स्वास्थ्य संतुलन का पर्व है जेउष्ठान

स्वास्थ्य संतुलन का पर्व है जेउष्ठान

सत्येन्द्र कुमार पाठक
वैदिक एवं पुरणों तथा स्मृतियों में कार्तिक शुक्ल एकादशी का उल्लेख किया गया है । कार्तिक शुक्ल एकादशी को देवोत्थान एकादशी , देवउठान एकादशी, प्रबोधिनी एकादशी , तुलसी एकादशी और तुलसी विवाह एकादशी कहा जाता है । भगवान विष्णु क्षीरसागर में चतुर्मास योगनिंद्रा में रहने के पश्चात जागे थे। तुलसी और शालिग्राम के विवाह का आयोजन करते हैं । आषाढ़, शुक्ल पक्ष की एकादशी की तिथि को भगवान विष्णु का शयन को देवशयन और कार्तिक, शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन भगवान विष्णु योगनिंद्रा से जागने को देवोत्थान एकादशी हैं। भगवान विष्णु के शयन काल के चार मासों में विवाहादि मांगलिक कार्यों का आयोजन करना निषेध है। देवोत्थान एकादशी को यह चातुर्मास पूरा होता है और पौराणिक आख्यान के अनुसार इस दिन देवता भी जाग उठते हैं। माना जाता है कि देवशयनी एकादशी के दिन सभी देवता और उनके अधिपति विष्णु सो जाते हैं। फिर चार माह बाद देवोत्थान एकादशी को जागते हैं। देवताओं का शयन काल मानकर ही इन चार महीनों में कोई विवाह, नया निर्माण या कारोबार आदि बड़ा शुभ कार्य आरंभ नहीं होता। इस प्रतीक को चुनौती देते या उपहास उड़ाते हुए युक्ति और तर्क पर निर्भर रहने वाले लोग कह उठते हैं कि देवता भी कभी सोते हैं क्या श्रद्धालु जनों के मन में भी यह सवाल उठता होगा कि देवता क्या सचमुच सोते हैं और उन्हें जगाने के लिए उत्सव आयोजन करने होते हैं पर वे एकादशी के दिन सुबह तड़के ही विष्णु औए उनके सहयोगी देवताओं का पूजन करने के बाद शंख- घंटा घड़ियाल बजाने लगते हैं। पारंपरिक आरती और कीर्तन के साथ वे गाने लगते हैं- उठो देवा, बैठो देवा, अंगुरिया चटकाओं देवा।‘ देवताओं को जगाने, उन्हें अंगुरिया चटखाने और अंगड़ाई ले कर जाग उठने का आह्रान करने के उपचार में भी संदेश छुपा है। स्वामी नित्यानंद सरस्वती के अनुसार चार महीने तक देवताओं के सोने और इनके जागने पर कार्तिक, शुक्ल पक्ष की एकादशी पर उनके जागने का प्रतीकात्मक है। प्रतीक वर्षा के दिनों में सूर्य की स्थिति और ऋतु प्रभाव बताने, उस प्रभाव से अपना सामंजस्य बिठाने का संदेश देते हैं। वैदिक वांग्मय के अनुसार सूर्य सबसे बड़े देवता हैं। उन्हें जगत् की आत्मा भी कहा गया है। हरि, विष्णु, इंद्र आदि नाम सूर्य के पर्याय हैं। वर्षा काल में अधिकांश समय सूर्य देवता बादलों में छिपे रहते हैं। इसलिए ऋषि ने गाया है कि वर्षा के चार महीनों में हरि सो जाते हैं। फिर जब वर्षा काल समाप्त हो जाता है तो वे जाग उठते हैं या अपने भीतर उन्हें जगाना होता है। बात सिर्फ़ सूर्य या विष्णु के सो जाने और उस अवधि में आहार विहार के मामले में ख़ास सावधानी रखने तक ही सीमित नहीं है। इस अनुशासन का उद्देश्य वर्षा के दिनों में होने वाले प्रकृति परिवर्तनों उनके कारण प्राय: फैलने वाली मौसमी बीमारियों और शरीर की प्रतिरोधक क्षमता पर पड़ने वाले उसके