कृष्ण ने बताया आत्मा व शरीर का सम्बन्ध

कृष्ण ने बताया आत्मा व शरीर का सम्बन्ध

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहांति नरोऽपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।। 22।।

प्रश्न-‘पुराने वस्त्रों के त्याग और नवीन वस्त्र के धारण करने में मनुष्य को सुख होता है, किन्तु पुराने शरीर के त्याग और नये शरीर के ग्रहण में तो क्लेश होता है। अतएव इस उदाहरण की सार्थकता यहाँ कैसे हो सकती है?

उत्तर-पुराने शरीर के त्याग और नये शरीर के ग्रहण में अज्ञानी को ही दुःख होता है, विवेकी को नहीं। माता बाल के पुराने गंदे कपड़े उतारती है और नये पहनाती है तो वह रोता है; परन्तु माता उसके रोने की परवाह न करके उसके हित के लिये कपड़े बदल ही देती है। इसी प्रकार भगवान् भी जीव के हितार्थ उसके रोने की कुछ भी परवाह न करके उसके देह को बदल देते हैं। अतएव यह उदाहरण उचित ही है।

प्रश्न-भगवान् ने यहाँ शरीरों के साथ ‘जीर्णानि’ पद का प्रयोग किया है; परन्तु यह कोई नियम नहीं है कि वृद्ध होने पर (शरीर पुराना होने पर) ही मनुष्य की मृत्यु हो। नयी उम्र के जवान और बच्चे भी मरते देखे जाते हैं। इसलिये भी यह उदाहरण युक्तियुक्त नहीं जँचता?

उत्तर-यहाँ ‘जीर्णानि’ पद से अस्सी या सौ वर्ष की आयु से तात्पर्य नहीं है। प्रारब्धवश युवा या बाल, जिस किसी अवस्था में प्राणी मरता है, वही उसकी आयु समझी जाती है और आयु की समाप्ति का नाम ही जीर्णावस्था है। अतएव यह उदाहरण सर्वथा युक्ति-संगत है।

प्रश्न-यहाँ ‘बासांसि’ और ‘शरीराणि’ दोनों ही पद बहुवचनान्त हैं। कपड़ा बदलने वाला मनुष्य तो एक साथ भी तीन-चार पुराने वस्त्र त्यागकर नये धारण कर सकता है; परन्तु देही यानी जीवात्मा तो एक ही पुराने शरीर को छोड़कर दूसरे एक ही नये शरीर को प्राप्त होता है। एक साथ बहुत-से शरीरों का त्याग या ग्रहण युक्ति से सिद्ध नहीं है। अतएव यहाँ शरीर के लिये बहुवचन का प्रयोग अनुचित प्रतीत होता है?

उत्तर-(क) जीवात्मा अब तक न जाने कितने शरीर छोड़ चुका है और कितने नये धारण कर चुका है तथा भविष्य में भी जब तक उसे तत्त्वज्ञान न होगा तब तक न जाने कितने असंख्य पुराने शरीरों का त्याग और नये शरीरों को धारण करता रहेगा। इसलिये बहुवचन का प्रयोग किया गया है।

(ख) स्थूल, सूक्ष्म और कारण भेद से शरीर तीन हैं। जब जीवात्मा इस शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाता है तब ये तीनों ही शरीर बदल जाते हैं। मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसके अनुसार ही उसका स्वभाव (प्रकृति) बदलता जाता है। सत्, रज, तम तीनों गुणमयी व्यष्टि प्रकृति ही यहाँ कारण शरीर है, इसी को स्वभाव कहते हैं। प्रायः स्वभाव के अनुसार ही अन्तकाल में संकल्प होता है और संकल्प के अनुसार ही सूक्ष्म शरीर बन जाता है। कारण और सूक्ष्म शरीर के सहित ही यह जीवात्मा इस शरीर से निकलकर सूक्ष्म के अनुरूप ही स्थूल शरीर को प्राप्त होता है। इसलिये स्थूल, सूक्ष्म और कारण भेद से तीनांे शरीरों के परिवर्तन होने के कारण भी बहुवचन का प्रयोग युक्ति युक्त ही है।

प्रश्न-आत्मा तो अचल है, उसमें गमनागमन नहीं होता; फिर देही के दूसरे शरीर में जाने की बात कैसे कही गयी?

