धर्म की आजादी के लिए शहीद हुए गुरु तेग बहादुर
(पं. आर.एस. द्विवेदी-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
इतिहास में धर्म और मानवीय मूल्यों की रक्षा करने वालों का जब भी जिक्र होगा तब गुरु तेग बहादहर का नाम जरूर लिया जाएगा। इस्लाम के कट्टर शासक औरंगजेब ने उनका सिर कटवा दिया लेकिन गुरु तेग बहादुर ने इस्लाम धर्म को स्वीकार नहीं किया। दिल्ली में गुरुद्वारा सीसगंज आज भी उस बलिदान का जीता जागता उदाहरण है। गुरु तेग बहादुर कहते थे धर्म कोई मजहब नहीं बल्कि एक कर्तव्य है, आदर्श जीवन की डगर है। इसे किसी भी परिस्थिति में नहीं छोड़ा जाना चाहिए।
वह एक क्रांतिकारी युग पुरुष थे। उनका जन्म वैसाख कृष्ण पंचमी को पंजाब के अमृतसर में हुआ था। विश्व इतिहास में धर्म एवं मानवीय मूल्यों, आदर्शों एवं सिद्धांत की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वालों में गुरु तेग बहादुर साहब का स्थान अद्वितीय है। गुरु तेग बहादुर सिंह सिखों के नौंवें गुरु थे। तेग बहादुर जी के बचपन का नाम त्यागमल था। उनके पिता का नाम गुरु हरगोबिंद सिंह था। वे बाल्यावस्था से ही संत स्वरूप गहन विचारवान, उदार चित्त, बहादुर व निर्भीक स्वभाव के थे। शिक्षा-दीक्षा मीरी-पीरी के मालिक गुरु-पिता गुरु हरिगोबिंद साहिब की छत्र छाया में हुई। इसी समय इन्होंने गुरुबाणी, धर्मग्रंथों के साथ-साथ शस्त्रों तथा घुड़सवारी आदि की शिक्षा प्राप्त की। हरिकृष्ण राय जी (सिखों के 8वें गुरु) की अकाल मृत्यु हो जाने की वजह से गुरु तेग बहादुर जी को गुरु बनाया गया था। मात्र 14 वर्ष की आयु में अपने पिता के साथ मुगलों के हमले के खिलाफ हुए युद्ध में उन्होंने अपनी वीरता का परिचय दिया। इस वीरता से प्रभावित होकर उनके पिता ने उनका नाम तेग बहादुर यानी तलवार के धनी रख दिया।
गुरु तेग बहादुर सिंह जहां भी गए, उनसे प्रेरित होकर लोगों ने न केवल नशे का त्याग किया, बल्कि तंबाकू की खेती भी छोड़ दी। उन्होंने देश को दुष्टों के चंगुल से छुड़ाने के लिए जनमानस में विरोध की भावना भर, कुर्बानियों के लिए तैयार किया और मुगलों के नापाक इरादों को नाकामयाब करते हुए कुर्बान हो गए। गुरु तेग बहादुर सिंह जी द्वारा रचित बाणी के 15 रागों में 116 शबद (श्लोकों सहित) श्रीगुरु ग्रंथ साहिब में संकलित हैं। सिक्खों के नौंवें गुरु तेग बहादुर सिंह ने अपने युग के शासन वर्ग की नृशंस एवं मानवता विरोधी नीतियों को कुचलने के लिए बलिदान दिया। शस्त्र और शास्त्र, संघर्ष और वैराग्य, लौकिक और अलौकिक, रणनीति और आचार-नीति, राजनीति और कूटनीति, संग्रह और त्याग आदि का ऐसा संयोग मध्ययुगीन साहित्य व इतिहास में बिरला है।
गुरु तेग बहादुर सिंह ने धर्म की रक्षा और धार्मिक स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया और सही अर्थों में हिन्द की चादर कहलाए। गुरु तेग बहादुर जी की याद में उनके दिल्ली के ‘शहीदी स्थल’ पर गुरुद्वारा बना है, जिसका नाम गुरुद्वारा ‘शीश गंज साहिब’ है। गुरु तेग बहादुर सिंह में ईश्वरीय निष्ठा के साथ समता, करुणा, प्रेम, सहानुभूति, त्याग और बलिदान जैसे मानवीय गुण विद्यमान थे।
