नवीन दर्शन व धर्मतत्व प्रदात्ता द्रविड़ देशोत्पन्न ब्राह्मण आदि शंकराचार्य
-अशोक “प्रवृद्ध”
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा 5 नवम्बर को बाबा केदारनाथ के दर्शन, रुद्राभिषेक के पश्चात विभिन्न विकास कार्यों का उद्घाटन और आदि शंकराचार्य की प्रतिमा का अनावरण व उनका गुणगान किये जाने से हिन्दू धर्म को पुनः उर्जस्वित कर उसे नवीन दर्शन एवं नया स्वरुप प्रदान करने वाले द्रविड़ देशोत्पन्न नम्बूदरि ब्राह्मण शंकराचार्य के द्वारा भारतीय ज्ञान-विज्ञान, मेधा के क्षेत्र में किये गये कार्यों की एक बार पुनः स्मरण, मूल्यांकन हो सकने की आशा से भारतीय संस्कृति का विश्व में जयघोष होने की भारतीयों की चिर परिचित उम्मीद एक बार पुनः जाग उठी है। प्रधानमन्त्री मोदी ने आदि शंकराचार्य की प्रतिमा का अनावरण कर जय बाबा केदारनाथ का उद्घोष करते हुए कहा कि आदि शंकराचार्य ने पवित्र मठों की स्थापना की, चार धामों की स्थापना की, द्वादश ज्योतिर्लिंगों का पुनर्जागरण का काम किया। अपना सब कुछ त्यागकर देश, समाज और मानवता के लिए जीने वालों के लिए एक सशक्त परंपरा खड़ी की। शंकर का संस्कृत में अर्थ है- “शं करोति सः शंकरः', यानी जो कल्याण करे, वही शंकर है। इस व्याकरण को भी आचार्य शंकर ने प्रत्यक्ष प्रमाणित कर दिया। उनका पूरा जीवन जितना असाधारण था, उतना ही वह जन-साधारण के कल्याण के लिए समर्पित थे। प्रधानमन्त्री के दक्षिण भारत के द्रविड़ ब्राह्मण आदि शंकराचार्य के प्रति इस उद्बोधन से विश्व में सनातन की गूंज की अनुगूँज स्थापित होने की उम्मीद से सम्पूर्ण सनातन जगत गदगद है। उल्लेखनीय है कि वैदिक काल से लेकर बुद्ध काल पर्यन्त उत्तर भारत ही सनातन वैदिक धर्म अर्थात हिन्दू सभ्यता - संस्कृति और धर्म का केन्द्रविन्दु रहा। हिन्दू धर्म एवं उसके संस्कृतिमूलक साहित्य यथा, वेद, उपनिषद, दर्शन, ब्राह्मण एवं सूत्र ग्रन्थ की रचना उत्तर भारत में ही हुई। उतर भारत में ही धर्म एवं समाज के नेता हुए तथा सहस्त्रों वर्षों शताब्दियों तक हिन्दू - धर्म और संस्कृति का प्रवाह उत्तर भारत से दक्षिण की ओर निरन्तर होता रहा, परन्तु आठवीं शताब्दी में दक्षिण से नूतन हिन्दू धर्म का सर्वप्रथम प्रवाह उत्तर भारत की ओर प्रवाहित होने की नवीनतम घटना घटती दृष्टिगोचर होती है। शंकराचार्य सर्वप्रथम दक्षिण से नवीन धर्मतत्व को लेकर उत्तर भारत में आये तथा अपने असाधारण सामर्थ्य से उत्तर भारत में अपने नवीन धर्म का आरोपण किया। शंकराचार्य मसीह के आठवीं शताब्दी में केरल के कालडी ग्राम में एक नम्बूदरि ब्राह्मण के यहाँ पैदा हुए थे। द्रविड़ देशोत्पन्न ब्राह्मण शंकराचार्य ने चारों वेदों सहित समस्त शास्त्रों, व्याकरणादि शास्त्रों का अध्ययन एवं शुद्ध ज्ञान आठ वर्ष की अल्पायु में ही प्राप्त कर लिया था, तथा सोलह वर्ष की किशोर अवस्था तक में ही गीता, उपनिषद् और ब्रह्मसूत्रों की भाष्यादि की रचना कर डाली थी। उसके पश्चात उन्होंने चौबीस वर्ष तक में समस्त भारत