संसार से आसक्ति ही पुनर्जन्म का कारण

संसार से आसक्ति ही पुनर्जन्म का कारण

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
प्रश्न-उन बुद्धियुक्त मनुष्यों का कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्याग कर जन्मरूप बन्धन से मुक्त हो जाना क्या है?
उत्तर-समता रूप योग के प्रभाव से उनका जो जन्म-जन्मान्तर में और इस जन्म में किये हुए समस्त कर्मों के फल से सम्बन्ध-विच्छेद होकर बार-बार जन्मने और मरने के चक्र से सदा के लिये छूट जाना है, यही उनका कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल का त्याग करके जन्म-बन्धन से मुक्त हो जाना है। क्योंकि तीनों गुणेां के कार्यरूप सांसारिक पदार्थों में आसक्ति ही पुनर्जन्म का हेतु है, उसका उनमें सर्वथा अभाव हो जाता है; इस कारण उनका पुनर्जन्म नहीं हो सकता।

प्रश्न-ऐसे पुरुषों का निर्विकार (अनामय) परम पद को प्राप्त हो जाना क्या है?

उत्तर-जहाँ राग-द्वेष आदि क्लेशों का, शुभाशुभ कर्मों का, हर्ष-शोकादि विकारों और समस्त दोषों का सर्वथा अभाव है, जो इस प्रकृति और प्रकृति के कार्य से सर्वथा अतीत है, जो भगवान् से सर्वथा अभिन्न भगवान् का परम धाम है, जहाँ पहुँचे हुए मनुष्य वापस नहीं लौटते, उस परम धाम का वाचक ‘अनामय पद’ है। अतः भगवान् के परमधाम को प्राप्त हो जाना, सच्चिदानन्द निर्गुण-निराकार या सगुण-साकार परमात्मा को प्राप्त हो जाना, परम गति को प्राप्त हो जाना या अमृत्व को प्राप्त हो जाना-यह सब एक ही बात है। वास्तव में कोई भेद नहीं है, साधकों की मान्यता का ही भेद है।

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिव्र्यतितरिष्यति।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।। 52।।

प्रश्न-‘मोहकलिल’ क्या है? और बुद्धि का उसको भलीभाँति पार कर जाना किसे कहते हैं?

उत्तर-स्वजन-बान्धवों के वध की आशंका से स्नेह वश अर्जुन के हृदय में जो मोह उत्पन्न हो गया था, जिसे इसी अध्याय के दूसरे श्लोक में ‘कश्मल’ बतलाया गया है, यहाँ ‘मोहकलिल’ से उसी का लक्ष्य है और इस ‘मोहकलिल’ के कारण अर्जुन ‘धर्म सम्मूढ़चेता;’ होकर अपना कर्तव्य निश्चय करने में असमर्थ हो गये थे। यह ‘मोहकलिल’ एक प्रकार का आवरण युक्त ‘मल’ दोष है, जो बुद्धि को निश्चय भूमि तक न पहुँचने देकर अपने में ही फँसाये रखता है।

सत्संग से उत्पन्न विवेक द्वारा नित्य-अनित्य और कर्तव्य-अकर्तव्य का निश्चय करके ममता, आसक्ति और कामना के त्यागपूर्वक भगवत्परायण होकर निष्काम भाव से कर्म करते रहने से इस आवरण युक्त मल दोष का जो सर्वथा नाश हो जाना है, यही बुद्धि का मोहरूपी कलिल को पार कर जाना है।

प्रश्न-‘श्रुत’ और ‘श्रोतव्य’-इन दोनों शब्दों से किनका लक्ष्य है? और उनसे वैराग्य को प्राप्त होना क्या है?

उत्तर-इस लोक और परलोक के जितने भी भोगैश्वर्यादि आज तक देखने, सुनने और अनुभव में आ चुके हंै उनका नाम ‘श्रुत’ है और भविष्य में जो देखे, सुने और अनुभव किये जा सकते हैं उन्हें ‘श्रोतव्य’ कहते हैं। उन सबको दुःख के हेतु और अनित्य समझ कर उनमें जो आसक्ति का सर्वथा अभाव हो जाना है, यही उनसे वैराग्य को प्राप्त होना है। भगवान् कहते हैं कि मोह के नाश होने पर जब तुम्हारी बुद्धि सम्यक् प्रकार से स्वाभाविक स्थिति में पहुँच जायगी, तब तुम्हें इस लोक और परलोक के समस्त क्षणिक पदार्थों से यथार्थ वैराग्य हो जायगा।

श्रुतिविप्रतिपन्न ते यदा स्थास्यति निश्चला।

समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।। 53।।

प्रश्न-‘श्रुति विप्रतिपन्ना बुद्धि’ का क्या स्वरूप है?

