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बिरसा मुंडा का संदेश अपनाने का समय

बिरसा मुंडा का संदेश अपनाने का समय

(अशोक त्रिपाठी-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
आदिवासियों के भगवान और स्वाधीनता दिवस के नायक बिरसा मुंडा को सिर्फ राजनीति के लिए महिमा मंडित करने से कोई फायदा नहीं है। जाति और धर्म की राजनीति अब चुनाव जीतने के लिए जरूरी हो गयी है। इसीलिए अम्बेडकर जयंती, रविदास जयंती, सिखों के धार्मिक पर्व, परशुराम जयंती, सुहेलदेव जयंती जैसे कितने ही आयोजन सत्तारूढ़ दल और विपक्ष बढ़ चढ़कर कर रहे हैं। बिरसा मुंडा की जयंती (15 नवम्बर) पर भी धूमधाम से आयोजन हुए लेकिन उनके संदेश को जन-जन तक, विशेष रूप से गरीबों और आदिवासियों तक पहुंचाने की जरूरत है। इस दिशा मंे ठोस प्रयास नहीं दिखाई पड़ते हैं। बिरसा मुंडा ने अपन नया धर्म शुरू किया था, हालांकि वह हिन्दू धर्म को पूरा सम्मान देते थे। बिरसा मुंडा ने 1895 मंे बिरसाइत नामक धर्म शुरू किया था जो आदिवासियों को खैनी, बीड़ी, मांस-मदिरा का सेवन करने से रोकता था। इस धर्म मंे प्रकृति की पूजा को महत्व दिया गया था ताकि पर्यावरण की रक्षा हो सके। जनजातियों को वोट बैंक नहीं, उनके विकास से ही बिरसा मुंडा को सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है। आदिवासी का वो क्षेत्र, जहां बिरसा मुंडा ने जागृति की अलख जगायी थी, वहां भी आदिवासियों को बच्चों के लिए शिक्षा एवं स्वास्थ्य की पर्याप्त सुविधाएं नहीं हैं। 
आदिवासियों के महानायक बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड के खूंटी जिले में आदिवासी परिवार में हुआ था। आदिवासियों के हितों के लिए अंग्रेजों से लोहा लेने वाले बिरसा मुंडा ने आदिवासियों में नई चेतना जगाने का भी काम किया था। उनके योगदान के चलते ही देश की संसद के संग्रहालय में भी उनकी तस्वीर है। जनजातीय समुदाय में यह सम्मान अभी तक बिरसा मुंडा को ही हासिल हुआ है। बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, बिरसा मुंडा के परिवार ने ईसाई धर्म अपना लिया था और बिरसा मुंडा की शुरुआती पढ़ाई भी मिशनरी स्कूल में हुई थी। रिपोर्ट के अनुसार, ईसाई मिशनरी द्वारा जिस तरह से मुंडा समुदाय की पुरानी व्यवस्थाओं की आलोचना की जाती थी, उससे वह काफी नाराज थे और इसके चलते वह वापस आदिवासी तौर तरीकों की तरफ लौट आए।  
उस दौर में ब्रिटिश सरकार की शोषण और दमन की नीति चरम पर थी। ब्रिटिश व्यवस्था के तहत जमींदार, जागीरदार, साहूकार, महाजन आदि लोग आदिवासियों को शोषण करते थे। आदिवासियों की भूमि व्यवस्था भी छिन्न-भिन्न हो रही थी। ऐसे में बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को जाग्रत किया। साल 1894 में बिरसा मुंडा के जीवन में अहम मोड़ साबित हुआ, जब वह आदिवासियों की जमीन और अधिकारों के लिए चलाए जा रहे सरदार आंदोलन में शामिल हुए। साथ ही अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंक दिया। बिरसा मुंडा के अनुयायियों ने कई जगहों पर अंग्रेजों के खिलाफ हमले किए और सामंती व्यवस्था का विरोध किया। इसके चलते अंग्रेजों ने बिरसा मुंडा पर 500 रुपए का इनाम घोषित कर दिया। बाद में बिरसा मुंडा को गिरफ्तार कर लिया गया और 9 जून 1900 को जेल में मुकदमे के दौरान उनकी मृत्यु हो गई। 
बिरसा मुंडा के निधन के बाद उनके द्वारा शुरू किया गया आंदोलन भी धीमा पड़ गया। बिरसा मुंडा ने साल 1895 में अपना नया धर्म शुरू किया, जिसे बिरसाइत कहा जाता है। इतना ही नहीं इस नए धर्म के प्रचार के लिए बिरसा मुंडा ने 12 शिष्यों को भी नियुक्त किया। आज भी लोग बिरसाइत धर्म को मानते हैं लेकिन इनकी संख्या हजारों में ही है। बिरसाइत धर्म को मानना बहुत कठिन है क्योंकि इसमें मांस, मदिरा, खैनी, बीड़ी का सेवन नहीं कर सकते हैं। बाजार का बना और दूसरे के घर का खाने पर भी रोक है। गुरुवार के दिन फूल, पत्ती, दातून भी नहीं तोड़ सकते। यहां तक कि गुरुवार को खेती के लिए हल भी नहीं चला सकते। बिरसाइत धर्म को मानने वाले लोग सिर्फ प्रकृति की पूजा करते हैं और भजन गाते हैं, जनेऊ पहनते हैं। 

