इन्द्रियों को राग-द्वेष से मुक्त करें

इन्द्रियों को राग-द्वेष से मुक्त करें

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-उनसठवें श्लोक में यह कहा जा चुका है कि परमात्मा का साक्षात्कार हुए बिना राग का नाश नहीं होता और यहाँ राग-द्वेष रहित होकर विषयों में विचरण करने से प्रसाद को प्राप्त होकर स्थिर बुद्धि होने की बात कही गयी है। यहाँ के इस कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि परमात्मा की प्राप्ति से पूर्व भी राग-द्वेष का नाश संभव है। अतएव इन दोनों कथनों में जो विरोध प्रतीत होता है, उसका समन्वय कैसे होता है?

उत्तर-दोनों में कोई विरोध नहीं है, क्योंकि वहाँ उनसठवें श्लोक में तो राग-द्वेष का अत्यन्त अभाव बताया गया है और यहाँ राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषय सेवन की बात कहकर राग-द्वेष से सर्वथा अभाव की साधना बतायी गयी हैं तीसरे अध्याय के चालीसवें श्लोक में इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इन तीनों को ही काम का अधिष्ठान बताया है। इससे यह सिद्ध होता है कि इन्द्रियों में राग-द्वेष न रहने पर भी मन का बुद्धि में सूक्ष्म रूप से राग-द्वेष रह सकते हैं। परन्तु उनसठवें श्लोक में ‘अम्य’ पद का प्रयोग करके स्थिर बुद्धि पुरुष में राग-द्वेष का सर्वथा अभाव बताया गया है। वहाँ केवल इन्द्रियों में ही राग-द्वेष के अभाव की बात नहीं है।

प्रश्न-इन्द्रियों से विषयों का संयोग न होने देना यानी बाहर से विषयों का त्याग, इन्द्रियों का संयम और इन्द्रियों का राग-द्वेष से रहित हो जाना-इन तीनों में श्रेष्ठ और भगवत् प्राप्ति में विश्ेाष सहायक कौन है?

उत्तर-दोनों ही भगवान् की प्राप्ति में सहायक हैं, किन्तु इनमें वाह्य विषय-त्याग की अपेक्षा इन्द्रिय संयम और इन्द्रिय संयम की अपेक्षा इन्द्रियों का राग-द्वेष से रहित होना विशेष उपयोगी और श्रेष्ठ है।

यद्यपि बाह्य विषयों का त्याग भी भगवान् की प्राप्ति में सहायक है, परन्तु जब तक इन्द्रियों का संयम और राग-द्वेष का त्याग न हो तब तक केवल बाह्य विषयों के त्याग से विषयों की पूर्णतया निवृत्ति नहीं हो सकती और न कोई सिद्धि ही प्राप्त होती है तथा ऐसी बात भी नहीं है कि बाह्य विषय का त्याग किये बिना इन्द्रिय संयम हो ही नहीं सकता क्योंकि भगवान की पूजा सेवा, जप और विवेक-वैराग्य आदि दूसरे उपायों से सहज ही इन्द्रिय संयम हो जाता है एवं इन्द्रिय सयंम हो जाने पर अनायास ही विषयों का त्याग किया जा सकता है। इन्द्रियाँ जिसके वश में हैं? वह चाहे जब, चाहे जिस विषय का त्याग कर सकता है। इसलिये बाह्य विषय त्याग की अपेक्षा इन्द्रिय-संयम श्रेष्ठ है।

इस प्रकार इन्द्रिय संयम भी भगवत्प्राप्ति में सहायक है; परन्तु इन्द्रियों के राग-द्वेष का त्याग हुए बिना केवल इन्द्रिय संयम से विषयों की पूर्णतया निवृत्ति होकर वास्तव में परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती और ऐसी बात भी नहीं है कि बाह्य विषय-त्याग तथा इन्द्रिय संयम हुए बिना इन्द्रियों के राग-द्वेष त्याग हो ही न सकता हो। सत्संग, स्वाध्याय और विचार द्वारा सांसारिक भोगों की अनित्यता का भान होने से तथा ईश्वर कृपा और भजन-

