जानो पाओगें
नदी किनारे बैठकर
देख रहा पानी को।
उछल कूंद करते हुए
बहता जा रहा वो।
देख दृश्य यह मानव
समझ नहीं पा रहा।
फिर भी अपने मनको
क्यों विचला रहा।।
आया जो भी यहाँ
जाना उसे पड़ेगा।
विधाता के चक्रव्यहू से
उसे गुजरना पड़ेगा।
भेद सके इसे तो
खुशियाँ बहुत पाओगें।
और उलझ गये इसमें
तो बहुत दुख पाओगें।।
खुदको जिंदा रखने
कुछ तो तुम करोगें।
फिर अपनी करनी का
खुद फल पाओगें।
और मानव मूल्यों को
तुम समझ पाओगें।
और अपने जन्म को
स्वयं जान पाओगें।।
जय जिनेंद्र
संजय जैन "बीना" मुंबईहमारे खबरों को शेयर करना न भूलें|
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