अर्जुन को बतायी योगी की विलक्षणता

अर्जुन को बतायी योगी की विलक्षणता

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।

कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।। 7।।

प्रश्न-यहाँ ‘तु’ पद का क्या भाव है?

उत्तर-ऊपर से कर्मों का त्याग करने वाले की अपेक्षा स्वरूप से कर्म करते रहकर इन्द्रियों को वश में रखने वाले योगी की विलक्षणता बतलाने के लिये यहाँ ‘तु’ पद का प्रयोग किया गया है।

प्रश्न-यहाँ ‘इन्द्रियाणि’ और ‘कर्मेन्द्रियैः’-इन दोनों पदों से कौन सी इन्द्रियों का ग्रहण है?

उत्तर-यहाँ दोनों ही पद समस्त इन्द्रियों के वाचक हैं। क्योंकि न तो केवल पाँच इन्द्रियों को वश में करने से इन्द्रियों से कर्मयोग का अनुष्ठान नहीं हो सकता है; क्योंकि देखना, सुनना आदि के बिना कर्मयोग का अनुष्ठान संभव नहीं। इसलिये उपर्युक्त दोनों पदों से सभी इन्द्रियों का ग्रहण है। इस अध्याय के इकतालीसवें श्लोक में भगवान् ने ‘इन्द्रियाणि’ पद के साथ ‘नियम्य’ पद का प्रयोग करके सभी इन्द्रियों को वश में करने की बात कही है।

प्रश्न-यहाँ ‘नियम्य’ पद का अर्थ वश में करना न करना लेकर ‘रोकना’ लिया जाय तो क्या आपत्ति है?

उत्तर-‘रोकना’ अर्थ यहाँ नहीं बन सकता; क्योंकि इन्द्रियों को रोक, लेने पर कर्म योग का आचरण नहीं किया जा सकता।

प्रश्न-समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करना क्या है?

उत्तर-समस्त विहित कर्मों में तथा उनके फल रूप इस लोक और परलोक के समस्त भोगों में राग-द्वेष का त्याग करके एवं सिद्धि-असिद्धि में सम होकर, वश में की हुई इन्द्रियों के द्वारा शब्दादि विषयों का ग्रहण करते हुए जो यज्ञ, दान, तप, अध्ययन, अध्यापन, प्रजा पालन, लेन-देन रूप व्यापार और सेवा एवं खाना-पीना, सोना-जागना, चलना-फिरना, उठना-बैठना आदि समस्त इन्द्रियों के कर्म शास्त्रविधि के अनुसार करते रहना है, यही समस्त इन्द्रियों से कर्मयोग का आचरण करना है। दूसरे अध्याय के चैंसठवें श्लोक में इसी का फल प्रसाद की प्राप्ति और समस्त दुःखों का नाश बतलाया गया है।

प्रश्न-‘स विशिष्यते’ का क्या भाव है? क्या यहाँ कर्म योगी को पूर्व श्लोक में वर्णित मिथ्याचारी की अपेक्षा श्रेष्ठ बतलाया गया है?

उत्तर-‘स विशिष्यते’ से यहाँ कर्मयोगी को समस्त साधारण मनुष्यों से श्रेष्ठ बतलाकर उसकी प्रशंसा की गयी है। यहाँ इसका अभिप्राय कर्मयोगी को पूर्व वर्णित केवल मिथ्याचारी की अपेक्षा ही श्रेष्ठ बतलाना नहीं है, क्योंकि पूर्व श्लोक में वर्णित मिथ्याचारी तो आसुरी सम्पदा वाला दम्भी है। उसकी अपेक्षा तो सकामभाव से विहित कर्म करने वाला मनुष्य भी बहुत श्रेष्ठ है; फिर दैवी सम्पदायुक्त कर्मयोगी को मिथ्याचारी की अपेक्षा श्रेष्ठ बतलाना तो किसी वेश्या की अपेक्षा सती स्त्री को श्रेष्ठ बतलाने की भाँति कर्मयोगी की स्तुति में निन्दा करने के समान है। अतः यहाँ यही मानना ठीक है कि ‘स विशिष्यते’ से कर्मयोगी को सर्वश्रेष्ठ बतलाकर उसकी प्रशंसा की गयी है।

