आत्मा आकाश से भी विलक्षण

आत्मा आकाश से भी विलक्षण

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुचलोऽयं सनातनः।। 24।।
प्रश्न-पूर्व श्लोक में यह बात कह दी गयी थी कि शस्त्रादि के द्वारा आत्मा को नष्ट नहीं किया जा सकता; फिर इस श्लोक में उसे दुबारा अच्छेद्य, अदाह्य अंकेद्य और अशोष्य कहने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-इससे भगवान् आत्मतत्त्व का शस्त्रादि द्वारा नाश न हो सकने में कारण का प्रतिपादन किया है। अभिप्राय यह है कि आत्मा कटने वाली, जलने वाली, गलने वाली और सूखने वाली वस्तु नहीं है। वह अखण्ड, अव्यक्त, एकरस और निर्विकार है; इसलिये उसका नाश करने में शस्त्रादि कोई भी समर्थ नहीं हैं।

प्रश्न-अच्छेधादि शब्दों से आत्मा का नित्यत्व प्रतिपादन करके फिर उसे नित्य, सर्वगत और सनातन कहने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-अच्छेद्यादि शब्दों से जैसा अविनाशित्व सिद्ध होता है वह तो आकाश में भी सिद्ध हो सकता है; क्योंकि आकाश अन्य समस्त भूतों का कारण और उन सब में व्याप्त होने से न तो पृथ्वी-तत्त्व से बने हुए शस्त्रों द्वारा काटा जा सकता है, न अग्नि द्वारा जलाया जा सकता है, न जल से गलाया जा सकता है और न वायु से सुखाया ही जा सकता है। आत्मा का अविनाशित्व उससे अत्यन्त विलक्षण है-इसी बात को सिद्ध करने के लिये उसे नित्य, सर्वगत और सनातन कहा गया है। अभिप्राय यह है कि आकाश नित्य नहीं है, क्योंकि महाप्रलय में उसका नाश हो जाता है और आत्मा का कभी नाश नहीं होता, इसलिये वह नित्य है। आकाश सर्वव्यापी नहीं है, केवल अपने कार्यमात्र में व्याप्त है और आत्मा सर्वव्यापी है। आकाश सनातन, सदा से रहने वाला अनादि नहीं है और आत्मा सनातन-अनादि है। इस प्रकार उपर्युक्त शब्दों द्वारा आकाश से आत्मा की अत्यन्त विलक्षणता दिखलायी गयी है।

प्रश्न-आत्मा को स्थाणु और अचल कहने का क्या भाव है?

उत्तर-इससे आत्मा में चलना और हिलना दोनों क्रियाओं का अभाव दिखलाया है। एक ही स्थान में स्थित रहते हुए काँपते रहना ‘हिलना’ है और एक जगह से दूसरी जगह जाना ‘चलना’ है। इन दोनों क्रियाओं का ही आत्मा में अभाव है। वह न हिलता है और न चलता ही है; क्योंकि वह सर्व व्यापी है, कोई भी स्थान उससे खाली नहीं है।

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकायोंऽयुच्यते।

तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।। 25।।

प्रश्न-आत्मा को ‘अव्यक्त’ और ‘अचिन्त्य’ कहने का क्या भाव है?

उत्तर-आत्मा किसी भी इन्द्रिय के द्वारा जाना नहीं जा सकता, इसलिये उसे ‘अव्यक्त’ कहते हैं और वह मन का भी विषय नहीं है, इसलिये उसे ‘अचिन्त्य’ कहा गया है।

प्रश्न-आत्मा को ‘अविकार्य’ कहने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-आत्मा को ‘अविकार्य’ कहकर अव्यक्त प्रकृति से उसकी विलक्षणता का प्रतिपादन किया गया है। अभिप्राय यह है कि समस्त इन्द्रियों और अन्तःकरण प्रकृति के कार्य हैं, वे अपनी कारण रूपा प्रकृति को व्यक्त नहीं कर सकते, इसलिये प्रकृति भी अव्यक्त और अचिन्त्य है; किन्तु वह निर्विकार नहीं है, उसमें विकार होता है और आत्मा में कभी किसी भी अवस्था में विकार नहीं होता। अतएव प्रकृति से आत्मा अत्यन्त विलक्षण है।

