बिहार के अजूबे विश्वविद्यालय एवं महाविद्यालय ,जानिए क्यों ?
||| कुव्यवस्था , अराजकता और अनियमितता का पर्याय बना बिहार का उच्च शिक्षा , राजभवन शिक्षा माफिया के गिरफ्त में , सर्च कमिटी योग्य कुलपति के चयन में असफल, कुलपतियों की नियुक्ति में करोड़ों का खेल |||
बिहार विधान सभा से पारित निजी विश्वविद्यालय स्थापना सम्बन्धी विधेयक द्वारा प्रशस्त प्रस्तावित पांच नये विश्वविद्यालयों के अस्तित्व में आ जाने के बाद यह आशा की जा रही है कि राज्य में मेडिकल, इंजीनियरिंग, मैनेजमेन्ट समेत वोकेशनल व सामान्य कोर्स की प़ढाई को उ़डान मिलेगी और राज्य सरकार 2020 तक अपने निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर होगी.
शिक्षा प्रणाली के नीतिकारों को इस बात की खुशी है कि पर्याप्त उच्च शिक्षण संस्थाओं की कमी झेल रहे बिहार में प्रस्तावित सीवी रमण विश्वविद्यालय वैशाली, जागेश्वरी मेमोरियल विश्वविद्यालय मुजफ्फरपुर, संदीव यूनिवर्सिटी मधुबनी, अल करीम यूनिवर्सिटी कटिहार और केके यूनिवर्सिटी नालंदा की विधिवत स्थापना के बाद विश्वविद्यालयों की कुल संख्या 26 हो जायेगी.
इनमें 14 राज्य विश्वविद्यालय, 7 केन्द्रीय विश्वविद्यालय और 5 निजी विश्वविद्यालय होंगे. लेकिन क्या संख्यात्मक दृष्टि से होने वाली प्रगति बिहार के उच्च शिक्षा जगत में परिव्याप्त नैराश्यपूर्ण वातावरण को समाप्त कर पायेगी ?
राष्ट्रीय स्तर पर उच्च शिक्षा की गुणवत्ता, विस्तार और वास्तविकता को मापने के लिए 2011 में स्थापित अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वेक्षण रिर्पोट में दस करो़ड की आबादी वाले बिहार को अंतिम पायदान पर रखा
गया है.
आंक़डे बताते हैं कि बिहार के 38 जिलों में 25 जिले शैक्षणिक दृष्टि से पिछ़डे हैं. लम्बे समय से उच्च शिक्षा की अनवरत उपेक्षा का परिणाम यह निकला है कि अठारह वर्ष से लेकर 23 वर्ष के आयुवर्ग वाले इच्छुक एवं योग्य शिक्षार्थियों के लिए बिहार में प्रति एक लाख जनसंख्या पर मात्र छह महाविद्यालय हैं. जबकि मौजूदा दौर में राष्ट्रीय औसत प्रति एक लाख छात्रों पर 26 महाविद्यालयों का है.
शिक्षण, प्रशिक्षण और शोध कार्य को उत्कृष्टता के सर्वोच्च शिखर तक पहुंचाने के उद्देश्य से 1952 में स्थापित बिहार विश्वविद्यालय में शोध व अनुसंधान कार्यों की दशा सर्वाधिक दयनीय है. विगत वर्ष विश्वविद्यालय के मूल्यांकन हेतु आई नैक टीम के सदस्यों के लिए वह क्षण मानसिक आघात से कम न था, जब इन्हें पता चला कि विश्वविद्यालय के 150 शिक्षक 1260 शोधार्थियों का मार्गदर्शन कर रहे हैं.
अपारदर्शिता, अराजकता और भ्रष्टाचार का आलम यह है कि विश्वविधालय के पीएचडी सेक्शन को आज यह भी पता नहीं कि शोध-कार्य के निदेशन में लगे शिक्षकों के अधीन कितने शोधार्थी काम कर रहे हैं और वर्ष 2003 में पीएचडी करने वालों की गायब फाइलों का क्या हुआ. गौरतलब है कि 2013 में तैयार की गई एक सूची से पहली बार यह पता चला था कि नियमों की खुलेआम अनदेखी करते हुए कई प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और असिस्टेंट प्रोफेसर निश्चित संख्या से अधिक शोधार्थियों को अपने अधीन पंजीकृत करवा चुके थे.