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।

शरीररयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेकर्मणः।। 8।।

प्रश्न-‘नियतम्’ विशेषण के सहित ‘कर्म’ पद किस कर्म का वाचक है और उसे करने के लिए आज्ञा देने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति की अपेक्षा से जिस मनुष्य के लिये जो कर्म शास्त्र में कर्तव्य बतलाये गये हैं, उन सभी शास्त्र विहित स्वधर्म रूप कर्तव्य कर्मों का वाचक यहाँ ‘नियतम्’ विशेषण के सहित ‘कर्म’ पद है; उसे करने के लिये आज्ञा देकर भगवान् ने अर्जुन के उस भ्रम को दूर किया है, जिसके कारण उन्होंने भगवान् के वचनों को मिले हुए समझकर अपना निश्चित कर्तव्य बतलाने के लिये कहा था।

अभिप्राय यह है कि तुम्हारी जिज्ञासा के अनुसार मैं तुम्हें तुम्हारा निश्चित कर्तव्य बतला रहा हूँ। उपर्युक्त कारणों से किसी प्रकार तुम्हारे लिये कर्मों का स्वरूप से त्याग करना हितकर नहीं है, अतः तुम्हें शास्त्र विहित कर्तव्य कर्म रूप स्वधर्म का अवश्यमेव पालन करना चाहिए। युद्ध करना तुम्हारा स्वधर्म है; इसलिये वह देखने में हिंसात्मक और क्रूरता पूर्ण होने पर भी वास्तव में तुम्हारे लिये घोर कर्म नहीं है, बल्कि निष्काम भाव से किये जाने पर वह कल्याण का ही हेतु है। इसलिये तुम संशय छोड़कर युद्ध करने के लिये खड़े हो जाओ।

प्रश्न-कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है, इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इस कथन से भगवान् ने अर्जुन के उस भ्रम का निराकरण किया है, जिसके कारण उन्होंने यह समझ लिया था कि भगवान के मत में कर्म करने की अपेक्षा उनका न करना श्रेष्ठ है। अभिप्राय यह है कि कर्तव्य कर्म करने से मनुष्य का अन्तःकरण शुद्ध होता है और उसके पापों का प्रायश्चित होता है तथा कर्तव्य कर्मों का त्याग करने से वह पाप का भागी होता है एवं निद्रा, आलस्य और प्रमाद में फँसकर अधोगति को प्राप्त होता है। अतः कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना सर्वथा श्रेष्ठ है। सकामभाव से या प्रायश्चित रूप से भी कर्तव्य कर्मांे का करना न करने की अपेक्षा बहुत श्रेष्ठ है; फिर उनका निष्कामभाव से करना श्रेष्ठ है, इसमें तो कहना ही क्या है?

प्रश्न-कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा, इस कथन का क्या भाव है?

उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि सर्वथा कर्मों का स्वरूप से त्याग करके तो मनुष्य जीवित भी नहीं रह सकता, शरीर निर्वाह के लिये उसे कुछ-न-कुछ करना ही पड़ता है; ऐसी स्थिति में विहित कर्म का त्याग करने से मनुष्य का पतन होना स्वाभाविक है। इसलिये कर्म न करने की अपेक्षा सब प्रकार से कर्म करना ही उत्तम है।

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।

तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर।। 9।।

प्रश्न-यज्ञ के निमित्त किये जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्य समुदाय कर्मों द्वारा बंधता है, इस वाक्य का क्या भाव है? उत्तर-इस वाक्य से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जो कर्म मनुष्य के कर्तव्य रूप यज्ञ की परम्परा सुरक्षित रखने के लिए ही अनासक्त भाव से किये जाते हैं, किसी फल की कामना से नहीं किये जाते, वे शास्त्र विहित कर्म बन्धन कारक नहीं होते; बल्कि उन कर्मों से मनुष्य का अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है और परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। किन्तु ऐसे लोकोपकारक कर्मों के अतिरिक्त जितने भी पुण्य-पापरूप कर्म हैं, वे सब पुनर्जन्म के हेतु होने से बाँधने वाले हैं। मनुष्य स्वार्थ बुद्धि से जो कुछ भी शुभ या अशुभ कर्म करता है, उसका फल भोगने के लिये उसे कर्मानुसार नाना योनियों में जन्म लेना पड़ता है; और बार-बार जन्मना-मरना ही बन्धन है, इसलिये सकाम कर्मों में या पाप कर्मों में लगा हुआ मनुष्य उन कर्मों द्वारा बँखता है। अतएव मनुष्य को कर्मबन्धन से मुक्त होने के लिये निष्काम भाव से केवल कर्तव्य पालन की बुद्धि से ही शास्त्र विहित कर्म करना चाहिये।
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