के वेदविरुद्ध मत वालों को शास्त्रार्थ में परास्त कर भारत में सनातन धर्म को पुनर्स्थापित किया। वैदिक धर्म के इतर आधुनिक हिन्दू धर्म का प्रारंभ 1000 वर्ष पूर्व से पुराना श्रीशंकराचार्य के समय से माना जा सकता है। महान हिन्दू धर्म सुधारक शंकराचार्य की बतीस वर्ष की अल्पायु में ही मृत्यु हो गई, परन्तु मृत्यु से पूर्व तीन बार उन्होंने समस्त भारत का भ्रमण किया तथा प्रसिद्ध विद्वानों से वाद- विवाद करके अद्वैतवाद के सिद्धांत की रचना की। वह महान विचारक ही नहीं, वरन उच्च कोटि के संगठनकर्ता भी थे। उनके संगठनात्मक उत्साह के सर्वाधिक टिकाऊ स्मारकों में उनके द्वारा स्थापित विख्यात मठ हैं – कर्णाटक की श्रृंगेरी में , गुजरात की द्वारका में, उड़ीसा की पूरी में एवं हिमालय की बर्फीली चोटियों पर बदरीनाथ में। शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म को अनेक कुरीतियों से निजात दिलाया। प्राचीनकालीन शाक्त संप्रदाय देवी पूजा से जुड़ी हुई थी। शाक्त संप्रदाय पांच मकारों अर्थात मत्स्य, मांस, मद्य, मुद्रा (नृत्य) और मैथुन में विश्वास करता था। शंकराचार्य ने इस संप्रदाय को सुधारकर इसकी मूल प्रतिष्ठा पुनर्स्थापित की। शंकराचार्य ने कापालिकों को भी सुधारा। तत्कालीन कापालिक भैरव देवता को प्रसन्न करने के लिए मानवों की बलि दिया करते थे। इस प्रकार शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म को पुनः उर्जस्वित किया तथा उसे नवीन दर्शन एवं नया स्वरुप प्रदान किया ।
शंकराचार्य के प्रादुर्भाव का युग उत्तर भारत में धार्मिक और राजनैतिक क्रांति का था। आठवीं शताब्दी के लगभग सम्पूर्ण उत्तर भारत में बौद्धों के ह्रास के चिह्न प्रकट होने लगे थे। बौद्धों के मठों एवं विहारों की संख्या तो छोटे - बड़े प्रायः सभी नगरों में प्रयाप्त थी, तथा उनमे बड़ी संख्या में भिक्षु- भिक्षुनियाँ रहती थीं, लेकिन वे अधिकतर अनाचार एवं अनैतिक पाखण्ड के केन्द्रविन्दु बने हुए थे। गांधार जनपद उजाड़ चुका था, और वहाँ बौद्धों के विहार उजड़ रहे थे तथा हिन्दुओं के मन्दिरों का निर्माण होने लगा था। अफगानिस्तान, गांधार, बलूचिस्तान पर हिन्दू राज्य कायम हो गया था। कश्मीर में भी बौद्धों की बहुतायत थी। यही दशा मथुरा, पाटलिपुत्र और कान्यकुब्ज की थी। नालन्दा विश्वविद्यालय वज्रयान संप्रदाय का केन्द्रस्थल था। पश्चिमी देशों की अपेक्षा भारत के पूर्वीय देशों में बौद्ध धर्म अभी संपन्न था। केवल प्रयाग और काशी में बौद्धों का अत्यधिक तिरस्कार होता था, तथा शिवलिंग की पूजा नगरों- ग्रामों के प्रत्येक घरों में होने लगी थी। वैसे इस समय में सम्पूर्ण उत्तर भारत में प्राचीन वैदिक धर्म के स्थान पर नवीन हिन्दू धर्म स्थापित हो रहा था। प्राचीन वैदिक धर्म से इस नवीन हिन्दू धर्म में दो बड़े अंतर (भेद) थे - एक सिद्धांत सम्बन्धी तथा दूसरा आचार- विचार सम्बन्धी।