ध्यान आदि से राग-द्वेष का नाश हो सकता है और जिसके इन्द्रियों के रोग-द्वेष का नाश हो गया है उसके लिये बाह्य विषयों का त्याग और इन्द्रिय संयम अनायास अपने-आप ही होता है। जिसका इन्द्रियों के विषयों में राग-द्वेष नहीं है, वह पुरुष यदि बाह्य रूप से विषयों का त्याग न करे तो विषयों में विचरण करता हुआ ही परमात्मा को प्राप्त कर सकता है; इसलिये इन्द्रियों का राग-द्वेष से रहित होना विषयों के त्याग और इन्द्रिय संयम से भी श्रेष्ठ है।

प्रश्न-‘प्रसादम्’ पद यहाँ किसका वाचक है?

उत्तर-वश में की हुई इन्द्रियों द्वारा बिना राग-द्वेष के व्यवहार करने से साधक का अन्तःकरण शुद्ध और स्वच्छ हो जाता है, इस कारण उसमें आध्यात्मिक सुख और शान्ति का अनुभव होता है। उस सुख और शान्ति का वाचक यहाँ ‘प्रसादम्’ पद है। इस सुख और शान्ति के हेतु रूप अन्तःकरण की पवित्रता को और भगवान् के अर्पण की हुई वस्तु अन्तःकरण को पवित्र करने वाली होती है, इस कारण उसको भी प्रसाद कहते है; परन्तु अगले श्लोक में उपर्युक्त पुरुष के लिये ‘प्रसन्नचेतसः’ पद का प्रयोग किया गया है, अतः यहाँ ‘प्रसादम्’ पद का अर्थ अन्तःकरण की आध्यात्मिक प्रसन्नता मानना ही ठीक मालूम होता है।

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।

प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।। 65।।

प्रश्न-अन्तःकरण की प्रसन्नता से सारे दुःखों का अभाव कैसे हो जाता है?

उत्तर-पापों के कारण ही मनुष्यों को दुःख होता है; और कर्मयोग के साधन से पापों का नाश होकर अन्तःकरण विशुध हो जाता है तथा शुद्ध अन्तःकरण में ही उपर्युक्त सात्विक प्रसन्नता होती है। इसलिये सात्विक प्रसन्नता से सारे दुःखों का अभाव बतलाना न्याय संगत ही है।

प्रश्न-‘सर्वदुः खानाम्’ पद किनका वाचक है और उनका अभाव हो जाना क्या है?

उत्तर-अनुकूल पदार्थों के वियोग और प्रतिकूल पदार्थों के संयोग से जो आध्यात्मिक,आधिदैविक और

आधिभौतिक नाना प्रकार के दुःख सांसारिक मनुष्यों को प्राप्त होते हैं, उन सबका वाचक यहाँ दुःखानाम्’ पद है। उपर्युक्त साधक को आध्यात्मिक सात्विक प्रसन्नता का अनुभव हो जाने के बाद उसे किसी भी वस्तु के संयोग-वियोग से किंचित मात्र भी दुःख नहीं होता। वह सदा आनन्द में मग्न रहता है। यही सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाना है।

प्रश्न-प्रसन्नचित वाले योगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर भलीभाँति परमात्मा में स्थिर हो जाती है इस कथन का क्या भाव है? उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया है कि अन्तःकरण के पवित्र हो जाने पर जब साधक को आध्यात्मिक प्रसन्नता प्राप्त हो जाती है, तब उसका मन क्षण भर भी उस सुख और शान्ति का त्याग नहीं कर सकता। इस कारण उसके अन्तःकरण की वृत्तियाँ सब ओर से हट जाती हैं और उसकी बुद्धि शीघ्र ही परमात्मा के स्वरूप में स्थिर हो जाती है। फिर उसके निश्चय में एक सच्चिदानंद घन परमात्मा से भिन्न कोई वस्तु नहीं रहती।
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