कोल्हू का बैल
दिन-रात जी तोड़ मेहनत करता रहा,
परिश्रम की भट्टी में हर पल तपता रहा,
तुम्हारा भविष्य सुनहरा बनाने के लिए
सोने से कुंदन में परिवर्तित होता रहा।
जैसा तुम बोली मैं वैसा ही करता रहा ,
अपनी दिल-ओ-जां तुम पे लुटाता रहा,
कभी तुम्हारी कभी अपने बच्चों की
सबकी ख्वाहिशें मैं पूरी करता रहा।
जिम्मेदारी के नाम पर मैं छलता रहा ,
कोल्हू के बैल की तरह मैं चलता रहा,
एक बार भी मैने पलट कर नहीं देखा ,
जब चला गया सब तो हाथ मलता रहा।सुमित मानधना 'गौरव'
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