विश्वविद्यालय के कतिपय रसूखदार शिक्षकों के अधीन पीएचडी प्रोडक्शन की इन्डस्ट्री चल रही है. इनके सम्पर्क सूत्र बिहार झारखण्ड सहित नेपाल और उत्तर-पूर्व के राज्यों तक फैले हैं. स्थिति इतनी भयावह हो चुकी है कि यह विश्वविद्यालय शोधार्थियों की बढ़ती भीड़ को संभालने में अब अपने आप को अक्षम पा रहा है.
विश्वविद्यालय की शैक्षणिक गुणवत्ता का आलम यह है कि यहां न तो पाठ्यक्रम में समयानुसार अपेक्षित बदलाव हुआ है और न कोई ऐेकेडमिक कैलेण्डर हीं तैयार हो सका है. विश्वविद्यालय तीन वर्ष में हीं छात्रों को चार साल वाले कोर्स की डिग्री देकर इन्हें जगहंसाई का पात्र बना रहा है.
विश्वविद्यालय मुख्यालय स्थित रामदयालु सिंह कालेज में नामांकित बैचलर ऑफ फिशरीज साइंस के छात्रों को वर्ष 1996 से ही ऐसी डिग्री दी जा रही है, जो यूजीसी के मापदंड पर खरा नहीं उतरती और परिणामत: ऐसे छात्रों को डिप्लोमा धारक ही माना जाता है.
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के स्पष्ट दिशा-निर्देश के बावजूद अभी तक स्नातक स्तर पर सेमेस्टर सिस्टम को लागू नहीं करना बिहार विश्वविद्यालय की कार्यशैली और प्राथमिकताओं के निर्धारण के मापदंडों को दर्शाता है.
बी आर ए बिहार विश्वविद्यालय की वित्तीय दशा तो बेहद खराब है. यहां के पदाधिकारियों को न तो यह पता है कि गैर मद कोष का विचलन और खर्च गंभीर अनुशासनहीनता की कोटी में आता है और न इसका ज्ञान है कि कब और कहां से किस-किस मद में कितनी राशि प्राप्त हुई है.
महालेखाकार के हालिया रिर्पोट से यह स्पष्ट हो चुका है कि विश्वविद्यालय के अधिकारियों की सांठ-गांठ से तकरीबन 45 करो़ड रुपयों का खुलकर दुरूपयोग हुआ है. सीएजी रिपोर्ट के अनुसार विश्वविद्यालय पुस्तकालय में पुस्तक क्रय, परीक्षा हेतु उत्तर-पुस्तिकाओं की आपूर्ति, विश्वविद्यालय कर्मचारियों के अग्रिम समायोजन, प्रयोगशालाओं के उत्क्रमण अपग्रेडेशन, कम्प्यूटरीकरण, महिला छात्रावास निर्माण, कैंटीन-निर्माण, खेल-कूद सामग्री की खरीद तथा स्नात्तकोत्तर विभागों के फेस लिफ्टिंग के नाम पर उच्च पदस्त अधिकारियों ने संवेदकों को नाजायज ढंग से वित्तीय लाभ पहुंचाया.
इतना हीं नहीं मशीन क्रय पर दस लाख रुपये के निरर्थक खर्च, यूजीसी के द्वारा प्रदत्त 1.74 करो़ड की अतिरिक्त अनुदान राशि को प्राप्त करने में बरती गई शिथिलता, स्पोर्ट काउंसिल के खाते से 11.25 लाख का भुगतान, अल्पाहार मद में 8.66 लाख रुपये का अनियमित भुगतान और परीक्षा निधि से 5.14 करो़ड की राशि का विचलन जैसी वित्तीय अनियमितताओं ने विश्वविद्यालय की सम्पूर्ण आर्थिक दशा न्यूनतम बिंदु तक पहुंचा दिया है, जहां से इसका पुनर्जीविकरण शायद असंभव है. स्थिति की भयावहता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि विगत छह माह से किसी न किसी बहाने शिक्षकों के मूल्यांकन बिल, टेबुलेशन की पारिश्रमिक तथा परीक्षा के आयोजन पर हुए खर्च के बिलों का भुगतान लगभग रुका हुआ है.
