वाणी नहीं कर सकती आत्मा का वर्णन
(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।।28।।
प्रश्न-‘भूतानि’ पद यहाँ किनका वाचक है? और उनके साथ अव्यक्तादीनि’, ‘अव्यक्तनिधनानि’ और ‘व्यक्तमध्यानि’-इन विशेषणों के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-‘भूतानि’ पद यहाँ प्राणि मात्र का वाचक है। उनके साथ ‘अव्यक्तादीनि’ विशेषण जोड़़कर यह भाव दिखलाया है कि आदि में अर्थात् जन्म से पहले इनका वर्तमान स्थूल शरीर से सम्बन्ध नहीं था; ‘अव्यक्त-निधनानि’ से यह भाव दिखलाया है कि अन्त में अर्थात् मरने के बाद भी स्थूल शरीरों से इनका सम्बन्ध नहीं रहेगा और ‘व्यक्तमध्यानि’ से यह भाव दिखलाया है कि केवल जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त बीच की अवस्था में ही ये व्यक्त हैं अर्थात् इनका शरीरों के साथ सम्बन्ध है।
प्रश्न-ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है, इस वाक्य का क्या भाव है?
उत्तर-इससे भगवान् ने यह दिखलाया है कि जैसे स्वप्न की सृष्टि स्वप्न काल में पहले या पीछे नहीं है, केवल स्वप्न काल में ही मनुष्य का उसके साथ सम्बन्ध-सा प्रतीत होता है, उसी प्रकार जिन शरीरों के साथ केवल बीच की अवस्था में ही सम्बन्ध होता है, नित्य सम्बन्ध नहीं है उनके लिये क्या शोक करना है? महाभारत-स्त्री पर्व के दूसरे अध्याय में बिदुर जी ने भी यही बात इस प्रकार कही है-
अदर्शनादापतिताः पुनश्चदर्शनं गतः।
नैते तव न तेषां स्वं तत्र का परिदेवना।।13।।
अर्थात् जिनको तुम अपने मान रहे हो, ये सब अदर्शन से आये हुए थे यानी जन्म से पहले अप्रकट थे और पुनः अदर्शन को प्राप्त हो गये। अतः वास्तव में न ये तुम्हारे हैं और न तुम इनके हो; फिर इस विषय में शोक कैसा?
आश्चर्वत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।। 29।।
प्रश्न-‘कोई एक ही इसे आश्चर्य की भाँति देखता है’ इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे भगवान् ने यह दिखलाया है कि आत्मा आश्चर्यमय है, इसलिये उसे देखने वाला संसार में कोई विरला ही होता है और वह उसे आश्चर्य की भाँति देखता है। जैसे मनुष्य लौकिक दृश्य वस्तुओं को मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा इदं बुद्धि से देखता है, आत्मदर्शन वैसा हनीं है; आत्मा का देखना अद्भुत और अलौकिक है। जब एकमात्र चेतन आत्मा से भिन्न किसी की सत्ता ही नहीं रहती, उस समय आत्मा स्वयं अपने द्वारा ही अपने को देखती है। उस दर्शन में द्रष्टा, दृश्य और दर्शन की त्रिपुटी नहीं रहती; इसलिये यह देखना आश्चर्य की भाँति है।
प्रश्न-‘वैसे ही कोई आश्चर्य की भाँति इसका वर्णन करता है। इस वाक्य का क्या भाव है?
उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि आत्म साक्षात् कर चुकने वाले सभी ब्रह्मनिष्ठ पुरुष दूसरों को समझाने के लिये आत्मा के स्वरूप का वर्णन नहीं कर सकते। जो महापुरुष परमात्मतत्त्व को भलीभाँति जानने वाले और वेदशास्त्र के ज्ञाता होते हैं, वे ही आत्मा का वर्णन कर सकते हैं और उनका वर्णन करना भी आश्चर्य की भाँति होता है। अर्थात् जैसे किसी को समझाने के लिये लौकिक वस्तु के स्वरूप का वर्णन किया जाता है, उस प्रकार आत्मा का वर्णन नहीं किया जा सकता; उसका वर्णन अलौकिक और अद्भुत होता है।
जितने भी उदाहरणों से आत्मतत्त्व समझाया जाता है, उनमें से कोई भी उदाहरण पूर्ण रूप से आत्मतत्त्व को समझाने वाला नहीं है। उसके किसी एक अंश को ही उदाहरणों द्वारा समझाया जाता है, क्योंकि आत्मा के सदृश अन्य कोई वस्तु है ही नहीं, इस अवस्था में कोई भी उदाहरण पूर्णरूप से कैसे लागू हो सकता है? तथापि विधिमुख और निषेधमुख आदि बहुत-से आश्चर्यमय संकेतों द्वारा महापुरुष उसका लक्ष्य कराते हैं, यही उनका आश्चर्य की भाँति वर्णन करना है। वास्तव में आत्मा वाणी का अविषय होने के कारण स्पष्ट शब्दों में वाणी द्वारा उसका वर्णन नहीं हो सकता।
प्रश्न-‘दूसरा इसको आश्चर्य की भाँति सुनता है’ इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि इस आत्मा के वर्णन को सुनने वाला सदाचारी शुद्धचित्त श्रद्धालु आस्तिक पुरुष भी कोई विरला ही होता है और उसका सुनना भी आश्चर्य की भाँति है। अर्थात् जिन पदार्थों को वह पहले सत्य, सुखरूप और रमणीय समझता था तथा जिन सबको अनित्य, नाशवान् दुःखरूप और जड़ तथा आत्मा को उनसे सर्वथा विलक्षण सुनकर उसे बड़ा भारी आश्चर्य होता है; क्योंकि वह तत्त्व उसका पहले कभी सुना या समझा हुआ नहीं होता तथा किसी भी लौकिक वस्तु से उसकी समानता नहीं होती, इस कारण वह उसे बहुत ही अद्भुत मालूम होता है तथा वह उस तत्त्व को तन्मय होकर सुनता है और सुनकर मुग्ध-सा हो जाता है, उसकी वृत्तियाँ दूसरी ओर नहीं जातीं-यही उसका आश्चर्य की भाँति सुनना है।
प्रश्न-‘कोई-कोई सुनकर भी इसको नहीं जानता‘ इस वाक्य का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जिसके अन्तःकरण में पूर्ण श्रद्धा और आस्तिकभाव नहीं होता, जिसकी बुद्धि शुद्ध और सूक्ष्म नहीं होती-ऐसा मनुष्य इस आत्मतत्त्व को सुनकर भी संशय और विपरीत भावना के कारण इसके स्वरूप को यथार्थ नहीं समझ सकता; अतएव इस आत्मतत्त्व का समझना अनधिकारी के लिये बड़ा ही दुर्लभ है।
प्रश्न-‘आश्चर्यवत्’ पद यहाँ आत्मा का विशेषण है या उसे देखने, कहने और सुनने वालों का अथवा देखना? वर्णन करना और श्रवण करना-इन क्रियाओं का?
उत्तर-‘आश्चर्यवत्’ पद यहाँ देखन, सुनना आदि क्रियाओं का विशेषण है; क्रियाविशेषण होने से उसका भाव कर्ता और कर्म में अपने-आप ही आ जाता है।
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि।। 30।।
प्रश्न-‘यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य है’ इस वाक्य का क्या भाव है? उत्तर-इस वाक्य में भगवान ने यह भाव दिखलाया कि समस्त प्राणियों के जितने भी शरीर हैं, उन समस्त शरीरों में एक ही आत्मा है। शरीरों के भेद से अज्ञान के कारण आत्मा में भेद प्रतीत होता है, वास्तव में भेद नहीं है। और वह आत्मा सदा ही अवध्य है, उसका कभी किसी भी साधन से कोई भी नाश नहीं कर सकता।
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