प्राचीन धर्म से नवीन धर्म का सिद्धांत सम्बन्धी भेद यह था कि प्राचीन वैदिक धर्म में तत्वों के देवता माने जाते थे और सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान ईश्वर की कल्पना की गई थी उसके स्थान पर नवीन हिन्दू धर्म में ये देवता मूर्तिमान थे तथा इन पर परमेश्वर का एक मूर्त त्रिदेव समूह का था। यही त्रैकत्व नवीन हिन्दू धर्म की एक नई वस्तु थी। आचार सम्बन्धी नई बात मूर्तिपूजा थी। वैदिक धर्म में जो यज्ञ का महत्व था, वही स्थान नये धर्म में देव मन्दिरों को प्राप्त हो गया तथा प्रतिमा पूजन का प्रारंभ एक नई वस्तु थी। इस काल में सर्वत्र राजनीतिक अन्धकार व्याप्त था। कोई प्रबल स्वराज्य सत्ता देश में नहीं थी। यह अन्धरात्रि की स्थिति विशेषकर नवीं एवं दशवीं शताब्दी में थी । तत्पश्चात ग्यारहवीं -बारहवीं शताब्दी में दिल्ली और अजमेर में राजपूत राज्य स्थापित हुआ । उनकी चाल, व्यवहार, पद्धति सब विक्रम और शिलादित्य से निराली व अनूठी थी । इस प्रकार इस अन्धरात्रि ने प्राचीन को अर्वाचीन से पृथक कर दिया था । एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि प्राचीन हिन्दूओं ने विदेशी आक्रामकों को अपने धर्म और जाति में मिला लिया था । वैदिक आर्यों ने जब द्रविड़, असुरों आदि से युद्ध किये तो कालान्तर में ये दोनों जातियाँ भी आर्यों में सम्मिलित हो गईं । इसी प्रकार शक, तुर्क, आभीर, सीरियन, गुर्जर, हूण आदि जातियों को भी आर्यों ने अपने भीतर सम्मिलित कर लिया था । विभिन्न जातियों को अपने में सम्मिलित कर लेने का यह कार्य आर्यों ने राजनैतिक उन्नति और सामाजिक संगठन के विचार से किया था, परन्तु इन जातियों के मिश्रण से आर्यों का प्राचीन वैदिक धर्म बिल्कुल विकृत हो गया । इन विदेशी जातियों में अनेक समृद्ध विचार वाली तथा उन्नत आचार वाली भी थीं तथा वे जातियाँ अपने साथ अपने धर्म के संस्कार, अपने कुल, आचार और परम्परागत विचारों को लेकर हिन्दू धर्म में सम्मिलित होकर एक हुए । ये पश्चिमी एशिया से आई हुई जातियाँ, जो अनेक आचार साथ लाई, उनमें एक मूर्ति पूजा भी थी ।
प्राचीन आर्यों की दो वैदिक शाखाएँ थीं- एक ज्ञानकाण्डी जो उपनिषदपंथी थे, दूसरे कर्मकाण्डी जो ब्राह्मणपंथी थे । बौद्धों ने जब वैदिक धर्म को छिन्न- भिन्न कर दिया तो नई संक्षिप्त भाषा में दर्शनादि का निर्माण हुआ। दर्शनों में प्राचीन वैदिक दोनों पंथों पर दो नये दर्शन लिखे गये । उपनिषद के ब्रह्म तत्व पर उत्तर मीमांसा अथवा वेदान्त और ब्राह्मणों के कर्मकाण्ड पर पूर्वमीमांसा । ये पूर्व मीमांसाकार जैमिनी उपनिषद पंथ के परम शत्रु थे । एक बात और भी थी कि उपनिषद का ब्रह्म तत्व क्षत्रियों ने और ब्राह्मणों का कर्मकाण्ड ब्राह्मणों ने अपना लिया था तथा दोनों ही वेदों को अपना समर्थक बतलाती थीं। उपनिषद पंथी राजा लोग जनक विदेह जैसे यद्यपि ब्राह्मण की कर्मकाण्ड विधि पर यज्ञ करते थे, परन्तु वे अपने ही ब्रह्मज्ञान की बातें ब्राह्मणों से छिपाते रहते थे, सरलतापूर्वक बतलाते नहीं थे ।