उत्तर-वास्तव में आत्मा, अचल और अक्रिय होने के कारण, उसका किसी भी हालत में गमनागमन नहीं होता; पर जैसे घड़े को एक मकान से दूसरे मकान में ले जाने के समय उसके भीतर के आकाश का अर्थात् घटाकाश का भी घटके सम्बन्ध से गमनागमन-सा प्रतीत होता है, वैसे ही सूक्ष्म शरीर का गमनागमन होने से उसके सम्बन्ध से आत्मा में भी गमनागमन की प्रतीति होती है। अतएव लोगों को समझाने के लिये आत्मा में गमनागमन की औपचारिक कल्पना की जाती है। यहाँ ‘देही’ शब्द देहाभिमानी चेतन का वाचक है, अतएव देह के सम्बन्ध से उसमें भी गमनागमन होता सा प्रतीत होता है। इसलिये देही के अन्य शरीर में जाने की बात कही गयी।

प्रश्न-वस्त्रों के लिये ‘गृह्नाति’ तथा शरीर के लिये ‘संयाति’ कहा है। एक ही क्रिया से काम चल जाता, फिर दो तरह का प्रयोग क्यों किया गया?

उत्तर-‘गृह्नाति’ का मुख्य अर्थ ‘ग्रहण करना’ है और ‘संयाति’ का मुख्य अर्थ ‘गमन करना’ है। वस्त्र ग्रहण किये जाते हैं, इसलिये यहाँ ‘गृह्नाति’ क्रिया दी गयी है और शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाना प्रतीत होता है, इसलिए ‘संयाति’ कहा गया है।

प्रश्न-‘नरः’ और ‘देही’-इन दोनों पदों का प्रयोग क्यों किया गया, एक से भी काम चल सकता था?

उत्तर-‘नरः’ पद मनुष्य मात्र का। अतः दोनों ही सार्थक हैं; क्योंकि वस्त्र का ग्रहण या त्याग मनुष्य ही करता है, अन्य जीव नहीं। किन्तु एक शरीर से दूसरे शरीर में गमनागमन सभी दोहाभिमानी जीवों का होता है, इसलिये वस्त्रों के साथ ‘नरः; का तथा शरीर के साथ ‘देही’ का प्रयोग किया गया है।

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।। 23।।

प्रश्न-इस श्लोक का क्या अभिप्राय है? उत्तर-अर्जुन शस्त्र-अस्त्रों द्वारा अपने गुरुजन और भाई-बन्धुओं के नाश होने की आशंका से शोक कर रहे थे; अतएव उनके शोक को दूर करने के लिये भगवान ने इस श्लोक में पृथ्वी आदि चारों भूतों को आत्मा का नाश करने में असमर्थ बतलाकर निर्विकार आत्मा का नित्यत्व और निराकारत्व सिद्ध किया है। अभिप्राय यह है कि शस्त्रों के द्वारा शरीर को काटने पर आत्मा नहीं कटता, अग्न्यस्त्र द्वारा शरीर को जला डालने पर भी आत्मा नहीं जलता, वरुणास्त्र से शरीर गला दिया जाने पर भी आत्मा नहीं गलता और वायव्यास्त्र के द्वारा शरीर को सुखा दिया जाने पर भी आत्मा नहीं सूखता। शरीर अनित्य एवं साकार वस्तु है, आत्मा नित्य और निराकार है; अतएव किसी भी अस्त्र-शस्त्रादि पृथ्वीतत्त्व द्वारा या वायु, अग्नि और जल के द्वारा उसका नाश नहीं किया जा सकता।
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