युद्धस्थल में भीषण रक्तपात से श्री गुरु तेग बहादुर जी के बैरागी मन पर गहरा प्रभाव पड़ा और वह आध्यात्मिक चिंतन की ओर मुड़ गए। उन्होंने 20 वर्ष तक बाबा बकाला साहिब में साधना की। तत्कालीन शासक औरंगजेब के दरबार में एक विद्वान पंडित आकर हर रोज गीता श्लोक पढ़ता और औरंगजेब को उसका अर्थ सुनाता था पर वह पंडित गीता में से कुछ श्लोक छोड़ दिया करता था। एक दिन पंडित बीमार पड़ गया और औरंगजेब को गीता सुनाने के लिए पंडित ने अपने बेटे को भेज दिया परन्तु उसे यह बताना भूल गया कि उसे किन-किन श्लोकों का अर्थ राजा के सामने नहीं करना। पंडित के बेटे ने जाकर औरंगजेब को पूरी गीता का अर्थ सुना दिया। औरंगजेब को किसी दूसरे धर्म की प्रशंसा व सच्ची शिक्षाएं सहन नहीं थीं। औरंगजेब ने कश्मीर के गवर्नर इफ्तिकार खां (जालिम खां) को कहा कि सभी पंडितों को इस्लाम धर्म अपनाने के लिए कहा जाए। गवर्नर ने कश्मीरी पंडितों को इस्लाम धर्म ग्रहण करने के लिए कहा, नहीं तो सभी को मौत के घाट उतारा जाएगा। इसके बाद सभी पंडित श्री गुरु तेग बहादुर के पास गए और सारा वृत्तांत सुनाया। श्री गुरु तेग बहादुर जी ने पंडितों से कहा कि आप जाकर जालिम खां से कह दें कि यदि गुरु तेग बहादुर ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया तो उनके बाद हम भी इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेंगे और यदि आप गुरु तेगबहादुर जी से इस्लाम धारण नहीं करवा पाए तो हम भी इस्लाम धर्म धारण नहीं करेंगे। यह बात औरंगजेब तक पहुंची तो वह क्रोधित हो गया और उसने गुरु तेग बहादुर को बंदी बनाने के आदेश दे दिए।
1665 में गुरु तेग बहादुर व उनके तीन शिष्यों भाई मतिदास, भाई दयाला जी तथा भाई मतिदास को बंदी बनाया गया। जेल में भी काजी ने श्री गुरु तेग बहादुर जी को प्रस्ताव दिया कि आप इस्लाम स्वीकार करके ही अपनी जान बचा सकते हैं, नहीं तो आपका सिर कलम कर दिया जाएगा। ध्यानरत गुरु जी ने सिर हिलाकर इस्लाम स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। जब यह खबर औरंगजेब तक पहुंची तो वह आग बबूला हो गया। श्री गुरु तेग बहादुर जी को डरा कर इस्लाम स्वीकार करवाने के लिए उनके तीनों शिष्यों भाई मतिदास, भाई दयाला जी तथा भाई सती दास को उनकी आंखों के सामने अलग-अलग तरीके से मार दिया गया और कहा कि उनका भी यही हाल होने वाला है लेकिन गुरु तेग बहादुर अपने वचन से टस से मस नहीं हुए।
गुरु तेग बहादुर ने धर्म की रक्षा के लिए कहा कि मैं सिख हूं और सिख ही रहूंगा। इसके बाद 1675 में आततायी शासक औरंगजेब ने दिल्ली के चांदनी चैक में श्री गुरु तेग बहादुर जी का शीश काट दिया। आज उसी स्थान पर गुरुद्वारा सीसगंज है जो हिंदू-सिख भाईचारे का जीता-जागता प्रमाण है। शीश काटने के बाद उनका सिर भाई जैता अपने घर ले आए। तब भाई जैता की पत्नी ने गुरु जी का शीश उनके बेटे गोबिंद राय को सौंपने के लिए कहा। भाई जैता ने श्री कीरतपुर साहिब जी पहुंच कर गोबिंद राय को श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी का शीश समर्पित किया। इसके बाद आनंदपुर साहिब में दाह संस्कार किया गया। संसार को ऐसे बलिदानियों से प्रेरणा मिलती है, जिन्होंने जान दे दी परंतु सत्य-अहिंसा का मार्ग नहीं छोड़ा। नवम पातशाही श्री गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान के बाद उनके सुपुत्र श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी दशम पातशाही के गुरु साहिब बने, जो एक महान योद्धा, कवि तथा दार्शनिक थे। गुरु तेग बहादुर जी ने कहा था कि धर्म एक मजहब नहीं, धर्म एक कत्र्तव्य है। आदर्श जीवन का रास्ता है। आज हमारे लिए गुरु जी की शिक्षाएं, उनका त्याग व बलिदान एक धरोहर है, जिसे बचाना व सहेज कर रखना ही गुरु जी के प्रति सच्ची श्रद्धा होगी। आज जरूरत है कि युवा पीढ़ी युग-पुरुष श्री गुरु तेग बहादुर जी के जीवन चरित्र व बलिदान से प्रेरणा लेकर मानवीय एवं नैतिक मूल्यों के साथ जीवन में संस्कारों को ग्रहण कर आगे बढ़े।
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