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“मांस हमारा आहार नहीं, बल्कि एक साजिश के तहत थोपा गया विचार”

“मांस हमारा आहार नहीं, बल्कि एक साजिश के तहत थोपा गया विचार”

✍️ संतोष कुमार ओझा
 विचारों की लड़ाई में भोजन भी एक हथियार
मानव सभ्यता के इतिहास में भोजन का स्थान केवल जीविका का साधन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक मूल्यों का प्रतीक रहा है। भारत जैसे देश में भोजन को 'अन्न देवता' का स्थान प्राप्त है। हमारे यहाँ कहा जाता है – “जैसा अन्न, वैसा मन”, अर्थात भोजन केवल शरीर का नहीं, मन का भी निर्माण करता है।

ऐसे सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चेतना वाले देश में जहाँ सह-अस्तित्व, करुणा, और आत्मसंयम जैसे गुणों को उच्चतम जीवन मूल्य माना गया, वहाँ मांसाहार का बढ़ता प्रचलन केवल एक जीवनशैली परिवर्तन नहीं, बल्कि एक वैचारिक और सांस्कृतिक हमले का परिणाम है।

यह लेख इसी विचार को स्थापित करता है कि मांसाहार कोई प्राकृतिक चयन नहीं है, बल्कि औपनिवेशिक सत्ता, पश्चिमी प्रभाव, वैश्विक बाजार और आधुनिकता के नाम पर फैलाई गई एक सुनियोजित साजिश है। आइए इसे ऐतिहासिक, वैदिक, सामाजिक, वैज्ञानिक, पर्यावरणीय और नैतिक दृष्टिकोण से समझें।

1. भारतीय संस्कृति में भोजन का स्वरूप: शुद्धता, साधना और संवेदना

(क) वेद और उपनिषदों की दृष्टि में अन्न और अहिंसा

वेदों में ‘अन्न’ को ब्रह्म कहा गया है – “अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात्।”
श्वेताश्वतर उपनिषद, ईशावास्य, छांदोग्य जैसे ग्रंथों में स्पष्टतः बताया गया है कि जो व्यक्ति योग और ध्यान के पथ पर अग्रसर होना चाहता है, उसके लिए शुद्ध और सात्विक आहार अनिवार्य है।


“यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।” — (गीता 3.9)
अर्थात बिना यज्ञ भावना के किया गया भोजन कर्मबंधन का कारण है।

(ख) आयुर्वेदिक दृष्टिकोण: औषधि, आहार नहीं


चरक संहिता और सुश्रुत संहिता जैसे प्राचीन ग्रंथों में मांस का उल्लेख केवल औषधीय उपयोग में है – वह भी अत्यंत दुर्लभ और विशेष रोग स्थितियों में। नियमित भोजन के रूप में मांस सेवन को शरीर, मन और आत्मा के लिए हानिकारक माना गया है।

(ग) संत परंपरा और तपस्वियों का शाकाहार


तुलसीदास, कबीर, नानक, चैतन्य महाप्रभु, महावीर स्वामी, बुद्ध, दयानंद सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस, गांधी – इन सभी महापुरुषों ने शाकाहार को जीवन का हिस्सा नहीं, बल्कि आध्यात्मिक साधना का मार्ग माना।

2. मांसाहार की साजिश: इतिहास के परदे में छिपा हुआ षड्यंत्र
(क) औपनिवेशिक मानसिकता: भारतीयों को कमजोर दिखाने की कोशिश


ब्रिटिश सत्ता ने भारत के मूल्यों को कमजोर करने के लिए तीन प्रमुख रणनीतियाँ अपनाईं –


भाषा के माध्यम से मानसिक गुलामी,


शिक्षा के माध्यम से सांस्कृतिक कटाव,


आहार के माध्यम से शरीर और चित्त का अधिग्रहण।

भारतीयों को “कमजोर”, “अशक्त” और “गुलाम सोच वाला” सिद्ध करने के लिए अंग्रेजों ने मांसाहार को ताकत और वीरता का प्रतीक बनाकर प्रचारित किया।

