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नवरात्रव्रत किसलिये ?

नवरात्रव्रत किसलिये ?

संकलन अश्विनी कुमार तिवारी
देवीभागवतपुराण ३/२६ में व्यास जी कह रहे हैं कि वसन्त और शरद ऋतु यमराज की दाढें हैं , शरद ऋतु में विधिपूर्वक नवरात्रव्रत करना चाहिये और वसन्तऋतु में प्रेमपूर्वक।
दोनों ही ऋतुयें रोगकारी हैं, रोग फैलते हैं।
रोगों से बचने के लिये स्वच्छता-नियमों का पालन करे और घर पर ही रहे।
व्यास उवाच-
शृणु राजन्प्रवक्ष्यामि नवरात्रव्रतं शुभम् ।
शरत्काले विशेषेण कर्तव्यं विधिपूर्वकम् ॥ ३ ॥
वसन्ते च प्रकर्तव्यं तथैव प्रेमपूर्वकम् ।
द्वावृतू यमदंष्ट्राख्यौ नूनं सर्वजनेषु वै ॥ ४ ॥
शरद्वसन्तनामानौ दुर्गमौ प्राणिनामिह ।
तस्माद्यत्‍नादिदं कार्यं सर्वत्र शुभमिच्छता ॥ ५ ॥
द्वावेव सुमहाघोरावृतू रोगकरौ नृणाम् ।
वसन्तशरदावेव सर्वनाशकरावुभौ ॥ ६ ॥
तस्मात्तत्र प्रकर्तव्यं चण्डिकापूजनं बुधैः ।
चैत्राश्विने शुभे मासे भक्तिपूर्वं नराधिप ॥ ७ ॥
नव पञ्च त्रयश्चैको देव्याः पाठे द्विजाः स्मृताः ॥ १६ ॥
और गाकर बजाकर नाचकर उत्सव मनायें।
{ सावधानी की आवश्यकता अगस्त के अन्तिम सप्ताह से है . शरदऋतु का प्रथम मास तभी से होता है। }
✍🏻अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी


मार्कंडेय पुराण, जिसके एक हिस्से को “दुर्गा सप्तशती” कहते हैं, वो ऋषि मार्कंडेय और जैमिनी के बीच का संवाद है। ऋषि मृकण्ड के पुत्र का अल्पायु होना तय था। तो पति-पत्नी ने बालक मार्कंडेय को उसका भविष्य बताया और कहा कि काल को रोकने का सामर्थ्य सिर्फ भगवान शिव में है, तो तुम उन्हीं की उपासना करो। संभवतः इससे तुम्हारी आयु कुछ बढ़ जाए, और जो न भी बढ़ी तो जो पुण्य होंगे उनका लाभ तो मिलेगा ही। तो ऋषि मार्कंडेय बचपन में ही ऋग्वेद के महामृत्युंजय मन्त्र (7.59.12) जो कि यजुर्वेद और अथर्ववेद में भी आता है, उसका जाप करने लगे।


ऐसा माना जाता है कि वाराणसी में गंगा-गोमती संगम पर स्थित कैथी में आज जिसे मार्कण्डेय महादेव मंदिर कहा जाता है, वहीँ मार्कंडेय ऋषि उपासना करते थे। जब उनकी बारह वर्ष की आयु हुई तो यमदूत उन्हें शिवमंदिर से ले नहीं जा पाए और अंततः काल को स्वयं ही आना पड़ा। ऋषि मार्कंडेय शिवलिंग से लिपटे थे तो उनके पाश में भगवान शिव ही आ गए! महामृत्युंजय मन्त्र शिव के रूद्र (सबसे उग्र रूपों में से एक) रूप का होता है। यमपाश में बंधे भगवान शिव जब प्रकट हुए तो काल को ऋषि मार्कंडेय को छोड़ना पड़ा। भगवान शिव को महाकाल या कालान्तक नाम से भी जानते हैं।


जब “काली” शब्द को देखेंगे तो स्पष्ट रूप से ये “काल” शब्द से ही आता है। थोड़ा और गौर से देखेंगे तो ध्यान जाएगा कि सृष्टि के विनाश को उद्दत देवी जब काली के रूप में होती हैं तो उन्हें रोकने का काम फिर से भगवान शिव के जिम्मे ही आता है। वो रोकने-टोकने की कोई कोशिश नहीं करते। संभवतः ललिता देवी के कामेश्वरी रूप से विवाह के लिए जो कामेश्वर रूप का वर था वो आड़े आ जाता है। विवाह इसी आधार पर हुआ था कि वो स्वतंत्र होंगी और उनके कुछ करने-बोलने पर कोई रोक-टोक नहीं होगी। भगवान शिव भी रोकने के बदले रास्ते में लेट जाते हैं। उनपर पैर पड़ते ही देवी जब देखती हैं कि पैर कहाँ रख दिया, तब वो स्तंभित होती हैं!