बिहार के विश्वविद्यालय एवं महाविद्यालयों के अनियमितताओं की झांकी
■ लेखांकन :
- कृषि विश्व विश्व विश्वविद्यालय द्वारा बिहार विश्वविद्यालय अधिनियम के साथ-साथ विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के प्रावधान के अनुरूप रोकड़ बही , लेजर , वाउचर , फाइल्स आदि मूल दस्तावेज का संधारण नहीं किया गया है और न किया जा रहा है l
- ' संपत्ति रजिस्टर ' प्रारंभ से ही संधारण नहीं किया गया है जिससे यह मालूम ही नहीं होता है विश्वविद्यालय के संपत्ति क्या क्या है ?? और कहां कहां है ??
- किसको कब अग्रिम / या लोन दिया और उसकी कटौती कब कब होनी है , समायोजन होता ही नहीं l
- वेतन खाता संपूर्ण रूप से संदिग्ध बनी हुई है l कौन - क्या पे स्केल में वेतन ले रहा ? योग्यता क्या है ? उसका निर्धारण किस आधार पर हुआ ?
- विश्वविद्यालयों में तुलन पत्र , आर्थिक चिट्ठा , आय - व्यय विवरणी , प्राप्ति - भुगतान विवरणी आदि नहीं बनाने के कारण तथा वित्तीय सूचना के अभाव में विश्वविद्यालय की करोड़ों अरबों की विधि किसी दूसरे के जेब में पड़ा हुआ है l
- वेतन बकाया वेतन पेंशन आदि खाता में व्याप्त मनमानी है , योग्यता के बिना एसोसिएट व्याख्याता , रीडर प्रोफेसर बने l प्रिंसिपल बने हुए है , लाखों का वेतन ले रहे हैं l पैसे का खेल - कोर्ट को अंधेरे में रख , गलत वेतनमान में वेतन एवं बकाया वेतन आदि लेना l
- विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों द्वारा निर्धारित ढंग से रोकर बही एवं - खाता बही का संधारण न किया गया , न किया जा रहा है तथा बैंक के अकाउंट से रोकड़ बुक खाता बुक का कॉन्सिलिएशन नहीं होने के कारण न जाने बैंक और इनके बीच का अंतर होगा जो फ्रॉड भी हो सकता है l
- यूजीसी को उपयोगिता प्रमाण पत्र लगभग सारी विश्वविद्यालय द्वारा नहीं दिया गया l कारण जो भी कार्य यूजीसी के द्वारा करना था , हेराफेरी,लूटपाट हो गई और काम पूर्ण नहीं हो पाया l यूजीसी के मापदंड के अनुसार , उनके लिए अलग-अलग खाता खोला जाता है , बैंकों में लेकिन विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों ने ऐसा नहीं किया l
- विश्वविद्यालयों में अवकाश प्राप्त अधिकारी वित्तीय सलाहकार एवं वित्त अधिकारी होते हैं l यह दोनों रिटायर्ड , इन्हें डबल एंट्री अकाउंट सिस्टम का ज्ञान नहीं होता है यह लोग एजी और सीएजी के स्टाफ होते हैं और इस कारण होने के बाद बैठे रहते हैं , कुछ काम नहीं करते हैं l काम सब वित्त अधिकारी एक्टिव रहता है क्योंकि वह पैसों के लेनदेन के आधार पर उल्टा - सीधा पेमेंट करता है l सबसे बड़ी यही समस्या है l चार्टर्ड अकाउंटेंट की नियुक्ति करनी होगी l
■ अंकेक्षण [ AUDIT ]
यह घोर आश्चर्यजनक लगता है कि बिहार के सारे विश्वविद्यालयों को का ' विश्वविद्यालय अधिनियम , 1976 के अनुसार अंकेक्षण प्रतिवेदन , आर्थिक चिट्ठा , प्राप्ति - भुगतान विवरण , विश्वविद्यालय का स्थापना काल से ही नहीं करवाया गया , कभी सिंडिकेट द्वारा किसी भी अंकेक्षक की नियुक्ति नहीं हुई l
कुछ छोटे-मोटे अकाउंटेंसी और टैक्सेशन के काम के लिए कुछ चार्टर्ड अकाउंटेंट की सेवा ली गई , लेकिन चार्टर्ड अकाउंटेंट की नियुक्ति पूरे विश्वविद्यालय के अंकेक्षण मेरे लिए कभी नहीं की गई l