प्रभाव के कारण अक्सर गड़बड़ाता रहता है। निजी जीवन में स्वास्थ्य संतुलन का ध्यान रखने के साथ ही यह चार माह की अवधि साधु संतों के लिए भी विशेष दायित्वों का तकाजा लेकर आती है। घूम-घूम कर धर्म अध्यात्म की शिक्षा देने लोक कल्याण की गतिविधियों को चलाते रहने वाले साधु संत इन दिनों एक ही जगह पर रुक कर साधना और शिक्षण करते हैं। तुलसी का पौधा जिस जगह वे ठहरते उस जगह माहौल में आध्यात्मिक, प्रेरणाओं की तंरगे व्याप्त रहती थीं। इस दायित्व का स्मरण कराने के लिए चातुर्मास शुरू होते ही कुछ ख़ास संदर्भ भी प्रकट होते लगते हैं। आषाढ़, पूर्णिमा को वेदव्यास की पूजा गुरु के प्रति श्रद्धा समर्पण, श्रावणी नवरात्र जैसे कई उत्सव आयोजनों की श्रृंखला शुरू हो जाती है जिनका उद्देश्य आध्यात्मिक उत्कर्ष की प्रेरणा देना ही होता था। भगवान श्रीविष्णु ने भाद्रपद मास की शुक्ल एकादशी को महापराक्रमी शंखासुर नामक राक्षस को लम्बे युद्ध के बाद समाप्त किया था और थकावट दूर करने के लिए क्षीरसागर में जाकर सो गए थे और चार मास पश्चात फिर जब वे उठे तो वह दिन देव उठनी एकादशी कहलाया। इस दिन भगवान श्रीविष्णु का सपत्नीक आह्वान कर विधि विधान से पूजन करना चाहिए। इस दिन उपवास करने का विशेष महत्व है और माना जाता है कि यदि इस एकादशी का व्रत कर लिया तो सभी एकादशियों के व्रत का फल मिल जाता है और व्यक्ति सुख तथा वैभव प्राप्त करता है और उसके पाप नष्ट हो जाते हैं।
पद्मपुराण के अनुसार इस दिन उपवास करने से सहस्त्र एकादशी व्रतों का फल प्राप्त होता है। जप, होम, दान सब अक्षय होता है। यह उपवास हजार अश्वमेध तथा सौ राजसूय यज्ञों का फल देनेवाला, ऐश्वर्य, सम्पत्ति, उत्तम बुद्धि, राज्य तथा सुख प्रदाता है। मेरु पर्वत के समान पापों को नाश करनेवाला, पुत्र-पौत्र प्रदान करनेवाला है। इस दिन गुरु का पूजन करने से भगवान प्रसन्न होते हैं व भगवान विष्णु की कपूर से आरती करने पर अकाल मृत्यु नहीं होती।
कार्तिक शुक्ल एकादशी को देवोत्थनी एकादशी को भगवान श्रीविष्णु ने भाद्रपद मास की शुक्ल एकादशी को महापराक्रमी शंखासुर नामक राक्षस को लम्बे युद्ध के बाद समाप्त किया था और थकावट दूर करने के लिए क्षीरसागर में जाकर सो गए थे और चार मास पश्चात फिर जब वे उठे तो वह दिन देवोत्थनी एकादशी कहलाया। इस दिन भगवान विष्णु का सपत्नीक आह्वान कर विधि विधान से पूजन करना चाहिए। इस दिन उपवास करने का विशेष महत्व है।
एकादशी व्रत करने वाली महिलाएं व पुरुष प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर पूजा स्थल को साफ करें और आंगन में चौक बनाकर भगवान श्रीविष्णु के चरणों को कलात्मक रूप से अंकित करें। दिन में चूंकि धूप होती है इसलिए भगवान के चरणों को ढंक दें। उत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पतये। *त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत्‌ सुप्तं भवेदिदम्‌॥’ उत्थिते चेष्टते सर्वमुत्तिष्ठोत्तिष्ठ माधव। गतामेघा वियच्चैव निर्मलं निर्मलादिशः॥ शारदानि च पुष्पाणि गृहाण मम केशव।’ उत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पतये। हल्दी मिश्रित जल, तथा अष्ट गंध से स्नान कराएं इसके बाद नये वस्त्र अर्पित करें फिर पीले चंदन का तिलक लगाएँ, श्रीफल अर्पित करें, नैवेद्य के रूप में विष्णु जी को ईख, अनार, केला, सिंघाड़ा आदि अर्पित करने चाहिए। फिर कथा का श्रवण करने के बाद आरती करें और बंधु बांधवों के बीच प्रसाद ग्रहण करते हैं ।प्रबोधिनी एकादशी व्रत वाले दिन ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के विविध मंत्र है । पुराणों में उल्लेख है कि स्वर्ग में भगवान श्रीविष्णु के साथ धरती पर तुलसी का है। इसी के चलते भगवान को जो व्यक्ति तुलसी अर्पित करता है उससे वह अति प्रसन्न होते हैं। बद्रीनाथ धाम में यात्रा मौसम के दौरान श्रद्धालुओं द्वारा तुलसी की करीब दस हजार मालाएं रोज चढ़ाई जाती हैं। इस दिन श्रद्धालुओं को चाहिए कि जिस गमले में तुलसी का पौधा लगा है उसे गेरु आदि से सजाकर उसके चारों ओर मंडप बनाकर उसके ऊपर सुहाग की प्रतीक चुनरी को ओढ़ा दें। इसके अलावा गमले को भी साड़ी में लपेट दें और उसका श्रृंगार करें। इसके बाद सिद्धिविनायक श्रीगणेश सहित सभी देवी−देवताओं और श्री शालिग्रामजी का विधिवत पूजन करें। एक नारियल दक्षिणा के साथ टीका के रूप में रखें और भगवान शालिग्राम की मूर्ति का सिंहासन हाथ में लेकर तुलसीजी की सात परिक्रमा करना चाहिए ।द्वापरयुग में द्वारिकाधीश भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा को रूपवती और श्री कृष्ण से अधिक था । सत्यभामा ने देवर्षि नारद से कहा कि आप मुझे आशीर्वाद दीजिए कि अगले जन्म में भी भगवान श्रीकृष्ण पति रूप में प्राप्त हों। नारदजी बोले, ‘नियम यह है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी प्रिय वस्तु इस जन्म में दान करे तो वह उसे अगले जन्म में प्राप्त होगी। श्रीकृष्ण को दान कर दे तभी श्री कृष्ण अगले जन्मों में जरूर मिलेंगे।’ सत्यभामा ने श्रीकृष्ण को नारदजी को दान रूप में दे दिया। जब नारदजी उन्हें ले जाने लगे तो अन्य रानियों ने उन्हें रोक लेने के बाद नारदजी ने कहा कि ‘यदि श्रीकृष्ण के बराबर सोना व रत्न देने पर छोड़ देंगे।’ तब तराजू के एक पलड़े में श्रीकृष्ण बैठे तथा दूसरे पलड़े में सभी रानियां अपने−अपने आभूषण चढ़ाने लगीं, पर पलड़ा टस से मस नहीं हुआ। यह देख सत्यभामा ने कहा, यदि मैंने इन्हें दान किया है उबार लूंगी। यह कह कर उन्होंने अपने सारे आभूषण चढ़ा दिए, पर पलड़ा नहीं हिला। वे बड़ी लज्जित हुईं। समाचार जब रुक्मिणी जी ने सुना टैब तुलसी पूजन करके तुलसी पत्ती को पलड़े पर रखते तुला का वजन बराबर हो गया। नारद तुलसी दल लेकर स्वर्ग को चले गए। तुलसी के वरदान के कारण अपनी व अन्य रानियों के सौभाग्य की रक्षा कर सकीं। तुलसी को यह पूज्य पद प्राप्त हो गया कि श्रीकृष्ण उसे सदा अपने मस्तक पर धारण करते हैं। एकादशी को तुलसीजी पूजन किया जाता है।
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