ऐसी परिस्थिति में भारत के केरल राज्य के कालडी ग्राम में शंकराचार्य का जन्म एक वेदाचार संपन्न तपोनिष्ठ नम्बूदरि ब्राह्मण के घर में हुआ। उनकी मातृभाषा मलयालम थी लेकिन अलौकिक प्रतिभा के बल पर बहुत कम समय में ही उन्होंने महाभाष्य पर्यंत संस्कृत का अध्ययन कर लिया। तत्पश्चात वे अद्वैत वेदान्त के महान आचार्य गौड़पाद के शिष्य गोविन्द भगवत्पाद की तलाश में लम्बी यात्रा करते करते हिमालय के दुर्गम भाग उत्तराखण्ड आ पहुंचे। गोविन्द भगवत्पाद इस कुशाग्र अल्पव्यस्क विद्यार्थी की अद्भुत प्रतिभा को देखकर चमत्कृत रह गये तथा उन्होंने इस बालक को अद्वैत सिद्धांत का गूढ़ रहस्य बतलाया। गुरु के चरणों में तीन वर्षों तक शंकर ने अद्वैत साधना की और अद्वैत तत्व में पारंगत हो गये। वहाँ से वे काशी आये और मणिकर्णिका घाट पर आसन जमाकर अपने अद्वैत सिद्धांत का प्रवचन करने लगे। एक अल्पव्यस्क यति की ऐसी बड़ी ही रहस्य एवं प्रगल्भ वाणी को सुनकर विद्वत्मण्डली आनन्द से गदगद हो उठी, वहीं काशी के पंडितों में खलबली मच गई। काशी में ही शंकर के प्रथम शिष्य सनन्दन ने दीक्षा ली थी। काशी में अपने विद्वत्बल का संतुलन कर लेने के पश्चात् शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र पर भाष्य बनाने का मन बनाकर व्यासाश्रम की ओर प्रस्थान किया। अपनी शिष्यमण्डली के साथ उत्तराखण्ड की ओर जाते हुए इन्हें पता चला कि हृषिकेश तक समूचा उत्तराखण्ड चीनी डाकूओं के भय से आक्रान्त है तथा इन चीनी डाकूओं के आतंक से भगवान यज्ञेश्वर विष्णु की मूर्ति गंगा में डाल दी गई थी। शंकर ने यज्ञेश्वर विष्णु की मूर्ति का उद्धार किया फिर वे बद्रीनाथ की ओर चले।
इस समय यह उत्तराखण्ड उत्तर भारत से विच्छिन्न था तथा चीन और तिब्बत की सीमाओं से प्रभावित था। सर्वत्र चीनी डाकूओं के झुण्ड के झुण्ड घूमते थे और यात्रियों तथा गांवों को लूटते रहते थे। शंकर जब बद्रीनाथ क्षेत्र पहुंचे तो इन्हें ज्ञात हुआ कि डाकूओं ने मन्दिर को नष्ट कर दिया है और पुजारियों ने मूर्ति को नारद कुण्ड में छुपा रखा है तो मूर्ति को नारदकुण्ड से निकालकर शंकर ने मूल मन्दिर में प्रतिष्ठा की और स्वजातीय एक नम्बूदरि ब्राह्मण को उसकी पूजा- अर्चना के लिए नियुक्त किया। उसी ब्राह्मण के वंशधर आज तक बद्रीनाथ भगवान के पुजारी होते चले आये हैं तथा वे रावल कहलाते हैं। इसके पश्चात् शंकर बद्रीनाथ के उत्तर में आगामी व्यास गुहा में जाकर रहने लगे। अगम्य व्यास गुहा में ही चार वर्ष तक रहकर ब्रह्मसूत्र, गीता, उपनिषद तथा सनत्सजातीय पर अपने भाष्य रचे तथा शिष्यों को उन्हें पढ़ाया। उनका शिष्य सनन्दन बड़ा ही प्रतिभाशाली था। शंकर ने अपना भाष्य उसे तीन बार पढ़ाया और उसकी सेवा से प्रसन्न होकर उसका नाम पादपद्म रखा। आगे चलकर सनन्दन का वही नाम प्रसिद्ध हो गया। चार वर्षों के दौरान वहीं पर व्यासगुहा में ही रहकर प्रस्थानत्रयी पर भाष्य रचा और शिष्यों को पढ़ाकर वे केदारक्षेत्र आये। केदारक्षेत्र में शंकर ने तप्तकुण्ड का आविष्कार किया। फिर वे कुछ दिन गंगोत्री में रहे। तत्पश्चात वे उत्तरकाशी