स्कूलों, सैन्य संस्थानों और जेलों में जबरन मांस परोसा गया, ताकि भारतीयों को उनके शाकाहारी जीवन से तोड़ा जा सके। यह एक तरह का खाद्य-आधारित 'ब्रेनवॉश' था।

(ख) वैश्विक पोषण विज्ञान का मिथ्या प्रचार


एक लम्बे समय तक यह मिथक फैलाया गया कि मांस में “पूर्ण प्रोटीन” होता है, जबकि


दालों में भरपूर प्रोटीन


दूध और दूध उत्पादों में आवश्यक अमीनो एसिड


अंकुरित अनाज, मेवे, बीज आदि में विटामिन, खनिज और ओमेगा फैटी एसिड की भरपूर मात्रा होती है।

आज वही पश्चिमी विज्ञान कहता है कि रेड मीट और प्रोसेस्ड मीट से कैंसर, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप और डायबिटीज का खतरा कई गुना बढ़ जाता है। WHO ने मांस को कैंसरजन्य पदार्थ की सूची में डाल दिया है।
(ग) वैश्विक कॉर्पोरेट षड्यंत्र

McDonald's, KFC, Burger King, Domino's जैसे ब्रांड्स न केवल खाद्य उत्पाद बेचते हैं, बल्कि एक जीवनशैली, एक संस्कार और एक मानसिकता भी स्थापित करते हैं।


"Eat fast, live fast, die fast" — यही इनका उपभोक्तावादी दर्शन है।

इन कंपनियों ने विकासशील देशों में शाकाहार को पिछड़ापन और मांसाहार को आधुनिकता का प्रतीक बनाकर प्रस्तुत किया।

3. मीडिया, फिल्म और विज्ञापन का प्रोपेगेंडा
(क) मांसाहार = मर्दानगी?

“मर्द को दर्द नहीं होता” की तरह अब प्रचार होता है – “असल मर्द वही जो नॉनवेज खाए।”
बॉलीवुड के एक बड़े हिस्से ने मांस खाने को 'सेक्सी', 'बोल्ड', 'स्वतंत्रता का प्रतीक' बताकर प्रचारित किया।

टीवी शो, रियलिटी शो और रेसिपी चैनल्स ने शाकाहार को उबाऊ और मांसाहार को 'लार टपकाने वाला' बनाकर दिखाया। इससे युवा वर्ग का माइंडसेट तेजी से बदला गया।

(ख) विज्ञापन में सेंसर की अनुपस्थिति


मांसाहारी उत्पादों के विज्ञापन अक्सर बच्चों और किशोरों को लक्षित करते हैं, जिसमें वे क्रूरता, स्वाद और भोग की भावना को 'सामान्य' और 'मनोरंजक' बनाकर दिखाते हैं।

4. मांसाहार के बहुस्तरीय दुष्परिणाम
(क) स्वास्थ्य पर असर

हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, मोटापा, पाचन संबंधी रोग


पशुओं में डाले जाने वाले हार्मोन और एंटीबायोटिक मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं।


बच्चों में समय से पहले यौन परिपक्वता


रोग प्रतिरोधक क्षमता में गिरावट

(ख) मानसिक और भावनात्मक विकृति



मांस में मृत्यु की ऊर्जा होती है, जो व्यक्ति को क्रोधित, अशांत और भोगवादी बना देती है।


ध्यान, योग, और भक्ति की ऊर्जा मांसाहार से बाधित होती है।


कामुक प्रवृत्ति, मानसिक असंतुलन, क्रूरता और आत्मघात प्रवृत्ति का संबंध भी मांसाहार से जुड़ा है।