- नियंत्रक एवं महालेखाकार भारत सरकार के द्वारा कभी कभार , किसी विश्वविद्यालय का है उसे कुछ काल अंकेक्षण करने पर ढेर सारी नियमितता / घोटालों का पर्दाफाश किया जाता रहा है , जैसे बांगी के लिए [ जेपी यूनिवर्सिटी , छपरा ] के बारे में भारत सरकार के महालेखाकार एवं नियंत्रण की टिप्पणी देखिए l
• 3.21 करोड़ अधिक सैलरी का भुगतान किया गया l
• 12 करोड़ आयकर ' रिफंड ' नहीं लिया गया जिससे सरकार को नुकसान हुआ l
- विश्वविद्यालय एवं महाविद्यालय द्वारा संवैधानिक रूप से निर्धारित कागजात एवं दस्तावेजों का संधारण नहीं किया गया l
- सिविल कार्य एवं विभिन्न खरीद के लिए निर्धारित प्रक्रियाओं का अनुपालन नहीं किया गया , मनमानी की गई 22 हजार के कंप्यूटर को 82 हजार में खरीदा गया मनमाना ट्रैवलिंग बनाया गया अवैध नियुक्तियां की गई आदि आदि l
- बिना खरीदे या सेवा लिए , जाली बिल बनाकर पैसे निकालना l बिना स्टाफ के वेतन आदि के नाम पर पैसा निकालना l
- विश्वविद्यालय महाविद्यालयों में अयोग्य अधिकारी एवं कर्मचारी है जिनमें क्षमता का अभाव l
- आंतरिक निगरानी एवं नियंत्रण के अभाव में विश्वविद्यालयों में मनमानी चल रही है l कुलपतियों द्वारा आंतरिक अध्यक्ष के नाम पर अपने लोगों को रख लिया जाता है l
- कुलपति की क्रियाकलाप शैक्षणिक सुधार / गुणवत्ता आदि नहीं , वसूली और जेब भरने वाली होती है l कुलपतियों के योग्यता एवं कार्य क्षमता पर प्रश्नचिन्ह लगते रहे हैं l वाइस चांसलर सिर्फ वही काम करते हैं , जिसमें दो पैसा कमाने का स्कोप होता है l
■ शैक्षणिक स्थिति
संस्थागत समस्या है एक बड़ा कारण :
इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत के राज्यों में सर्वाधिक सरकारी कर्मचारियों की संख्या शिक्षा विभाग में ही देखने को मिलती है। इसमें भी शिक्षा के मोर्चे पर सामने तैनात रहने वाले (Frontline) अध्यापकों के अलावा हज़ारों अधिकारी और प्रशासक भी हैं जो हमारे शैक्षिक सेट-अप का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं। इसके बावजूद भारत आज़ादी के 72 वर्षों बाद भी शिक्षा के क्षेत्र में ठोस प्रयासों के बावजूद वांछित परिणाम हासिल नहीं कर पाया है और भारत का शिक्षा जगत अनेकानेक संस्थागत समस्याओं से प्रभावित है।
■ यूजीसी एवं रुसा से प्राप्त कोष की उपयोगिता नहीं :
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग एवं बिहार उच्चतर शिक्षा काउंसिल से प्राप्त है राशि का समुचित उपयोग नहीं किया गया l जयप्रकाश विश्वविद्यालय छपरा में यूजीसी कोष से मास्क लाइट एवं सोलर प्लेट के लिए प्राप्त धनराशि अनियमित रूप से खर्च किए गए , जिससे न तो
मास्क लाइट जला और न सोलर लाइट , जिससे यूजीसी के राशि की उपयोगिता नहीं हुई और यह मास्क लाइट और सोलर प्लेट शोभा की वस्तु बनकर रह गया है l बिहार के सारे विश्वविद्यालयों की यही स्थिति है , जिसके कारण ' विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ' ने विकास के लिए धनराशि उपलब्ध कराना बंद कर दिया है l
यूजीसी से प्राप्त राशि का कोई उपयोग नहीं हो रहा है यह राशि बैंक अकाउंट में सुरक्षित यूं ही पड़ा हुआ है l
सूत्रों से प्राप्त जानकारी के माध्यम से यह सूचना प्राप्त है कि अनुदान राशि का प्राचार्य के द्वारा निजी संपत्ति बनाया गया है l विगत 7 साल से रुसा का अंकेक्षण न होना दुर्भाग्यपूर्ण है , जो यह साबित करती है कि रूसा के प्रावधानों का अनुपालन नहीं हो रहा है और बिहार उच्च शिक्षा काउंसिल में , सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है l
