चोल शासकों ने बनवाए भव्य मंदिर

चोल शासकों ने बनवाए भव्य मंदिर

(अशोक त्रिपाठी-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
वस्तुतः राजराज के समय से चोल राज्य का इतिहास समस्त तमिल देश का इतिहास बन जाता है । वह एक साम्राज्यवादी शासक था जिसने अपनी अनेकानेक विजयों के फलस्वरूप लघुकाय चोल राज्य को एक विशालकाय साम्राज्य में परिणत कर दिया।
करिकाल एक वीर योद्धा था जिसने समकालीन चेर एवं पाण्ड्य राजाओं को दबाकर रखा । उसके बाद चोलों की राजनीतिक शक्ति क्षीण हो गयी तथा नवीं शताब्दी ईस्वी के मध्य तक उनका इतिहास अन्धकारपूर्ण हो गया। यह संभवतः तमिल देश पर पहले कलभ्रों तथा फिर पल्लवों के आक्रमणों के कारण हुआ । नवीं शती के मध्य में (850 ई॰ के लगभग) चोलसत्ता का पुनरुत्थान हुआ। इस समय विजयालय नामक एक शक्तिशाली चोल राजा को पल्लवों के सामन्त के रूप में उरैयूर (त्रिचनापल्ली) के समीपवर्ती क्षेत्र में शासन करता हुआ पाते है। उरैयूर ही चोलों का प्राचीन निवास-स्थान था। इस समय पल्लवों तथा पाण्ड्यों में निरन्तर संघर्ष चल रहे थे। पाण्ड्यों की निर्बल स्थिति का लाभ उठाकर विजयालय ने तंजोर पर अधिकार जमा लिया तथा वहाँ उसने दुर्गा देवी का एक मन्दिर बनवाया। विजयालय ने लगभग 871 ईस्वी तक राज्य किया।
आदित्य प्रथम विजयालय का पुत्र तथा उत्तराधिकारी था। प्रारम्भ में वह पल्लव नरेश अपराजित का सामन्त था तथा उसने श्रीपुरंबियम् के युद्ध में अपने स्वामी को पाण्ड्यो के विरुद्ध सहायता प्रदान की थी। इस युद्ध में पाण्ड्यों की शक्ति नष्ट हो गयी परन्तु अपराजित अपनी विजयी का उपभोग नहीं कर सका। आदित्य प्रथम ने उसकी हत्या कर दी तथा तोण्डमण्डलम् को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। इसके वाद उसने पाण्ड्यों से कोंगू प्रदेश छीन लिया तथा पश्चिमी गडगों को अपनी अधीनता में रहने के लिए बाध्य किया। उसने अपने पुत्र परान्तक का विवाह चेर वंश की राजकुमारी के साथ किया। आदित्य ने कावेरी नदी के दोनों किनारों पर शैव मन्दिर बनवाये थे।

