कत्र्तव्य का पालन न करने वाला अघायु

कत्र्तव्य का पालन न करने वाला अघायु

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-‘वेद को अक्षर से उत्पन्न होने वाला’ कहने का क्या अभिप्राय है, क्योंकि वेद तो अनादि माने जाते हैं?

उत्तर-परब्रह्म परमेश्वर नित्य हैं, इस कारण उनका विधानरूप वेद भी नित्य है-इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। अतः यहाँ वेद को परमेश्वर से उत्पन्न बतलाने का यह अभिप्राय नहीं है कि वेद पहले नहीं था और पीछे से उत्पन्न हुआ है, किन्तु यह अभिप्राय है कि सृष्टि के आदिकाल में परमेश्वर से वेद प्रकट होता है और प्रलयकाल में उन्हीं में विलीन हो जाता है। वेद अपौरूषेय है अर्थात् किसी पुरुष का बनाया हुआ शास्त्र नहीं है। यह भाव दिखलाने के लिये ही यहाँ वेद को अक्षर से यानी अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न होने वाला बतलाया गया है। अतएव इस कथन से वेद की अनादिता ही सिद्ध की गयी है। इसी भाव से सतरहवें अध्याय के तेईसवें श्लोक में भी वेद को परमात्मा से उत्पन्न बतलाया गया है।

प्रश्न-‘सर्वगतम्’ विशेषण सहित ‘ब्रह्म’ पद यहाँ किसका वाचक है और हेतु वाचक ‘तस्मात्’ पद का प्रयोग करके उसे यज्ञ में नित्य प्रतिष्ठित बतलाने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-‘सर्वगतम्’ विशेषण के सहित ‘ब्रह्म’ पद यहाँ सर्व व्यापी, सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर का वाचक है और ‘तस्मात्’ पद के प्रयोग पूर्वक उस परमेश्वर को यज्ञ में नित्य प्रतिष्ठित बतलाकर यह भाव दिखलाया गया है कि समस्त यज्ञों की विधि जिस वेद में बतलायी गयी है, वह वेद भगवान् की वाणी है। अतएव उसमें बतलायी हुई विधि से किये जाने वाले यज्ञ में समस्त यज्ञों के अधिष्ठाता सर्वव्यापी परमेश्वर सदा ही स्वयं विराजमान रहते हैं, अर्थात् यज्ञ साक्षात् परमेश्वर की ‘मूर्ति’ है। इसलिये प्रत्येक मनुष्य को भगवत्व प्राप्ति के लिये भगवान् के आज्ञानुसार अपने-अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिये।

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।

अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति।। 16।।

प्रश्न-यहाँ ‘चक्रम्’ पद किसका वाचक है और उसके साथ ‘एवं प्रवर्तितम् विशेषण देने का क्या भाव है तथा उसके अनुकूल बरतना क्या है?

उत्तर-चैदहवें श्लोक के वर्णनानुसार ‘चक्रम्’ पद यहाँ सृष्टि परम्परा का वाचक है; क्यांेकि मनुष्य के द्वारा की जाने वाली शास्त्र विहित क्रियाओं से यज्ञ होता है, यज्ञ से वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्न होता है, अन्न से प्राणी उत्पन्न होते हैं, पुनः उन प्राणियों के ही अन्तर्गत मनुष्य के द्वारा किये हुए कर्मों से यज्ञ और यज्ञ से वृष्टि होती है। इस तरह यह सृष्टि परम्परा सदा से चक्र की भाँति चली आ रही है। यही भाव दिखलाने के लिये ‘चक्रम’ पद के साथ ‘एवं प्रवर्तितम्’ विशेषण दिया गया है। अपने-अपने वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति के अनुसार जिस मनुष्य का जो स्वधर्म है, जिसके पालन करने का उस पर दायित्व है, उसके अनुसार अपने कर्तव्य का सावधानी के साथ पालन करना ही उस चक्र के अनुसार चलना है। अतएव आसक्ति और कामना का त्याग करके केवल इस सृष्टि चक्र की सुव्यवस्था बनाये रखने के लिये ही जो योगी अपने कर्तव्य का अनुष्ठान करता है, जिसमें किंचित मात्र भी अपने स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता, वह उस स्वधर्म रूप यज्ञ में प्रतिष्ठित परमेश्वर को प्राप्त हो जाता है।