प्रश्न-इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर तुझे शोक करना उचित नहीं है, इस कथन का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया है कि आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से नित्य, सर्वगत अचल, सनातन, अव्यक्त, अचिन्त्य और निर्विकार जान लेने के बाद उसके लिये शोक करना नहीं बन सकता।

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।

तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।। 26।।

प्रश्न-‘अथ’ और ‘च’ दोनों अव्यय यहाँ किस अर्थ में है? और इनके सहित ‘इसको तू सदा जन्मने वाला और सदा मरने वाला मानता हो तो भी तुझे शोक करना उचित नहीं है’ इस वाक्य का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-‘अथ’ और ‘च’ दोनों अव्यय यहाँ औपचारिक स्वीकृति के बोधक हैं। इनके सहित उपर्युक्त वाक्य से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि यद्यपि वास्तव में आत्मा जन्मने और मरने वाला नहीं है-यह बात यथार्थ है, तो भी, यदि तुम इस आत्मा को सदा जन्मने वाला मानते हो तथा सदा मरने वाला अर्थात् प्रत्येक शरीर के वियोग में प्रवाह रूप से सदा मरने वाला मानते हो तो इस मान्यता के अनुसार भी तुम्हें उसके लिये इस प्रकार (जिसका वर्णन पहले अध्याय के अट्ठाईसवें से सैंतालीसवें श्लोक तक किया गया है) शोक करना नहीं चाहिये।

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुवं जन्म मृतस्य च।

तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।। 27।।

प्रश्न-‘हि’ का यहाँ क्या अभिप्राय है?

उत्तर-‘हि’ हेतु के अर्थ में है। पूर्व श्लोक में जिस मान्यता के अनुसार भगवान् ने शोक करना अनुचित बतलाया है, उसी मान्यता के अनुसार युक्तिपूर्वक उस बात को इस श्लोक में सिद्ध करते हैं।

प्रश्न-जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित है-यह बात तो ठीक है; क्योंकि जन्मा हुआ सदा नहीं रहता, इस बात को सभी जानते हैं। परन्तु यह बात कैसे कही कि जो मर गया है उसका जन्म निश्चित है; क्योंकि जो मुक्त हो जाता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता-यह प्रसिद्ध है।

उत्तर-यहाँ भगवान वास्तविक सिद्धांत की बात नहीं कह रहे हैं, भगवान् का यह कथन तो उन अज्ञानियों की दृष्टि से है जो आत्मा का जन्मना-मरना नित्य मानते हैं। उनके मतानुसार जो मरणधर्मा है उसका जन्म होना निथित ही है; क्योंकि उस मान्यता में किसी की मुक्ति नहीं हो सकती। जिस वास्तविक सिद्धांत में मुक्ति मानी गयी है, उसमें आत्मा को जन्मने मरने वाला भी नहीं माना गया है, जन्मना-मरना सब अज्ञान जनित ही है।

प्रश्न-‘तस्मात’ पद का क्या अभिप्राय है? तथा ‘अपरिहार्ये अर्थे’ का क्या भाव है और उसके लिये शोक करना अनुचित क्या है? उत्तर-‘तस्मात्’ पद हेतु वाचक है। इसका प्रयोग करके ‘अपरिहार्ये अर्थे’ से यह दिखलाया है कि उपर्युक्त मान्यता के अनुसार आत्मा का जन्म और मृत्यु निश्चित होने के कारण वह बात अनिवार्य है उसमें उलट-फेर होना असम्भव है; ऐसी स्थिति में निरुपाय बात के लिये शोक करना नहीं बनता। अतएव इस दृष्टि से भी तुम्हारा शोक करना सर्वथा अनुचित है।
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