चले गए। इस समय तक शंकर का नाम तथा यश सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में फ़ैल चुका था तथा बड़े- बड़े पंडित दूर- दूर देशस्थ जो वहाँ पहुंचते थे, उनसे वाद- विवाद और शास्त्रार्थ किया करते थे। इस समय उत्तर भारत में दो कथित महान पंडित वेदोद्धारक कुमारिल भट्ट और खण्डन मिश्र उपस्थित थे। शंकर ने उन दोनों की बहुत नाम और कीर्ति सुनी थी। अतः शास्त्रार्थ में पराजित कर उन दोनों को अपना अनुगत शिष्य बनाने की कामना से शंकर उत्तराखण्ड से यमुना के किनारे- किनारे प्रयाग आ पहुंचे।
कुमारिल भट्ट महान पंडित एवं संपन्न गृहस्थ थे। उनके पास अनेक धान के खेत थे। पाँच सौ दासियाँ थीं। बड़े- बड़े राजाओं ने उन्हें जागीर और जायदाद प्रदान की थी। कहा जाता है कि कुमारिल भट्ट ने नालन्दा के पीठस्थविर महाप्रज्ञ धर्मपाल, जो कि प्रसिद्ध विज्ञानवादी, योगाचार और शून्यवाद के दिग्गज आचार्य थे, जिन्होंने बसुबन्ध के योगाचार पर विज्ञप्तिमात्रता सिद्धिव्याख्या और आर्यदेव के शून्यवाद पर शत्शास्त्र वैषुल्य भाष्य लिखा था, से छद्मवेष में बौद्धागम पढ़ा था। पीछे कुमारिल ने इन्हीं धर्मपाल को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। कुमारिल ने शबर स्वामी के मीमांसा भाष्य पर टिका लिखी थी, जो वार्तिक के नाम से प्रसिद्ध है। इस मीमांसा में कुमारिल ने धर्म प्रामाण्य की सूक्ष्म छान- बीनकर वेदों का स्वतः प्रामाण्य भारी परिष्कार से सिद्ध किया था। कुमारिल ने धर्म शास्त्र निर्णय की ऐसी पद्धति निकाली थी कि जिससे बारह सौ वर्षों तक पंडितगण उसी पद्धति से धर्म व्यवस्था करते रहे। सम्प्पूर्ण उत्तराखण्ड में कुमारिल की तूती बोल रही थी और वे वैदिक यज्ञ मार्ग और स्मार्त गृहस्थ धर्म को पुनर्जीवित करने में भागीरथ प्रयत्न कर रहे थे। इसी कारण शंकर ने कुमारिल को अपने प्रभाव में लाने की इच्छा की थी। ब्रह्मसूत्र पर भाष्य उन्होंने रचा ही था उनका विचार था कि कोई असाधारण दिग्गज विद्वान उस पर वार्तिक लिखे। इस समय कुमारिल से बढ़कर महापंडित उनके दिमाघ में तथा सत्य में ही कोई दूसरा भारत में नहीं था। उतरकाशी से चलकर जब शंकर प्रयाग पहुंचे तो उन्होंने देखा कि कुमारिल तुषाग्नि में जलकर अपने शरीर को भष्म कर प्रायश्चित कर रहे थे। इतने बड़े मीमांसक को इस प्रकार शरीरान्त करते देख शंकर को बड़ा ही दुःख हुआ। शंकराचार्य की कुमारिल से बहुत कम ही बात हुई। कुमारिल ने शंकराचार्य को मंडन मिश्र को अपना अनुयायी बनाने की सलाह दी।
शंकर जब उत्तरकाशी में आये तब उनकी मुठभेड़ काशी के धुरन्धर पंडित मण्डन मिश्र से हुई जो पूर्वमीमांसा वादी थे। मण्डन मिश्र और उनकी पत्नी उभय भारती दोनों बड़े ही वाग्मी थे, परन्तु शंकर ने उन्हें शास्त्रार्थ में हराकर सन्यासी बना लिया। उनका नाम सुरेश्वर रखा और उन्हें साथ ले वे श्रृंगेरी पहुंचे तथा वहाँ मठ की स्थापना की और उसे अद्वैत प्रचार का प्रधान अड्डा बनाया। श्रृंगेरी मठ में शंकर ने अपने शिष्यों से अपने भाष्य