स्त्रीधन
-प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
विवाह के समय कन्या का पूजन होता है। अतः विदाई के समय कन्या को जो कुछ दिया जाता है, वह वस्तुतः कन्या पूजन रूपी यज्ञ की दक्षिणा ही है। किसी भी रूप में वह वर पक्ष को दिया जाने वाला कोई शुल्क नहीं है। क्योंकि वर पक्ष को तो कन्या का दान ही मिलता है। अतः शुल्क यदि किसी को देना पड़े तो वर पक्ष को ही देना पड़ेगा। परन्तु धर्मशास्त्रकारों ने कन्या के दान के बदले में किसी भी प्रकार का शुल्क लेने को निंदनीय पाप माना है। यह ऊपर चर्चा हो चुकी है। अतः ऐसी स्थिति में विवाह के उपरांत जो कुछ उपहार दिये जाते हैं, वे कन्या दान रूपी यज्ञकर्म की दक्षिणा ही है। उस पर वस्तुतः कन्या का ही अधिकार होना चाहिय.े। मनु ने स्पष्ट कहा है कि कन्या को जो कुछ भी धन सम्पत्ति, मूल्यवान वस्त्र, वाहन आदि धन मिले वह सब स्त्रीधन है। जो लोग पति के नहीं रहने पर धन के मोहवश उस स्त्रीधन के बल पर ही जीना चाहते हैं, वे पापी हैं और उनकी अधोगति होती है:-
स्त्रीधनानि तु ये मोहादुपजीवन्ति बान्धवाः।
नारीयानानि वस्त्रं वा ते पापाः यान्त्यधोगतिम्।। (मनुस्मृति अध्याय 3, श्लोक 52)
वस्तुतः ऋग्वेद में दशम् मण्डल के दो मंत्रों में सूर्या की वधू भेंट और पशु आदि उपहार में दिये जाने का वर्णन है। अथर्ववेद में भी वे ही मंत्र हैं। ‘वहतुः’ का सायण ने भाष्य किया है - गाय एवं अन्य पदार्थ जो विवाहित होने वाली कन्या को प्रसन्न करने के लिये दिये जाते हैं। मनु ने अध्याय 9, श्लोक 11 में इसके लिये पारिणह्य शब्द का प्रयोग किया है जो घर में उपयोग में आने वाली सभी वस्तुओं के लिये हैं। आपस्तम्ब धर्मसूत्र में कहा गया है कि कन्या अपने साथ अपने पिता, भाई आदि ज्ञातियों से जो कुछ पाती है और ससुराल में लाती है, वह सब स्त्री की सम्पत्ति है। यद्यपि बौधायन धर्मसूत्र का कहना है कि कन्या को अपनी माता से मिले आभूषण आदि ही उसकी अपनी सम्पत्ति हैं। परन्तु शंख स्मृति का कहना है कि आठ में से जिस प्रकार से भी विवाह हो, सभी प्रकारों में विवाह के साथ कन्या को आभूषण और स्त्रीधन अवश्य ही देना चाहिये।
चाणक्य ने स्त्रीधन की परिभाषा दी है - अर्थशास्त्र के अधिकरण 3 के द्वितीय अध्याय में लिखा है -
वृत्तिराबन्ध्यं वा स्त्रीधनम्।।16।। परद्विसाहस्रा स्थाप्या वृत्तिः।।17।। आबध्यानियमः।।18।। तदात्मपुत्रस्नुषाभर्मणि प्रवासाप्रतिविधाने च भार्याया भोक्तुमदोषः।।19।। प्रतिरोधकव्याधि-दुर्भिक्षभयप्रतीकारे धर्मकार्ये च पत्युः।।20।। सम्भूय वा दम्पत्योर्मिथुनं प्रजातयोस्रिवर्षोपभुक्तं च धर्मिष्ठेषु विवाहेषु नानुयंुजीत।।21।। गान्धर्वासुरोपभुक्तं सवृद्धिकमुभयं दाप्येत।।22।। राक्षसपैशाचोपभुक्तं स्तेयं दद्यात्।।23।। इति विवाहधर्मः।।24।।
अर्थात् जो वर की ओर से कन्या को दिया जाता है, वस्त्र-आभूषण आदि, वह सब स्त्रीधन कहलाता है। यह दो प्रकार का होता है। जीवन वृत्ति एवं आबध्य अर्थात् जो कुछ भी आभूषण आदि शरीर में बांधा जा सके। वृत्ति का अर्थ है नगद धन। जिसकी प्रतिवर्ष दी जाने वाली नगद धन की सीमा चाणक्य के समय चांदी के दो हजार सिक्के रखे गये थे। आबध्य की कोई सीमा नहीं है। क्योंकि कितने भी वस्त्र और आभूषण दिये गये हों वे सब स्त्रीधन है। अगर पति प्रवास पर गया हो और कोई प्रबंध न कर पाया हो तो स्त्री अपने धन का उपयोग पुत्र और पुत्रवधू के पालन-पोषण के लिये कर सकती है। कोई विपत्ति उपस्थित हो तो पत्नी की सहमति से पति भी स्त्रीधन में से कुछ व्यय कर सकता है या दो बच्चे उत्पन्न हो जाने के बाद पति-पत्नी मिल कर उस धन का कोई उपयोग कर सकते हैं। परन्तु यदि गांधर्व और आसुर विवाह हो तो पति को कोई भी स्त्रीधन व्यय करने का अधिकार नहीं है। खर्च करने पर ब्याज सहित धनराशि जमा करनी पड़ेगी। अगर वे जमा नहीं करते तो उन्हें चोरी का दंड मिलेगा। यह विवाह धर्म है।