जहाँ स्वयं भगवान शिव की ये स्थिति होती हो, वहां मनुष्यों की कैसी होती होगी? देवी के गले में जो आठ नरमुंड होते हैं वो बुद्धि को जकड़ने वाले आठ पाशों को दर्शाते हैं। ये काम (वासना), क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, लज्जा, भय और घृणा के पाश हैं। एक-एक करके इन पाशों को काटकर देवी अपने भक्तों को मुक्त करती हैं। रक्तबीज वध के प्रसंग में देवी का ऐसा ही रूप प्रदर्शित होता है। जैसे रक्तबीज के खून की बूँद जमीन पर गिरते ही बीज की तरह, उतना ही शक्तिशाली, दूसरा राक्षस उत्पन्न करती थी, इक्छाओं के साथ भी वैसा ही माना जाता है। एक इच्छा, बीज की तरह उतनी ही बलवती कोई दूसरी इच्छा को जन्म देती जाती है। देवी इन सभी को चट कर जाती है।


त्वयेतद्धार्यते विश्वं त्वयेतत् सृज्यते जगत।
त्वयेतत् पाल्यते देवी त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा ॥


सृजन और पालन का ही नहीं, अंत का जिम्मा भी उनका ही है, इसलिए वो देवी के सबसे उग्र रूपों में से एक है। महानिर्वाण तंत्र में भगवान शिव कहते हैं कि सबकुछ लीलने वाले काल का तुम भक्षण करती हो इसलिए तुम्हारा नाम महाकाली है, और सब तुमसे शुरू भी होता है इसलिए तुम्हारा नाम आद्या है। अब जहाँ से हम लोगों ने शुरू किया था, उन्हीं मार्कंडेय ऋषि के पास वापस चलें तो वो भृगु वंश के ऋषि थे। पूरी महाभारत भृगुवंशी ऋषियों की ही कहानियां कहती रहती है इसलिए वो महाभारत में भी आते हैं। यानी काली भी महाभारत में आती हैं। अश्वत्थामा शिवभक्त था और जब वो पांडवों के पुत्रों की हत्या करता है, तब देवी की चर्चा आती है।


महाभारत में देवी के हाथ में पाश होता है, जिसमें वो जीवों को बांध लिए जाती हैं। आमतौर पर मूर्तियों में जब देवी को दर्शाते हैं तो उनके हाथ में कमल होता है पाश नहीं। कुछ लोग शिव में से “इ” की मात्रा हटाते हुए बताते हैं कि ऐसा करते ही शिव, शव हो जाते हैं। यहाँ “शव” का अर्थ द्रव्य हो जाता है और “इ” का अर्थ उर्जा है। बिना उर्जा के शिव भी कुछ नहीं कर सकते, यहाँ ऐसा भाव है। वैसे भौतिकी (फिजिक्स) की परिभाषा कहती है कि ये द्रव्य, उर्जा और उससे सम्बंधित नियमों का विज्ञान है। शिव-शक्ति की धर्मग्रंथों में चर्चा का कोई वैज्ञानिक आधार है या नहीं है, इस बारे में हम कुछ नहीं कहते।


बाकी देवी काली, सनातनी देवी-देवताओं में सभवतः एकमात्र पूज्य देवी हैं जिनका जन्म सीधे क्रोध से होता है। हर व्यक्ति को उनके रूप सहज लगें ऐसा आवश्यक नहीं और कोई जबरदस्ती भी नहीं है। वैष्णव जैसे (शाकाहारी प्रकार की) मनोवृति के हो तो दूर से हाथ जोड़कर भी आगे बढ़ सकते हैं।


“चंडी पाठ” के अंतिम हिस्सों में आद्या शक्ति के पुनः प्रादुर्भाव और मनुष्यों एवं देवताओं पर उनकी कृपा की चर्चा आती है। हिरण्याक्ष नामक राक्षस के वंश में रुरु नाम के असुर का पुत्र दुर्गमासुर था। उसने वर्षों की कठिन तपस्या करके ब्रह्मा से वर में चारों वेद मांग लिए। कहते हैं कि वर के प्रभाव से जब वेद दुर्गमासुर के पास चले गए तो ऋषि-मुनि वेदों के बिना यज्ञ नहीं कर पाते थे। देवताओं के यज्ञ भाग से विहीन होने पर वर्षा बंद हो गयी और लोग अकालग्रस्त हो गए।


ऐसे में देवताओं ने पूरे भुवन की स्वामिनी, देवी भुवनेश्वरी की उपासना की और देवी अपने शताक्षी रूप में प्रकट हुईं। जनता की दुर्दशा देखकर उनके सौ नेत्रों से आंसू बहने लगे और मान्यता है कि उनके रोते रहने के कारण नौ दिनों तक वर्षा होती रही। मनुष्यों के पास खाने पीने की वस्तुओं की कमी न हो इसलिए देवी शाकम्भरी रूप में भी प्रकट हुईं। संभवतः नवरात्र में शाकाहार की परम्परा आद्या शक्ति के इसी शाकम्भरी रूप के कारण है।