■ प्रमुख समस्याएँ :
- हमारे देश का शिक्षा क्षेत्र शिक्षकों की कमी से सर्वाधिक प्रभावित है। UGC के अनुसार, कुल स्वीकृत शिक्षण पदों में से 35% प्रोफेसर के पद, 46% एसोसिएट प्रोफेसर के पद और 26% सहायक प्रोफेसर के पद रिक्त हैं।
- सरकारें भी शिक्षा के क्षेत्र में सुधार के लिये निरंतर प्रयास करती रहती हैं। लेकिन इसमें भी राज्यों द्वारा चलाए जाने वाले शिक्षा सुधार कार्यक्रमों के असफल हो जाने का जोखिम रहता है, क्योंकि वे परिवर्तन करते समय रोडमैप का अनुसरण नहीं करते और नीतियाँ बनाते समय सभी हितधारकों को भी ध्यान में नहीं रखा जाता। बिहार उच्च शिक्षा काउंसिल ( रुसा ) में थिंकटैंक एवं क्षमतावान शिक्षाविदों एवं अधिकारियों का अभाव
है l
- बिहार में उच्च शिक्षा में गुणवत्ता एक बहुत बड़ी चुनौती है। टॉप - रैंकिंग एक भी शिक्षण संस्थानों को जगह मिल पाती है।
- उच्च शिक्षा में नामांकन का एक बड़ा हिस्सा राज्य विश्वविद्यालयों और उनके संबद्ध कॉलेजों से आता है, जबकि इन राज्य विश्वविद्यालयों को अपेक्षाकृत बहुत कम अनुदान प्राप्त होता है। UGC के बजट का लगभग 65% केंद्रीय विश्वविद्यालयों और उनके कॉलेजों द्वारा उपयोग किया जाता है, जबकि राज्य विश्वविद्यालयों और उनके संबद्ध कॉलेजों को शेष 35% ही मिलता है।
- वर्तमान में विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में प्रोफेसरों की जवाबदेही और प्रदर्शन सुनिश्चित करने का कोई फॉर्मूला नहीं है। यह विदेशी विश्वविद्यालयों के विपरीत है, जहाँ फैकल्टी के प्रदर्शन का मूल्यांकन उनके साथियों और छात्रों के प्रदर्शन के आधार पर किया जाता है l
- बिहार की उच्च शिक्षा की बदहाली में शिक्षकों की कमी सबसे बड़ी समस्या है। वर्तमान में बिहार में उच्च शिक्षा की स्थिति ऐसी है कि अगर पचास विद्यार्थियों के लिए एक शिक्षक हों तो भी करीब 10000 शिक्षकों की बहाली विभिन्न विभागों में करनी होगी।
आइआइटी में 10 विद्यार्थियों पर एक शिक्षक होते हैं।
विश्वविद्यालयों में कम से कम 20 विद्यार्थियों पर एक शिक्षक होने चाहिए, पर बिहार में यदि 10 हजार अतिरिक्त शिक्षकों की बहाली होती भी है तो प्रति 50 विद्यार्थियों पर एक शिक्षक होंगे और तब भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की अपेक्षा नहीं की जा सकती।
- दिल्ली से आए डॉ.सुधांशु भूषण ने ' इकोनॉमिक एसोशिएशन ऑफ बिहार ' की ओर से आयोजित कार्यशाला ' गर्वनेंस ऑफ हायर एजुकेशन इन बिहार ' विषय पर पैनल डिस्कशन के दौरान कहीं। उन्होंने कहा कि विभिन्न संस्थानों में नियुक्त शिक्षक भी काफी निष्क्रिय हो गए हैं। छात्रों में भी सक्रियता नहीं दिख रही है। लिजिटमेंट पावर का इलिजिटमेंट तरीके से प्रयोग हो रहा है। इसके कारण विश्वविद्यालयों को निर्णय लेने में ही काफी वक्त लग जाता है। जिसके पास यह पावर है वह इसका गलत तरीके से प्रयोग कर रहा है। इससे टकराव की स्थिति पैदा हो रही है और इसका दुष्परिणाम उच्च शिक्षा पर हो रहा है l उन्होंने वर्तमान शिक्षा नीतियों पर सवाल उठाया। कहा कि गलत शिक्षा नीतियों के कारण लगातार उच्च शिक्षा पतन की ओर जा रहा है।
■ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की अपेक्षा महज छलावा :