उत्तर-इस लोक और परलोक के भोगैश्वर्य और उनकी प्राप्ति के साधनों के सम्बन्ध में भाँति-भाँति के वचनों को सुनने से बुद्धि में विक्षिप्तता आ जाती है; इसके कारण वह एक निश्चय पर निश्चल रूप से नहीं टिक सकती, अभी एक बात को अच्छी समझती है, तो कुछ ही समय बाद दूसरी बात को अच्छी मानने लगती है। ऐसी विक्षिप्त और अनिश्चत्मिका बुद्धि को यहाँ ‘श्रुतिविप्रतिपन्ना बुद्धि कहा गया है। यह बुद्धि का विक्षेप दोष है।

प्रश्न-उसका परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जाना क्या है?

उत्तर-मोहरूप दल दल से पार हो जाने के कारण इस लोक और परलोक के भोगों से सर्वथा विरक्त हुई बुद्धि का जो विक्षेप दोष से सर्वथा रहित हो जाना और एकमात्र परमात्मा में ही स्थायी रूप से निश्चल टिक जाना है यही, उसका परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जाना है।

प्रश्न-उस समय ‘योग’ का प्राप्त होना क्या है?

उत्तर-यहाँ ‘योग’ शब्द परमात्मा के साथ नित्य और पूर्ण संयोग का वाचक है। क्योंकि यह मल, विक्षेप और आवरण दोष से रहित विवेक-वैराग्य सम्पन्न और परमात्मा में निश्चल रूप से स्थित बुद्धि का फल है तथा इसके बाद ही अर्जुन ने परमात्मा को प्राप्त स्थित प्रज्ञ पुरुषों के लक्षण पूछे हैं इससे भी यही सिद्ध होता है।

प्रश्न-पचासवें श्लोक में तो योग का अर्थ समत्व किया गया है और यहाँ उसे परमात्मा की प्राप्ति का वाचक माना गया है; इसका क्या तात्पर्य है?

उत्तर-वहाँ योगरूपी साधन के लिये चेष्टा करने की बात कही गयी है, और यहाँ ‘स्थिर बुद्धि’ होने के बाद फलरूप में प्राप्त होने वाले योग की बात है। इसी से यहाँ ‘योग’ शब्द को परमात्मा की प्राप्ति का वाचक माना गया है। गीता में ‘योग’ और ‘योगी’ शब्द निम्नलिखित कुछ उदाहरणों के अनुसार प्रसंगानुकूल विभिन्न अर्थों में आये हैं।

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।

स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्।। 54।।

प्रश्न-‘यहाँ केशव’ सम्बोधन का क्या भाव है?

उत्तर-क, अ, ईश और व-इन चारों के मिलने से ‘केशव’ पद बनता है। अतः क-ब्रह्मा, अ-विष्णु, ईश-शिव, ये तीनों जिसके व-वपु अर्थात् स्वरूप हों, उसको केशव कहते हैं। यहाँ अर्जुन भगवान् को ‘केशव’ नाम-से सम्बोधित करके यह भाव दिखलाते हैं, कि आप समस्त जगत् के सुजन, संरक्षण और संहार करने वाले, सर्वशक्तिमान् साक्षात् सर्व परमेश्वर हैं; अतः आप ही मेरे प्रश्नों का उत्तर दे सकते हैं।

प्रश्न-‘स्थित प्रज्ञस्य’ पद के साथ ‘समाधिस्थस्य’ विशेषण के प्रयोग का क्या भाव है? उत्तर-पूर्व श्लोक में भगवान् ने अर्जुन से यह बात कही थी कि जब तुम्हारी बुद्धि समाधि में अर्थात् परमातम में अचल भाव से ठहर जायगी, तब तुम योग को प्राप्त होओगे। उसके अनुसार यहाँ अर्जुन भगवान् से उस सिद्ध पुरुष के लक्षण जानना चाहते हैं, जो परमात्मा को प्राप्त हो चुका है और जिसकी बुद्धि परमात्मा में सदा के लिये अचल और स्थिर हो गयी है। यही भाव स्पष्ट करने के लिये ‘स्थित प्रज्ञस्य’ के साथ ‘समाधिस्थस्य’ विशेषण का प्रयोग किया गया है।
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