बिरसा मुंडा का जन्म मुंडा जनजाति के गरीब परिवार में हुआ, पिता-सुगना पुर्ती(मुंडा) और माता-करमी पुर्ती (मुंडाईन) के सुपुत्र बिरसा पुर्ती (मुंडा) का जन्म 15 नवम्बर 1875 को झारखण्ड के खूंटी जिले के उलीहातु गाँव में हुआ था, जो निषाद परिवार से थे। साल्गा गाँव में प्रारम्भिक पढ़ाई के बाद इन्होंने चाईबासा जीईएलचार्च (गोस्नर एवंजिलकल लुथार) विधालय में पढ़ाई की। इनका मन हमेशा अपने समाज की यूनाइटेड किंगडम अर्थात् ब्रिटिश शासकों द्वारा की गयी बुरी दशा लगर रहता था। उन्होंने मुण्डा लोगों को अंग्रेजों से मुक्ति पाने के लिये अपना नेतृत्व प्रदान किया।1894 में मानसून के छोटा नागपुर पठार, छोटानागपुर में असफल होने के कारण भयंकर अकाल और महामारी फैली हुई थी। बिरसा ने पूरे मनोयोग से अपने लोगों की सेवा की। अक्टूबर 1894 को नौजवान नेता के रूप में सभी मुंडाओं को एकत्र कर इन्होंने अंग्रेजो से लगान (कर) माफी के लिये आन्दोलन किया। मुंडा विद्रोह को उलगुलान नाम से भी जाना जाता है। 1895 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी लेकिन बिरसा और उसके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी जिससे उन्होंने अपने जीवन काल में ही एक महापुरुष का दर्जा पाया। उन्हें उस इलाके के लोग धरती आबा के नाम से पुकारा और पूजा करते थे। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी। मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उनके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूँटी थाने पर धावा बोला। 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ्तारियाँ हुईं।
जनवरी 1900 डोम्बरी पहाड़ पर एक और संघर्ष हुआ था जिसमें बहुत सी औरतें व बच्चे मारे गये थे। उस जगह बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे। बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ्तारियाँ भी हुईं। अन्त में स्वयं बिरसा भी 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर के जमकोपाई जंगल से अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया। जेल में उन्हे हैंजा हो गया और 9 जून 1900 को रांची जेल में उनकी मृत्यु। हो गई। बिरसा ने अपनी अन्तिम साँसें राँची कारागार में लीं। आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुण्डा को भगवान की तरह पूजा जाता है। बिरसा के विचार अमर हो गए।
बिरसा मुण्डा की समाधि राँची में कोकर के निकट डिस्टिलरी पुल के पास स्थित है। वहीं उनका स्टेच्यू भी लगा है। उनकी स्मृति में रांची में बिरसा मुण्डा केन्द्रीय कारागार तथा बिरसा मुंडा अंतरराष्ट्रीय विमानक्षेत्र भी है। बिरसा मुण्डा के सम्मान में झारखंड राज्य का गठन भारत सरकार के द्वारा 15 नवंबर 2000 को किया गया। (हिफी

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