परान्तक प्रथम यह आदित्य प्रथम का पुत्र था और उसकी मृत्यु के बाद शासक बना। उसने अपने पिता की साम्राज्यवादी नीति को जारी रखा। उसने मदुरा के पाण्ड्य शासक राजसिंह द्वितीय पर आक्रमण किया। पाण्ड्य नरेश ने सिंहल के राजा की सहायता प्राप्त की परन्तु परान्तक ने दोनों की सम्मिलित सेनाओं को बेघर के युद्ध में हरा दिया।
मदुरा पर परान्तक का अधिकार हो गया तथा उसने ‘मदुरैकोण्ड’ की उपाधि ग्रहण की। उसने पल्लवों की बची-खुची शक्ति को समाप्त किया, और बैदुम्बों तथा बाँणों को जीता । इस प्रकार 930 ई॰ तक परान्तक ने पश्चिमी घाट के चेर-राज्य को छोड़कर उत्तरी पेन्नार से कुमारी अन्तरीप तक के सम्पूर्ण प्रदेश पर अपना एकछत्र अधिकार स्थापित कर लिया लेकिन परान्तक को अपने शासन-काल के अन्त में राष्ट्रकूटों से पराजित होना पड़ा।
राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय ने गड्गराज्य को जीतने के बाद चोल राज्य पर आक्रमण किया। तक्कोलम् के युद्ध में उसने चोल सेना को बुरी तरह परास्त कर तोण्डमण्डलम् पर अधिकार कर लिया। इससे परान्तक की प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुँचा। उसका साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया क्योंकि उत्तर तथा दक्षिण के सामन्तों ने इस विपत्ति का लाभ उठाते हुए अपनी-अपनी स्वाधीनता घोषित कर दी। परान्तक की मृत्यु के बाद लगभग तीस वर्षों (955-985 ई॰) का काल चोल राज्य के लिए दुर्बलता एवं अव्यवस्था का काल रहा। उसके उत्तराधिकारी मन्दरादित्य की रुचि धार्मिक कार्यों में अधिक थी। उसकी मृत्यु के समय (957 ई॰ के लगभग) चोल राज्य अत्यन्त संकुचित हो गया। इसके बाद परान्तक द्वितीय 957-973 ई॰) राजा बना। उसने अपने पुत्र आदित्य द्वितीय को युवराज बनाया। उसने वीर पाण्ड्य को पराजित किया तथा उसकी सेना ने सिंहल पर भी आक्रमण किया। परान्तक द्वितीय के शासन-काल के अन्त तक चोलों ने राष्ट्रकूटों से तोण्डमण्डलम् को जीतकर अपने अधिकार में कर लिया।
चोल साम्राज्य की महत्ता का वास्तविक संस्थापक परान्तक द्वितीय (सुन्दर चोल) का पुत्र अरिमोलिवर्मन् था जो 985 ई॰ के मध्य ‘राजराज’ के नाम से गद्दी पर बैठा। उसका तीस वर्षीय शासन (985-1015 ई॰) चोल राज्य का सर्वाधिक गौरवशाली युग है।
वस्तुतः राजराज के समय से चोल राज्य का इतिहास समस्त तमिल देश का इतिहास बन जाता है । वह एक साम्राज्यवादी शासक था जिसने अपनी अनेकानेक विजयों के फलस्वरूप लघुकाय चोल राज्य को एक विशालकाय साम्राज्य में परिणत कर दिया।
चोलो के अभिलेखों आदि से ज्ञात होता है कि उनका शासन सुसंगठित था। राज्य का सबसे बड़ा अधिकारी राजा मंत्रियों एवं राज्याधिकारियों की सलाह से शासन करता था। शासनसुविधा की दृष्टि से सारा राज्य अनेक मंडलों में विभक्त था। मंडल कोट्टम् या बलनाडुओं में बँटे होते थे। इनके बाद की शासकीय परंपरा में नाडु (जिला), कुर्रम् (ग्रामसमूह) एवं ग्रामम् थे। चोल राज्यकाल में इनका शासन जनसभाओं द्वारा होता था। चोल ग्रामसभाएँ ‘उर’ या सभा कही जाती थीं। इनके सदस्य सभी ग्रामनिवासी होते थे। सभा की कार्यकारिणी परिषद् (आडुगणम्) का चुनाव ये लोग अपने में से करते थे। उत्तरमेरूर से प्राप्त अभिलेख से उस ग्रामसभा के कार्यों आदि का विस्तृत ज्ञान प्राप्त होता है। उत्तरमेरूर ग्रामशासन सभा की पाँच उपसमितियों द्वारा होता था। इनके सदस्य अवैतनिक थे एवं उनका कार्यकाल केवल वर्ष भर का होता था। ये अपने शासन के लिए स्वतंत्र थीं एवं सम्राटादि भी उनकी कार्यवाही में हस्तक्षेप नहीं कर सकते थे। चोल शासक प्रसिद्ध भवननिर्माता थे। सिंचाई की व्यवस्था, राजमार्गों के निर्माण आदि के अतिरिक्त उन्होंने नगरों एवं विशाल मंदिर तंजौर में बनवाया। यह प्राचीन भारतीय मंदिरों में सबसे अधिक ऊँचा एवं बड़ा है। तंजौर के मंदिर की दीवारों पर अंकित चित्र उल्लेखनीय एवं बड़े महत्वपूर्ण हैं। राजेंद्र प्रथम ने अपने द्वारा निर्मित नगर गंगैकोंडपुरम् (त्रिचनापल्ली) में इस प्रकार के एक अन्य विशाल मंदिर का निर्माण कराया। चोलों के राज्यकाल में मूर्तिकला का भी प्रभूत विकास हुआ। इस काल की पाषाण एवं धातुमूर्तियाँ अत्यंत सजीव एवं कलात्मक हैं। चोल शासन के अंतर्गत साहित्य की भी बड़ी उन्नति हुई। इनके शाक्तिशाली विजेताओं की विजयों आदि को लक्ष्य कर अनेकानेक प्रशस्ति पूर्ण ग्रंथ लिखे गए। इस प्रकार के ग्रंथों में जयंगोंडार का ‘कलिगंत्तुपर्णि’ अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त तिरुत्तक्कदेव लिखित ‘जीवक चिंतामणि’ तमिल महाकाव्यों में अन्यतम माना जाता है। इस काल के सबसे बड़े कवि कंबन थे। इन्होंने तमिल ‘रामायण’ की रचना कुलोत्तुंग तृतीय के शासनकाल में की। इसके अतिरिक्त व्याकरण, कोष, काव्यशास्त्र तथा छंद आदि विषयों पर बहुत से महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना भी इस समय हुई। चोल नरेशों ने सिंचाई की सुविधा के लिए कुएँ और तालाब खुदवाए और नदियों के प्रवाह को रोककर पत्थर के बाँध से घिरे जलाशय (डैम) बनवाए। करिकाल चोल ने कावेरी नदी पर बाँध बनवाया था।
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