विभा का भान

विभा का भान

मार्कण्डेय शारदेय
शरद का चाँद आया है, नया अरमान लेकर।
फिजा भी मुस्कराई है, मधुर मुस्कान लेकर।।
गगन के नील आँगन में पिघलकर बर्फ तिरती,
हवा मीठी टहलती है, बहक जलयान लेकर।
कुमुदनी प्यार से पति को निहारे प्यार पाने को,
मनाया बदन को सहला, नवल परिधान लेकर।
रही दिख साफ-सुथरी हर जगह, बरसात है भागी,
उमर की क्यारियाँ बैठीं सुघड़ पहचान लेकर।
रही कर तर-ब-तर तन को सुहानी चाँदनी सबके,क्वार की रात आई है विभा का भान लेकर।
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