बिहार में उच्च शिक्षा की बदहाल स्थिति कोई छुपी हुई बात नहीं है. सरकार चाहें जिसकी भी रही हो उच्च शिक्षा को लेकर गंभीरता और संवेदनशीलता शायद ही कभी देखने को मिली है. बिहार के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में एकाध अपवादों को छोड़ दें तो शेष सभी शिक्षक और शिक्षकेत्तरकर्मियों की भारी कमी से जूझ रहे हैं. जो थोड़े बहुत शिक्षक हैं उनमें से भी ज्यादातर का पढ़ाई लिखाई से दूर का ही रिश्ता है. यह संयोग नहीं है बिहार के सबसे प्रतिष्ठित पटना विश्वविद्यालय में जब नैक की टीम दौरा करने पहुंची और उसने विभिन्न विभागों के शिक्षकों से उनकी अकादमिक उपलब्धियों के बारे में जानना चाहा तो रिसर्च प्रोजेक्ट, देश विदेश में आमंत्रित व्याख्यान और कैपेसिटी बिल्डिंग प्रोग्राम की तो बात ही छोड़ दे अधिकांश के पास दो चार आर्टिकल्स (नैक टीम के दौरे को ध्यान में रखकर प्रकाशित करवाए गए) और कुछेक सेमिनार सर्टिफिकेट्स के अलावा कुछ भी दिखाने को नहीं था. सूबे के अन्य विश्वविद्यालयों की स्थिति तो और भी गयी गुजरी है. यह वाकई बेहद शर्मनाक स्थिति है कि बिहार के मुख्यमंत्री अपने सौ साल पुराने विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दिलाने के लिए याचक के तौर पर खड़े रहते हैं जबकि उन्हें अपनी इस धरोहर को न सिर्फ सहेजना चाहिए बल्कि उसकी पुरानी प्रतिष्ठा कैसे वापस आये इसके लिए प्रयास करना चाहिए. इस देश में कई सारे बेहतरीन राज्य विश्वविद्यालय हैं. आप एक विश्वविद्यालय की स्थिति नहीं सुधार सकते तो प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने की तो उम्मीद ही बेमानी है आपसे. बिहार में आज राज्य के छात्र खुद को बाहरी प्रदेश के छात्रों का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं पाते तो इसके लिए बिहार की शिक्षा व्यवस्था और इसके कर्ता-धर्ता कसूरवार हैं. स्पेशल लेक्चर, सिम्पोजियम, वर्कशॉप, सेमिनार, कॉन्फ्रेंस, रिसर्च प्रोजेक्ट, कैपेसिटी बिल्डिंग प्रोग्राम्स यह सब उच्च शिक्षा का हिस्सा हैं. बिहार में इनमें से कितना कुछ होता है आप खुद से पूछ कर देखिये. अंतराष्ट्रीय व राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाले शोध पत्रों में बिहार के शिक्षकों और छात्रों के शोध पत्रों का प्रतिशत नगण्य है. अंतर-अनुशासनिक अध्ययन करने वालों के लिए यहाँ की उच्च शिक्षा में आज तक कोई जगह तक नहीं है. आईसीएसएसआर समेत तमाम फंडिंग एजेंसियां विदेशों में सेमिनार-कॉन्फ्रेंस में भाग लेने के लिए शिक्षकों के साथ साथ पीएचडी स्कॉलर्स तक को पैसा देती हैं, बिहार में गिनती करके बताइये कितने प्रोफ़ेसर और रिसर्च स्कॉलर्स ने इस सुविधा का इस्तेमाल किया है. सुनने में भले ही यह बात अटपटी लगे लेकिन यही वास्तविकता है कि जिन मानकों को पूरा कर बिहार में लोग प्रोफ़ेसर पद को सुशोभित कर रहे हैं उन योग्यताओं के सहारे देश में कई विश्वविद्यालयों में आप असिस्टेंट प्रोफ़ेसर नहीं बन सकते. बिहार में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त कुव्यवस्था और शिक्षकों के नकारेपन को छुपाने के लिए मानक ही बदल दिए गए हैं. किसी जमाने में देश को नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय देने वाले राज्य में उच्च शिक्षा को जान बूझकर बर्बाद किया गया है और इस गुनाहे अज़ीम में गुनाह करने वाले और इसे होता देखकर भी खामोश रहने वाले सभी शामिल हैं l
