एडल्टरी कानून के साइड इफेक्ट्स

एडल्टरी कानून के साइड इफेक्ट्स

(राज सक्सेना-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)

यूं तो मैं पोस्ट ग्रेजुएट हूँ, मगर अंग्रेजी में ‘हिंदी भाषी प्रदेश’ का होने के कारण मेरा हाथ जरा तंग है। इसलिए जब ववक्त खुदाई फौजदार माननीय सर्वोच्च न्यायालय के सुप्रीम कमांडर के आदेश पर बनी बेंच ने ‘एडल्टरी वाजिब’ का परमादेश सुनाया और हल्की फुलकी चिल्लपों मची, तो मैं समझा कि एडल्टरेशन यानि मिलावट पर कोई आदेश आया है। खैर बात आई गयी हो गयी। मगर कुछ महीनों बाद जब मैंने उन सूनी खूँटियों (पर्सनालिटियों) पर अत्याधुनिक चटक रंगों के कपड़े टंगे देखे तो ‘माथा सटक’ गया। वाल्कनियों की रस्सियों पर भी जब हल्के रंगों के कपड़ों के स्थान पर ‘चटक रंगों के इनर वियर’ सूखने लगे तब तो मैं पगला ही गया। मैंने गम्भीरता पूर्वक ‘सतर्क वाचिंग’ शुरू की तो पाया कि खुद मेरे घर में गृह स्वामिनी के कपड़ों का रंग ‘चटक’ हो गया है। वे जो कभी खिड़की पर खड़ा होना ‘आउट आफ एडिकेट’ मानती थीं, अब अक्सर खिड़की पर खड़ी होकर लोगों को विश करती नजर आने लगी हैं। हर वक्त मुंह फुलाए घूमने वाला मातमी चेहरा अब मुस्कुराता और गुनगुनाता नजर आने लगा है। या खुदा ये क्या हो रहा है! बहुत सोचने पर भी जब मेरी समझ में नहीं आया तो मैंने अपने बचपन के साथी ‘लंगोटिया यार’ को शाम को पार्क में मिलने के लिए फोन खड़का दिया।

शाम साढ़े पांच बजे पार्क की सबसे किनारे की एकांत बेंच, जिससे पूरे पार्क का नजारा भी नजर आता था, पर बैठ कर जब मैंने अपने लंगोटिया यार शरद श्रीवास्तव जिसे लाड़ में मैं ‘शरदभाई’ कहता था, से अपने इस ‘ऑब्जरवेशन’ का जिक्र किया तो शरद भाई बहुत जोर से हंसे और मुझे ‘शरद सम्मान’ के रूप में ‘बौड़म’ की उपाधि प्रदान करते हुए कई मिनट तक हंसते ही रहे और मैं सचमुच स्वयं को बौड़म मान कर उल्लुओं की तरह उन्हें बस ताकता है रह गया।

कई मिनट ‘हास्यासन’ लगाने के बाद उन्होंने मेरा कंधा पकड़ कर मुझे पार्क में चारों ओर देखने का इशारा किया और स्वयं ‘मौन आसन’ में संलिप्त हो गये। मैंने अनमने भाव से जब पार्क पर एक नजर डाली तो मेरे ‘कान खड़े’ हो गये। पूरा पार्क भडकीले अत्याधुनिक महिला परिधानों और टाईट जींस के साथ लाल, काली,पीली शर्ट्स के पुरुष परिधानों से अटा पड़ा था। मैंने हकबका कर जरा और गौर से देखा तो पडौस वाली मिसेज कपूर अपने बगल में रहने वाले पाठक जी के हाथ में हाथ डाले टहल रही थीं, मिसेज बाली मिस्टर चावला की कमर में हाथ डाले बेंच पर हंसती बतियाती नजर आयीं। दूसरी ओर नजर डाली तो मिस्टर अवस्थी मिसेज सोनकर के साथ एक झीनी झाडी की आड़ में जाति बंधन किनारे कर एक दूसरे में समा जाने की कोशिश करते दिखे। कुल मिला कर नजारा यह था कि पूरे पार्क में एक भी जोड़ा एक दूसरे से शादीशुदा नहीं था बल्कि सब अपने अपने पडौसी या पड़ोसिन से जोड़ा बनाये खुले आम हंसते खिलखिलाते बेशर्मी के साथ नोचते, कोंचते और गुदगुदाते और ठहाके लगाते घूम रहे थे। गनीमत यह थी कि इन जोड़ों में किसी के साथ जोड़ा बनाये मेरी पत्नी नहीं थी वरना न जाने क्या ‘अनर्थ’ हो जाता।

