जिज्ञासु साधक) समिधा-यथाशक्ति भेंट हाथ में लिये हुए निरभिमान होकर वेद-शास्त्रों के ज्ञाता तत्त्वज्ञानी महात्मा पुरुष के पास जावे।

प्रश्न-यहाँ ‘ज्ञानिनः’ के साथ ‘तत्त्वद्र्शिनः’ विशेषण देने का और उसमें बहुवचन के प्रयोग का क्या भाव है?

उत्तर-‘ज्ञानिनः’ के साथ ‘तत्त्वदर्शिनः’ विशेषण देकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि परमात्मा के तत्त्व को भली-भाँति जानने वले वेदवेत्ता ज्ञानी महापुरुष ही उस तत्त्व ज्ञान का उपदेश दे सकते हैं, केवल शास्त्र के ज्ञाता या साधारण मनुष्य नहीं। तथा यहाँ बहुवचन का प्रयोग ज्ञानी महापुरुष को आदर देने के लिये किया गया है, यह कहने के लिये नहीं कि तुम्हें बहुत-से तत्त्वज्ञानी मिलकर ज्ञान का उपदेश करेंगे।
हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews https://www.facebook.com/divyarashmimag

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