■ इस रिपोर्ट में बिहार के मुख्य विश्वविद्यालयों की हालिया स्थिति है :
बिहार के विश्वविद्यालय लम्बे समय से अपने तमाम अनियमितताओं के लिए सुर्खियाँ बटोरते रहे हैं।
जैसे कि समय पर परीक्षाओं का ना होना, 3 वर्ष के स्नातक का 6 से 7 वर्षों में पूरा होना या एक ही सत्र में दो-दो सत्रों के परीक्षाओं को आयोजन कराना।
रोजगार के अभाव के साथ-साथ बदहाल उच्च शिक्षा भी बिहार से युवाओं के पलायन का एक बड़ा कारण है l
उदाहरण के लिए ,
● मगध विश्वविद्यालय (गया) :
मगध युनिवर्सिटी में देर से चल रहे सत्रों के कारण 3 लाख विद्यार्थी प्रभावित है l 2018-21 सत्र में स्नातक प्रथम वर्ष की परीक्षा जो की मई 2019 से पहले पूरी ही जानी चाहिए थी, अभी तक आयोजित भी नही हुई है l मार्च 2020 तक सत्र 2019-22 की स्नातक की परीक्षाएं शुरू भी नही हुई थी l परास्नातक सत्र 2017-19 जो की मई 2019 तक पूर्ण हो जानी चाहिए थी, के दो ही सेमेस्टर की परीक्षाएं पूर्ण है l परास्नातक के सत्र 2018-20 के 2 साल में एक भी सेमेस्टर की परीक्षा आयोजित नही हुई है l
● जयप्रकाश नारायण विश्वविद्यालय (छपरा) :
स्नातक कोर्स के सत्र 2015-18 तथा सत्र 2016-19 के सिर्फ दो वर्षों की ही परीक्षाएं पूर्ण हुई हैं जबकि ये दोनों सत्र क्रमशः 2018 तथा 2019 में पूर्ण हो जानी चाहिए थी| परास्नातक के 2016-18 सत्र की परीक्षाएं अभी तक पूर्ण नहीं हुई साथ ही साथ इसके बाद के कुछ सत्रों के लिए नामांकन की प्रक्रिया भी नही की गई है|
● पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय ( पटना )
2018 में स्थापित पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय में स्नातक के कोर्स तो सामान्यतः नियमित रूप से हैं मगर परास्नातक की परीक्षाएं अपुर्ण हैं l पाटलिपुत्र से सम्बद्ध कुछ महाविद्यालय जो की पूर्व में मगध विश्वविद्यालय के अंतर्गत संचालित थे अनके परास्नातक के जो सत्र मगध विश्वविद्यालय से प्रारम्भ किये गए थे वे भी अपूर्ण हैं l
● बी एन मंडल विश्वविद्यालय ( मधेपुरा )
इस विश्वविद्यालय के 2015-18 के मध्य संचालित होने वाले स्नातक कोर्स के सत्र के अंतिम परिणाम 2 वर्ष से ज्यादा विलम्बित होने के साथ-साथ , बाद के सभी सत्र अपने नियत समयावधि से 1 वर्ष से ज्यादा पीछे चल रहें हैं l साथ ही साथ परास्नातक के सत्र 2016-18 तथा उसके बाद के सत्र 1 वर्ष से भी ज्यादा पीछे चल रहें हैं l
इनके साथ ही साथ पूर्णिया विश्वविद्यालय, कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, बी आर एस बिहार विश्वविद्यालय और तिलकामांझी विश्वविद्यालय के भी स्नातक और परास्नातक के कई कोर्स अपने नियत समय से काफ़ी पीछे चल रहें हैं l
■ बिहार में उच्च शिक्षा व्यवस्था की स्थिति चिंताजनक :