मैंने हकबका कर शरद भाई की तरफ देखा तो वे अपना ‘मौनासन त्याग’ तत्परता से मेरी ओर मुखातिब हुए और बोले “देख क्या रहे हो, केवल इस पार्क का ही नहीं, पूरे देश का यही हाल है। पूरा देश यूरोप बन गया है। भारतीय संस्कार और संस्कृति सुप्रीमकोर्ट के एक आदेश से हवा हो चुके हैं। अब तो यही होना है कि मेरे बच्चे को तुम अपना और तुम्हारे बच्चे को मैं, जानते समझते भी अपना कह कर पालेंगे और थोडा बड़ा होने पर उन्हें खुद खाने, कमाने के लिए छोड़ देंगे। समाज का पूरा ढांचा बिखरता जा रहा है। समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करें? इतना कह कर उन्होंने अपने माथे पर जोर से हाथ मारा और उठ खड़े हुए। मेरे बैठने के आग्रह को दर किनार कर वे चलते बने। थोड़ी देर तक तो मैं भी ‘हालात के अंजाम’ पर मगजमारी करता रहा फिर उठा और उठ कर सीनियर सिटीजन्स क्लब की ओर बढ़ गया। वहां भी चैन नहीं मिला तो वापस घर आ गया। घर का नजारा देख कर हाथों के तोते उड़ गये। सजी संवरी पत्नी खिड़की

खोले सामने वाले अपने फ्लैट की खिड़की खोले बैठे भटनागर जी से ‘होनोलूलू’ खेल रही थी। गुस्सा तो बहुत आया मगर कर क्या सकता था ‘खुदाई फौजदार’ का हुक्म बजाना था। मुंह और आँखें बंद कर चुपचाप बेडरूम में जाकर ‘पसर’ गया। पत्नी कब आयी पता नहीं। सुबह बगल में सोती मिली।

मेरा रंग जरुर सांवला है मगर खुदा के फजल से इस ढलती उमर में भी चेहरा थोड़ा-थोड़ा ‘सहनीय’ तो है ही। इसलिए‘कालोनी के मीना बाजार’ में अपनी ‘मार्केट वैल्यू’ देखने और कुछ भटनागर जी को उनकी ‘गुस्ताखी की सजा देने’ के दृष्टिकोण से सुबह भटनागर जी की ओर की खिड़की खोल कर वहीं कुर्सी डाल कर बैठ गया। भटनागर जी को इस साल दिसम्बर में रिटायर होना है और मैं जून में रिटायर हो चुका हूँ। मैं तो खाली हूँ मगर भटनागर जी को आफिस जाना था, वे बिचारे साढ़े नौ बजे तक ‘प्रियादर्शन’ के लिए बार बार खिड़की पर चक्कर लगाते रहे मगर उनके भाग्य में आज मेरे जमे होने के कारण बार बार ‘खूसट दर्शन’ का‘योग’ था। इसलिए आफिस की गाडी के लगातार हार्न बजाने पर वे‘बिना दर्शन’ आफिस भाग गये।

अब बारी मेरी और मिसेज भटनागर की थी। वे भी शायद मेरे लाइन क्लियर का इन्तजार कर रही थीं। सुदर्शना तो हैं ही इसलिए मुझे भी कोई एतराज नहीं था। उन्होंने भी खुली खिड़की के चक्कर लगाने शुरू किये तो मैं और जम गया। एक दो चक्कर के बाद उन्होंने हाथ हिला कर विश किया तो मैंने भी हाथ हिलाकर जवाब दे दिया। दो तीन बार ‘विशिंग’ की सीढ़ी चढने के बाद वे भी कुर्सी डाल खिड़की के सामने ही बैठ गयीं और फिर कभी हंसते, कभी मुस्कुराते हुए दोनों ‘चक्षु संवाद’ की भाषा सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। कुल मिलाकर तीसरे दिन के बाद से स्थिति यह है कि सुबह दस बजे तक मैं और भटनागर जी की पत्नी खिड़की से बचते हंै तो शाम साढ़े पांच से दस बजे तक हम यानि मैं और मिसेज भटनागर खिड़की की तरफ झांकते भी नहीं। दस से पांच तक का समय तो अपना है ही, यह बात अलग है कि समय निकाल कर हम दोनों पार्क में अपनी शाम एक दूसरे का हाथ थाम कर गुजार ही लेते हैं। यह हम दोनों का बोनस है। वे दोनों क्या करते हैं भगवान जाने? खुदा ‘खुदाई फौजदार’ को सलामत रखे और वह इसी तरह के फैसले सुनाता रहे जिसने न्याय की देवी की आँख की पट्टी उतार कर लोगों के मुंह पर चिपका दी है।
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