(ग) पर्यावरणीय संकट



एक किलो मांस के लिए औसतन 15,000 लीटर पानी की आवश्यकता होती है।


पशुपालन से निकलने वाली मीथेन गैस, कार्बन डाइऑक्साइड से कहीं अधिक घातक है – जिससे ग्लोबल वार्मिंग बढ़ती है।


वनों की अंधाधुंध कटाई, जीव-जंतुओं की प्रजातियाँ विलुप्त होना


खाद्य सुरक्षा पर संकट
(घ) नैतिकता और करुणा की हत्या


हर वर्ष लगभग 70 अरब से अधिक जानवरों को मार दिया जाता है – यह आंकड़ा सभ्यता के चेहरे पर एक तमाचा है।


बच्चों को क्रूरता आधारित भोजन पर पाला जा रहा है, जिससे करुणा, संवेदना और दया जैसी मानवीय संवेदनाएँ लुप्त होती जा रही हैं।

5. समाधान: पुनः भारतीय मूल्यों की ओर लौटना
(क) शाकाहार को योग, ध्यान और अध्यात्म से जोड़ना


शाकाहार केवल भोजन नहीं, एक साधना है।


“शुद्ध अन्न से शुद्ध मन और शुद्ध मन से आत्मा का उत्थान” – यह भारतीय दर्शन है।


योग और आयुर्वेद आधारित खानपान को फिर से जीवनशैली में लाना।

(ख) शिक्षा प्रणाली में नैतिकता और संवेदना की शिक्षा


गौसेवा, ध्यान, यज्ञ, और आयुर्वेदिक भोजन को स्कूलों में पुनः स्थान मिले।


बच्चों को बताना होगा कि जानवरों को मारना वीरता नहीं, कायरता है।


करुणा आधारित शिक्षा से ही संवेदनशील नागरिक बन सकते हैं।

(ग) स्थानीय कृषि और देसी अन्न को समर्थन



बहुराष्ट्रीय मांस कंपनियों का बहिष्कार कर


देशी बीज, देशी अनाज, देशी गाय – इनका संरक्षण करें।


ग्राम आधारित शाकाहारी जीवनशैली को बढ़ावा दें।

(घ) सोशल मीडिया और युवाओं के मंच पर जागरूकता अभियान


‘वीगन’, ‘शुद्ध शाकाहारी’, ‘करुणा आधारित भोजन’ जैसे विचारों को ट्रेंड बनाएं।


मीम, शॉर्ट वीडियो, पॉडकास्ट और ब्लॉग के माध्यम से विचार क्रांति लाई जा सकती है।

6. उपसंहार : जीवन के प्रति करुणा, मन के प्रति शुद्धता और संस्कृति के प्रति गर्व

आज भारत जिस चौराहे पर खड़ा है, वहाँ हमें यह तय करना है कि हम भोगवाद, हिंसा और आत्मविस्मृति की राह चुनेंगे या करुणा, संयम और सह-अस्तित्व की भारतीय परंपरा की ओर लौटेंगे।

मांसाहार कोई स्वाभाविक विकल्प नहीं, बल्कि एक रणनीतिक, आर्थिक और वैचारिक षड्यंत्र है – जिसे हमारे संस्कार, हमारी संस्कृति, और हमारी चेतना के विरुद्ध खड़ा किया गया है।

अब समय है कि भारत अपने प्राचीन गौरव को पहचाने और शाकाहार, योग, ध्यान, गौसंवर्धन और सह-अस्तित्व की भावना के साथ विश्व को वैकल्पिक मार्ग प्रदान करे – एक ऐसा मार्ग जो केवल “खाओ-पियो-मर जाओ” नहीं कहता, बल्कि जीवन, मन और आत्मा – तीनों को प्रकाशित करता है।

📜 अंततः – “शुद्ध शाकाहार, स्वस्थ समाज, समृद्ध भारत।”
भारत को फिर से विश्वगुरु बनाना है तो सबसे पहले उसकी थाली से हिंसा हटानी होगी। 🕉️

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