मेक इन इंडिया, आत्मनिर्भर भारत और डिजिटल इंडिया के दौर में, सरकार शिक्षा क्षेत्र को लगातार अनदेखा कर रही है, जो हर मायनों में इन सभी योजनाओं की बुनियाद है। आज के समय में जिस तरह की शिक्षा व्यवस्था बिहार में है, वह किसी हद तक संतोषजनक नहीं हैं। किसी भी राज्य के विकास में शिक्षा का बहुत बड़ा योगदान होता है। हाल के दशकों में देश के आर्थिक, सामाजिक क्षेत्रों में कई नीतिगत सुधार किये गए है, जिसके फलस्वरुप देश में तेजी से विकास दर बढ़ी है। इन विकास योजनाओं ने अन्य क्षेत्रों के साथ साथ बिहार में शिक्षा व्यवस्था में भी गति प्रदान की है, लेकिन इतने विकास के बाद भी हमारे शिक्षा व्यवस्था की आधारभूत समस्याए दूर नहीं की जा सकी है। सरकार को वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में जरुरी बदलाव लाने की आवश्यकता है, इन बदलावों के तहत सरकार को विशेष रूप से प्रारम्भिक शिक्षा की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है ताकि प्रारंभिक शिक्षा से ही बच्चों की नींव को मज़बूत बनाया जा सके।
प्रारंभिक शिक्षा की नींव मज़बूत करने से ही बच्चे इंजीनियर, मेडिकल, आईएएस, आईपीएस, वैज्ञानिक आदि क्षेत्रों में अपना भविष्य बना सकेंगे। बिहार की निराशाजनक शिक्षा व्यवस्था ही राज्य में बेरोजगारी का सबसे बड़ा कारण है।
पिछले कई सालों से सरकारें उच्च शिक्षा संस्थानों को बढ़ावा देने के लिए सक्रिय रही हैं। सरकार देश में कई इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज और अस्पताल खोलने में जुटी है। सरकार का मानना है कि कॉलेजों की संख्या बढ़ने से ज्यादा से ज्यादा छात्रों को लाभ मिलेगा। लेकिन सवाल यह उठता है की क्या केवल कॉलेजो की संख्या तेजी से बढ़ाने से राज्य में शिक्षा की गुणवत्ता भी बढ़ेगी। इस बात में कोई दो राह नहीं कि सरकार उच्च शिक्षा संस्थानों को बढ़ावा देने के चक्कर में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा व्यवस्था पर ध्यान देने में नाकाम रही है।
यह बिलकुल ऐसा है, जैसे बुनियाद को मजबूत किए बगैर ही इमारत की ऊपरी मंजिलों को चुन दिया जाए। अगर इन बच्चों की प्राथमिक शिक्षा की नींव ही मजबूत नहीं होगी तो वे उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रवेश कैसे ले पायंगे।
बिहार में शिक्षा की गुणवत्ता का पता इसी बात से चलता है की वहां के स्कूलों में 10वीं कक्षा तक अंग्रेजी नहीं पढ़ाई जाती। अब 10वीं कक्षा तक अंग्रेजी विषय का पाठ्यक्रमों में अनिवार्य न होना कितना हानिकारक हो सकता है इसका अंदाज़ा लगा पाना भी बेहद कठिन है। यह तो केवल छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ करना ही हैं।
■ बिहार में शिक्षकों की नियुक्ति औसत से भी कम :
बिहार की साक्षरता दर 63 प्रतिशत है। इसका मतलब राज्य में औसतन 63 छात्रों पर केवल एक ही शिक्षक उपलब्ध है। जबकि शिक्षकों की उपलब्धता में राष्ट्रीय औसत दर 40 है यानी प्रत्येक 40 छात्रों को पढ़ाने के लिए एक शिक्षक का होना अनिवार्य है।
बिहार में शिक्षकों की कमी से जहां एक तरफ छात्रों को मिलने वाली गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रभावित हो रही है तो वहीं दूसरी तरफ सारी प्रक्रियाएं पूरी करने के बाद भी राज्य के हजारों युवाओं को शिक्षकों की नौकरी नहीं मिल पा रही। क्योंकि बिहार में शिक्षकों के खाली पदों को भरने के लिए भर्ती प्रक्रिया तो निकाली जाती है लेकिन सभी प्रक्रियाओं को पार करने के बाद भी उम्मीदवारों को नौकरी नहीं दी जाती। यूनिसेफ के नवीनतम आधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार, बिहार के प्रारंभिक स्कूलों में शिक्षकों के करीब 2.11 लाख पद रिक्त हैं।
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