आक.....थू
---:भारतका एक ब्राह्मण.
संजय कुमार मिश्र'अणु'
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आक....थू
आ रही तेरी नियत से
बदनियती की बू
छलावा है तेरा भाईचारा
मुंह पर मुहब्बत और
पीठ में खंजर मारा
भूलकर इमान
आदमी नहीं तुम हो शैतान
जो मेरी हर बात पर
करने लगते हो चूं....चूं
है तेरा आदिम युग से इतिहास
काटते रहे हो गर्दनें
गिनते रहे हो लाश पर लाश
ये तेरा जालीदार हरी टोपी
तेरी बदनियती को भी नहीं तोपी
न जाने क्यूं
मानव को तुम रहे हो मारते काटते
देश की संपदा लूट आपस में बांटते
तुम तोडते रहे हो मेरे मंदिर
और जलाते रहे हो मेरे विद्यालय
बेवजह धू...धू...
कुछ यहाँ के भी स्वार्थी लोग
बुलाकर पालते रहे हैं कोढ
अपनों के साथ करके गद्दारी
लूटेरों के संग निभाकर यारी
जब अपनी गर्दन पर पहुंची तलवार
तब कहा मुझे मत मार
कहा खुब कर दो रहम
अरे तेरे तो साथी हैं हम
पर तेरी बात सुन
नहा रेंगा कान पर जूं
छिनकर तुझसे तेरा हीं धन
लूटकर तेरी बहन,बेटी परिजन
करता रहा तेरे हीं सम्मुख
अपने क्रुर पापाचरण
कर तेरा मानमर्दन
और स्वत्व का अपहरण
जिसे पूजते थे तेरे पूर्वज
उस आस्था-स्थल पर वो पापी
करता रहा सदियों से वजू
फिर भी उसे नहीं पहचान पाया
सब देख जान भोगकर भी
पिलाता रहा दूध देकर छत्रछाया
नहीं था उसका औकात
जो दे सकता था मुझे मात
पर जो भोग रहा हूँ जलालत
उसे ऐसा करने को
किसने दिया मोहलत
सिर्फ तु....और तु
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