प्रश्न-इस सृष्टि चक्र के अनुकूल न बरतने वाले मनुष्य को ‘इन्द्रियाराम’ और ‘अघायु’ कहने का तथा उसके जीवन को व्यर्थ बतलाने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-कर्तव्य का पालन न करना ही उपर्युक्त सृष्टि चक्र के अनुकूल न चलना है। अपने कर्तव्य को भूलकर जो मनुष्य विषयों में आसक्त होकर निरन्तर इन्द्रियों के द्वारा भोगों में ही रमण करता है, जिस किसी प्रकार से भोगों के द्वारा इन्द्रियों को तृप्त करना ही जिसका लक्ष्य बन जाता है; उसे ‘इन्द्रियाराम’ कहा गया है।

इस प्रकार अपने कर्तव्य का त्याग कर देने वाला मनुष्य भोगों की कामना से प्रेरित होकर इच्छाचारी हो जाता है, अपने स्वार्थ में रत रहने के कारण वह दूसरे के हित-अहित की कुछ भी परवा नहीं करता-जिससे दूसरों पर बुरा प्रभाव पड़ता है और सृष्टि की व्यवस्था में विघ्न उपस्थित हो जताा है। ऐसा होने से समस्त प्रजा को दुःख पहुँचता हैं अतएवं अपने कर्तव्य का पालन न करके सृष्टि से दुव्र्यवस्था उत्पन्न करने वाला मनुष्य बड़े ही भारी दोष का भागी होता है तथा वह अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये जीवन भर अन्यायपूर्वक धन और ऐश्वर्य का संग्रह करता रहता है, इसलिये उसे ‘अघायु’ कहा गया है।

वह मनुष्य जीवन के प्रधान लक्ष्य से संसार में अपने कर्तव्य पालन के द्वारा सब जीवों को सुख पहुँचाते हुए परम कल्याण स्वरूप परमेश्वर को प्राप्त कर लेना इस उद्देश्य से सर्वथा वंचित रह जाता है और अपने अमूल्य मनुष्य जीवन को विषय भोगों में रत रहकर व्यर्थ खोता रहता है; इसलिये उसके जीवन को व्यर्थ बतलाया गया है।

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्व मानवः।

आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।। 17।।

प्रश्न-‘तु’ पद का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-पूर्व श्लोकों में जिनके लिये स्वधर्म पालन अवश्य कर्तव्य बतलाया गया है एवं स्वधर्म पालन न करने से जिनको ‘अघायु’; कहकर जिनके जीवन को व्यर्थ बतलाया गया है, उन सभी मनुष्यों से विलक्षण शास्त्र के शासन से ऊपर उठे हुए ज्ञानी महापुरुषों को अलग करके उनकी स्थिति का वर्णन करने के लिये यहाँ ‘तु’ पद का प्रयोग किया गया है।

प्रश्न-‘आत्मरतिः’, ‘आत्मतृप्तः’ और ‘आत्मनि एवं संतुष्टः’-इन तीनों विशेषणों के सहित ‘यः’ पद किस मनुष्य का वाचक है तथा उसे ‘मानवः’ कहने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-उपर्युक्त विशेषणों के सहित ‘यः’ पद यहाँ सच्चिदानन्द धन पूर्ण ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त ज्ञानी महात्मा पुरुष का वाचक है और उसे ‘मानवः’ कहकर यह भाव दिखलाया है कि हरेक मनुष्य ही साधन करके ऐसा बन सकता है, क्योंकि परमात्मा की प्राप्ति में मनुष्य मात्र का अधिकार है।

प्रश्न-‘एव’ अव्यय के सहित ‘आत्मरतिः’ विशेषण का क्या भाव है? उत्तर-इस विशेषण से यह भाव दिखलाया है कि परमात्मा को प्राप्त हुए पुरुष की दृष्टि में यह सम्पूर्ण जगत् स्वप्न से जगे हुए मनुष्य के लिये स्वप्न की सृष्टि की भाँति हो जाता है। अतः उसकी किसी भी सांसारिक वस्तु में किंचित मात्र भी प्रीति नहीं होती और वह किसी भी वस्तु मे रमण नहीं करता, केवल मात्र एक परमात्मा में ही अभिन्न भाव से उसकी अटल स्थिति हो जाती है। इस कारण उसके मन बुद्धि संसार में रमण नहीं करते। उनके द्वारा केवल परमात्मा के स्वरूप का ही निश्चय और चिन्तन स्वाभाविक रूप से होता रहता है। यही उसका आत्मा में रमण करना है।
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