पर वार्तिक लिखवाया। अब शंकर की मण्डली में बड़े- बड़े दिग्गज विद्वान पंडित थे उनके चौदह प्रमुख शिष्यों में से पाँच सन्यासी थे। चार पटशिष्य थे- सुरेश्वराचार्य (मण्डन मिश्र), पद्मपादचारी (सनन्दन), हस्तामलकाचार्य और तोरकचार्य। अपने चारों शिष्यों को शंकर ने चारों दिशाओं में पीठ स्थापित काके उन्हें पीठाधीश्वर बनाया। इनमें ज्योतिर्मठ (जोशीमठ) बद्रिकाश्रम में, गोवर्द्धन मत जग्गनाथ पुरी में, शतदा मत द्वारकापुरी में तथा श्रृंगेरी मत रामेश्वरम दक्षिण में स्थित हैं । इन मठों का अधिकार क्षेत्र भी आचार्य ने निश्चित कर दिया। भारत का उतरी और मध्य भू-भाग ज्योतिर्मठ के शासनाधीन, पश्चिमी भाग द्वारका स्थित शारदा मत के शासन में, दक्षिणी भाग श्रृंगेरी मत तथा पूर्वी भाग गोवर्द्धन मत के अंतर्गत किये। इन मठों में जो चार शिष्य पीठाधिप नियुक्त किये गये वे भी नियम से बनाये गये। वैदिक सम्प्रदाय में वेदों का सम्बन्ध भिन्न-भिन्न दिशाओं से माना गया है। ऋग्वेद का सम्बन्ध पूर्व दिशा से, यजुर्वेद का सम्बन्ध दक्षिण से , सामवेद का पश्चिम तथा अथर्व का उत्तर से। यज्ञ पात्रों में भी इसी नियम से पुरोहित उर्ध्वयु बैठते हैं। जिस शिष्य का जो वेद था, उसकी नियुक्ति उसी दिशा में की गई। पद्मनाभ ऋग्वेदी काश्यप गोत्री ब्राह्मण था, उसकी नियुक्ति पूर्व दिशा में गोवर्द्धन मठ की, सुरेश्वराचार्य शुक्ल यजुर्वेद की कण्व शाखा के ब्राह्मण थे उन्हें दक्षिण की श्रृंगेरी मत की हस्तामलक को सामवेदी को पश्चिम के शारदा मठ की तथा तोरक अथर्ववेदी को उतराखण्ड के ज्योतिर्मठ की गद्दी सौंपी ।
अद्वैत मत के साथ आम्नाय हैं । प्रत्येक आम्नाय के साम्प्रदय मठ, अंकित नाम, क्षेत्र, देव-देवी, आचार्य, तीर्थ, ब्रह्मचारी,वेद-महाकाव्य, स्थान- गोत्र, शासनाधीन देश के नाम भिन्न –भिन्न नियत कर दिए गये । मठाधीशों के लिए शंकर ने बड़े ही कड़े नियम बनाये । मठाधीश सदा अपने क्षेत्रों में भ्रमण किया करें, मठ में स्थिर न बैठें तथा एक मठ का अधीश्वर दुसरे क्षेत्र में न जाएँ । मठाधीशों के लिए ये आदेश महानुशासन के नाम से प्रसिद्ध हैं । यह भी था कि मठाधीश अयोग्य हो तो उसे गद्दी से उतारा जा सकता था –
उक्त लक्ष्ण सम्पन्नः स्पाच्येत्मत्पीठ भाग्भवेत् ।
अन्यथा रूढ़ पीठोऽपि निग्रहार्हो मनीषिणाम् । ।
उत्तराखण्ड के ज्योतिर्मठ की गद्दी पर बैठे तोरकाचार्य का प्रसिद्ध नाम आनन्दगिरि था। तोरकाचार्य के विषय में कहा है-
तोरकेचानन्द गिरि प्राग्यामि जगद्गुरुम ।
इनकी गुरु सेवा अद्वितीय थी। अतः आचार्य भी इन्हें बहुत मानते थे। एक बार ये अपना कोपीन धोने तुंगभद्रा में गये थे, तब इनकी प्रतीक्षा में शंकर ने पाठ बन्द रखा। जब इन्हें गुरु के इस कृपा का पता चला तो इन्होने तोरक छन्द में इनकी स्तुति की तभी से इनका नाम तोरकाचार्य प्रसिद्ध हुआ। उतराखण्ड के ज्योतिर्मठ की बड़ी महिमा गाई गई है ।
