अपन सोंच; बगुलवा के चोंच

अपन सोंच; बगुलवा के चोंच

   डॉ रामकृष्ण मिश्र      
     दादी ,दादा, मामा, बाबा जइसन शब्द जइसहीं सुनाइ पड़ॄ हे तइसहीं एगो फोटो भक से आँख तर बर जाहे कि   जेकर माथा के सौसे बार एकदम सनकुट उज्जर होए,देह के चाम हाड़ छोड़ के देह से झूलित होए,हो सकेतो मुहमें एकाध गो दाँत होए न तो एकदमे बेदांती,आँखों से अलचार चाहे कमतर रोसनी के साथे ढेरमनी अनुभव अउ पीड़ा-बत्था  समेटले एगो छछात बुढ़ारी के बिंब  समझल  जा सकऽ हे। 
अइसन परानी के खोंइछा में नैहर सासुर के अलाबे गाँव जेवार,समाज से मिलल अनुभव  के ढेर  खिस्सा  समेट के तहदरज होएल रहऽ हे  जे   ई उमर में बतकही  के छेंओकन पड्ते  तहे तह उघरे लगऽ हे। 
नयका अउ पुरनका समय में केतना फरक होगेल कि  कुछ कहल न जा सके। कहाँ तो पहिले चउका में बिना नेहैले फिचले जाएला कोई सोचऽ नऽ हल जबकि आझ उठते चाय के तलब हो जाहे ,त चाय बनत तब नऽ।  आझ तो च उकाओ रंग रूप बदल के तैयार हे बिलुक नामो पछमाहा हो के किचन हो गेल। 
अब न लीपे के झंझट न धूआँ-धुकुर के टंठा ,सस फट सुन अगलगोनी काँटी बरनरवा के छूलक कि भनक से गोल गोल आग के गुच्छा बनल गोल गोल नीला जोत परघट हो गेल। 
लेकिन तब के बाते दोसर हल, जेतना पबित्तर भाव, करमठ ,सेवा सत्कार के सरधा का जनानी का मरदानीसभे दिल दिमाग में भरल रहऽ हल,,पहुना पझरिआ के दुआरी पर अएला से उछाह अउ नेह छोह के  तरंग उमड़ जा हल। रसोई घर में बनित पकवान के गन्ह से दुआरी पर बैठल   पहुशा पझरिआओ के नाक कुलकुलाय लगऽ हल। तरह तरह के पकवान,नस्तामें मोहन भोग इया कचौड़ी,आलू के भुंजिआ लेमो के निमकी चाहे कहिआ के जोगावल आम के अँचारजखनी फूलके थरिआ कटोरी गिलास के साथे आगू में परसा हल,तखनी खताहरो के लगॄ हल कि कहाँ अएली हे। 
बरतन के का कहूँ आझ तो तिलको मे मिलल एकाध सेट मलँगिआ थारी,लोटा कटोरा,गिलास कहाॄ नुका के रखा जाहे  कि कहिओ ओकरा हवा लगे से भी मतल न रहे।  हाँ,अलमुनिआ हिंडालिअन के रस्ते अस्टील ,फाईवर  सब घर के बिलाई बनलकरँ  
। ढेर दिन पहिले के बात हे कि  पुनीत चड्ढा के बेटी के बिआह तय होवे वाला हल  लड़कादने से पाँच-छौ अदमी  तय तमन्ना ला अएलन हल।  पुनीत के घरे बरतन ,थारी गिलास के कमी न हल त इओ मामू से कहलन कि इयार कुठुम के खिआवेला एकतरह के थारी गिलास रहत हल त बेस लगत इ हल से तनी बनवस कर देतऽ हल। मामू कहलथी कि अखबका मत क्हे  एक दरजन थरिया गिलास कटोरी तसतरी अउ चमचो खरीदली हे,तूँ सब लेजा बढ़िया से ओहनी के सोआगत करऽ। 
ऊ घड़ी अस्टील के सहचार सुरुए भेल हल से ओकर महातम जादे हल। अखनी तो घरे घर एकरे चमक झलकित हे काहे कि धोवे माँजे खंघारे में तनिको टटेर न,जस के तस चमकित झलकित रहऽ हे नया निअन। एकर अरदवायो जनमजुगी निअन ,न सड़े के न गले के,जब तक मन न उबिआए तब तक चलित हे चलावल जाइत हे। 
जने तने से सहरी हवा गांँव में आके एकर रीत रेवाज के खुरच के चितकावर बना देलक हे जेकर सहवड़ी में कुछ तो धैले न थमाइत हथ। एही में छोट- बड़ ,ऊँच-नीच,अपन ,आन,बड़ी नीमन से बुझाए लगल हे,,पढ़ल लिखल बेटा पुतोहन के असगरे रहे के   हबस अकास खिल रहल हे ,फाँच रूपया के नौकरी का करे लगलन कि माय बाप आजी  चच्चा बाबा दादी के छोड़ के सहरी बाबू बनेला अपन कनेमाँ ,पिलुआ भर के बुतरुओ के साथे परा गेलन आउ हिंआँ सब के मुहे ताला लटक गेल। कयलो का जाए घर के परिवार के समांग जे हथ। जे हियाँ रहलन उन्हकर माथे गोबर गनौरा,खेती के करमठ में जोताई, से ले के बर बिमारी ,नेओता पेहानी मरनी जीनी के सभे लत्तर मे लहराइत रहना हे। ़
अइसे तो घरइता के सलोगे सहजोग में जूही चमेली के महको हे आइ रेंगनी के काँट के बिछौनो निअन दरद के टीस मी लैकिन तइओ  एकदम से जोगी फकीरो तो बनल न जा सकऽ हे। मजे मजे सब कुछ चले त दुख दाबात के?
असल में समय समाज आसपास के हवस आउ बढल मन के उछाह अमदी के थिर थापना सेरहे दे तब न। मन के चतुराई, देखाहिसकी के उरेहल सौखीनी ला बेकाबु भल हिच्छा रुके के नाम ले तब न?
जे होए से होए ओला सोंच अनगिनती झंझट अझुरा के रख देहे  एहू समझे के चही ,  
आगे अपन अपन सोंच,बगुलवा के चोच। 
रामकृष्ण/गयाजी
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