आगे चाणक्य ने कहा है कि यदि पति मर जाये और पत्नी दूसरा विवाह न करना चाहे अपितु धर्ममय जीवन ही उसी घर में जीना चाहे तो वह उस धन को अपनी इच्छा अनुसार व्यय कर सकती है। यदि किसी समय बंधु-बांधवों ने वह धन उससे मांगा हो तो उन्हें वह धन उसे वापस कर देना चाहिये। विशेषकर यदि स्त्री पुनर्विवाह करना चाहती है तो उसे स्त्रीधन मिलेगा परंतु पति का दाय भाग नहीं मिलेगा। अन्यथा यदि वह उसी घर में रह कर धर्म कार्य करना चाहती है तो स्त्रीधन तो उसका है ही और उसकी स्वामिनी वह ही है, साथ ही उसे पति का दायभाग यानी संपत्ति में हिस्सा भी मिलेगा। अगर स्त्री की मृत्यु हो जाती है तो उस स्त्रीधन को पुत्र और पुत्री आपस में बांट सकते हैं। पुत्र न हो तो पुत्रियां ही उस धन की स्वामिनी होंगी।
गौतम ने स्त्रीधन के विषय में तीन सूत्र दिये हैं। परंतु उनका विस्तृत विवेचन वहां नहीं है। कात्यायन स्मृति का कथन है कि स्त्री को नगद स्त्रीधन तो दिया जाना चाहिये परंतु अचल सम्पत्ति नहीं दी जानी चाहिये। मनु का कहना है कि (1) विवाह के समय विवाह के समय अग्नि की साक्षी में जो कुछ भी माता-पिता और बंधु-बांधवों द्वारा दिया जाये या (2) पिता के घर से पतिगृह जाती हुई कन्या के लिये जो कुछ भी दिया जाये अथवा (3) किसी भी प्रीतिकर्म के समय पति द्वारा जो कुछ भी दिया जाये या (4) पिता के द्वारा जो कुछ भी विभिन्न अवसरों पर दिया जाय (5) माता के द्वारा जो कुछ भी विभिन्न अवसरों पर दिया जाय (6) भाई के द्वारा जो कुछ भी विभिन्न अवसरों पर दिया जाये, ये छः प्रकार के धन स्त्रीधन कहे गये हैं:-
अध्यग्न्यध्यावाहनिकं दत्तं च प्रीतिकर्मणि।
भ्रातृमातृपितृप्राप्तं षड्विधं स्त्रीधनं स्मृतम्।। (मनुस्मृति अध्याय 9, श्लोक 194)
इसके साथ ही मनु ने यह भी स्पष्ट किया है कि विवाह के बाद पति कुल में या पिता के कुल में जो कुछ भी भेंट आदि स्त्री को दी जाये, जिसे अन्वाधेय (अर्थात् बाद में मिलने वाली भेंट) कहते हैं, उस पर भी स्त्री का ही अधिकार रहता है और स्त्री के नहीं रहने पर पति यदि जीवित भी हो तो भी उस धन पर अधिकार पुत्रों और पुत्रियों का रहता है ना कि पति का। यदि स्त्री संतानहीन हो तो फिर समस्त स्त्रीधन के अधिकारी स्त्री की मृत्यु के बाद उसके पति ही होते हैं।
कात्यायन ने 27 श्लोकों में स्त्रीधन का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। प्रत्येक प्रकार के स्त्रीधन को उन्होंने अलग-अलग नामों से निर्देशित किया है। ‘‘विवाह के समय अग्नि के समक्ष जो दिया जाता है उसे बुद्धिमान् लोग अध्यग्नि स्त्रीधन कहते हैं। पति के घर जाते समय जो कुछ स्त्री पिता के घर से पाती है उसे अध्यावहनिक स्त्रीधन कहा जाता है। श्वसुर या सास द्वारा स्नेह से जो कुछ दिया जाता है और श्रेष्ठ जनों को वन्दन करते समय उनके द्वारा जो कुछ प्राप्त होता है उसे प्रीतिदत्त स्त्रीधन कहा जाता है। वह शुल्क कहलाता है जो बरतनों, भारवाही पशुओं, दुधारू पशुओं, आभूषणांे एवं दासों के मूल्य के रूप में प्राप्त होता है। विवाहोपरान्त पति-कुल एवं पितृ-कुल के बन्धु-जनों से जो कुछ प्राप्त होता है वह अन्वाधेय स्त्रीधन कहलाता है। भृगु के मत से स्नेहवश जो कुछ पति या माता-पिता से प्राप्त होता है वह अन्वाधेय कहलाता है।’’ कात्यायन द्वारा प्रस्तुत अध्यग्नि एवं अध्यावहनिक की परिभाषाओं में वे भेंटें भी सम्मिलित हैं जो विवाह के समय आगन्तुकों द्वारा प्रदत्त होती हैं। वह सौदायिक कहा जाता है जो विवाहित स्त्री या कुमारी को अपने पिता या पति के घर में मिल जाता है या भाई से या माता-पिता से प्राप्त होता है।
कात्यायन की उपर्युक्त परिभाषाएँ सभी निबन्धकारों को मान्य हैं। यहाँ तक कि दायभाग ने भी उनका अनुमोदन किया है। -प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
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