अन्त में शंकर कश्मीर पर सर्वज्ञ पीठ पर अधिरोहण किया। तत्पश्चात पुनः बद्रीनाथ गये। कुछ दिन बद्रीनाथ में व्यतीत कर शंकर दत्तात्रेय की गुहा में उनके साथ रहे। फिर नेपाल की यात्रा कर कैलाश चले गये और वहीँ उन्होंने अपना नश्वर शरीर त्यागा। इस प्रकार दक्षिण में उत्पन्न यह धर्माचार्य अपने धर्म को सुदूर उत्तराखण्ड में आरोपित कर वहीँ अन्तर्ध्यान हो गया । उन्होंने केवल बतीस वर्ष की अल्पायु पाई और इसी में दक्षिण से लेकर उत्तर तक उनके नाम व धर्म का डंका बज उठा ।
शंकराचार्य बड़े प्रतिभाशाली पुरुष थे। उनकी बौद्धिक तथा मानसिक स्थिति अत्यंत श्रेष्ठ थी। उन्होंने अपने काल तक के सारे परम्परा से प्राप्त तत्व ज्ञान और विचार सम्प्रदाय बुद्धि की कसौटी पर कस डाले थे। शंकर ने शैवों, वैष्णवों का एकेश्वरवाद एवं सर्वेश्वरवाद , कणाद और नैयायिक का परमाणुवाद, सांख्यों का जड़- प्रकृतिवाद , बौद्धों का क्षणिकवाद तथा विज्ञानं और जैनियों का अनेकान्तवाद , चार्वाकों का देहात्मवाद और योगियों का योगदर्शन आदि विचारधाराओं का अनुपम तर्क दृष्टि से साधा था । उन्होंने यह भी प्रकट किया कि उनका ब्रह्मवाद भी मानव बुद्धि से नहीं तर्क से ही सिद्ध है । शंकर ने कहा कि बुद्धि से आत्मा और पुनर्जन्म का निर्णय नहीं हो सकता । सारे मानवी विचार जीवन और विश्व सम्बन्धी खोज करने से कुंठित हो जाते हैं। चूँकि वस्तु अनिवर्चनीय है, वह आस्ति नास्ति कुछ भी नहीं है, इसलिए वह मिथ्या है। वस्तु विषयक अगतिकता ही पर उनका मायावाद स्थापत हुआ, परन्तु श्रुति के प्रामाण्य को माने बिना वस्तु का मिथ्यात्व सिद्ध नहीं हो सकता था । श्रुति ने कहा है- ब्रह्म ही सत्य है, अतः जगत मिथ्या है – यह उन्होंने स्थापित किया । इस प्रकार शंकर का मायावाद अगतिकता के कारण कुंठित बुद्धि का फल है । यह ब्रह्मवाद या मायावाद बुद्धि की समीक्षक प्रणाली से सिद्ध नहीं किया जा सकता था । इसी से शंकर ने श्रुति प्रमाण का आश्रय लिया। यद्यपि शंकराचार्य दक्षिण से शैव संप्रदाय के सन्यासी होकर परन्तु उन्होंने पाशुपत मत का भी खण्डन किया तथा शिवलिंग पूजन का विरोध किया, जो तंत्रमूलक था। तत्कालीन पाशुपत आम्नाय के शिरोमणि आचार्य नीलकंठ को उन्होंने शास्त्रार्थ में पराजित किया। शंकर ने छान्दोग्योपनिषद के त्वमसि वाक्य से अद्वैत सिद्धांत स्थापित किया। इसके अनुसार जीव व ब्रह्म की एकता सिद्ध की। शंकर के धर्म सिद्धान्त का निष्कर्ष यह था कि जीवात्मा की सता व्यवहारिक मात्र है। प्रकृति का शुद्ध रूप बुद्धि है तथा शुद्ध बुद्धिग्राही है। सो वह परमात्मा प्रतिविम्ब ग्रहण कर जीवात्मा का रूप बनाती है। यह जीवात्मा अविद्या के कारण अपने को परमात्मा से पृथक मानता है और अपने विचारों के अनुसार शरीर पाकर पुनर्जन्म पाता हुआ जब सुकर्मों द्वारा अविद्या से दूर हो जाता है, तब जल में जल की भाँति परमात्मा से अभिन्न हो जाता है । शंकर ने प्रकृति को व्यावहारिक सता मानकर संसारोत्पादन के परिणामवाद के विवर्तवाद के रूप में वर्णन किया और मायावाद सिद्धान्त स्थापित किया।
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