देवी के नामों को देखने पर एक और भी चीज़ ध्यान में आती है। देवी जिन राक्षसों का वध करती हैं, उनका नाम लिए बिना आप देवी का नाम नहीं ले सकते। महिषासुरमर्दिनी कहने के लिए महिषासुर कहना होगा, दुर्गा कहने पर दुर्ग नाम आ जाता है, चंड-मुंड के वध के कारण चामुंडा नाम होता है। पापनाशिनी की शक्ति यहाँ दिखती है। देवी के अस्त्र-शस्त्रों से जो छू गया उसके पाप कहाँ बचे होंगे? कुछ ऐसे ही कारणों से वैष्णो देवी जाने पर भी ऊपर भैरव मंदिर तक जाकर पूजा की जाती है। सनातनी उसे दुत्कारते नहीं।


भुवनेश्वरी सुनने पर ये भी ध्यान आ जायेगा कि इनके ही नाम पर तो भुवनेश्वर शहर का नाम है। ऐसा सिर्फ एक शहर के साथ हो रहा है ये भी मत सोचिये। चंडीगढ़ देवी चंडी के नाम पर, मुम्बई का नाम मुम्बा देवी के कारण, त्रिपुरा का नाम त्रिपुर सुंदरी के नाम पर है। पटना की नगर देवी पाटन देवी हैं, अम्बाला का नाम अम्बा से आता है, कश्मीर के श्रीनगर का नाम श्री यानी लक्ष्मी देवी के नाम पर है। मीरजा का मतलब समुद्र से जन्म लेने वाली यानि लक्ष्मी, उत्तरप्रदेश का मीरजापुर असल में मिर्ज़ापुर भी नहीं है।


कर्णाटक के हसन का नाम हस्सनाम्बे के नाम पर है। भारत भर के ऐसे नामों की एक सूची इंडिया टेल्स की वेबसाइट पर मिल जाएगी जो उन्होंने पिछले साल लगाईं थी। ये भी सोचिये कि विविधता में एकता भारत का परिचय है क्या? इन सभी जगहों पर देवी की उपासना पद्दति अलग अलग है। एक की प्रक्रिया दूसरे से बिलकुल अलग हो सकती है। इन विविधताओं को हम बर्दाश्त (टोलरेट) नहीं करते, उनके प्रति सहिष्णुता नहीं दिखाते, बल्कि उन सब का सम्मान करते हैं।


हमारी संस्कृति के दस किस्म के परिधान हो सकते हैं, साड़ी ही कई तरीके से पहनी जा सकती है। वो सबको एक ही बोरे में घुसकर बंद कर देना चाहते हैं। सांस्कृतिक उपनिवेशवाद (कल्चरल इम्पेरिअलिस्म) किसी भी किस्म की विविधता को बर्दाश्त नहीं कर सकता इसलिए उन्हें सबरीमाला, शनि मंदिर या ब्रह्मा के मंदिरों में एक सी पूजा पद्दति चाहिए। कल को वो ये भी कह सकते हैं कि नौ बालिकाओं के कन्या-पूजन में पुरुषों का अधिकार छिनता है इसलिए पांच कन्याओं के साथ चार बालकों की भी पूजा करो!


निशाना एक ही हो तो उसपर प्रहार करना आसान हो जाता है। इस वजह से वो सह्लेश पूजा, सामा-चकेवा जैसी परम्पराओं को ओछा बताएँगे। वो ये भी कहने की कोशिश करेंगे कि दुर्गा पूजा की यही एक पद्दति होनी चाहिए। वो कहेंगे कि मध्यम मार्ग के अलावा सभी तंत्रोक्त रीतियाँ गलत या निम्न है। वो ये भी कहेंगे कि शाकाहारी उत्तम है, मांसाहारी लोग ये पूजा नहीं कर सकते, जबकि ये सोचना भी शुद्ध मूर्खता है। वो नहीं चाहते कि संविधान ने भी जिसे स्वीकारा है, जो पहले से प्रचलित विविधता भारत में स्वीकार्य रही है, वैसे अलग-अलग तरीकों से पूजा करने की छूट जारी रहे।


वो भारत के संविधान के भी शत्रु हैं। सांस्कृतिक उपनिवेशवादियों के हमले के बदलते रूपों को पहचाना आपकी जिम्मेदारी है। कोई दस महाविद्याओं की उपासना करता है, या कोई तीन महादेवियों की पूजा करता है, कौन देवी के नौ रूपों की साधना में लीन है, ये उसकी निजी स्वतंत्रता है। मजहब-रिलिजन के सामुदायिक मजबूरियों की धर्म वाली निजी स्वतंत्रता में कोई जगह नहीं। हाल में हेगल के सिद्धांतों की नक़ल से बने एक आयातित विचारधारा वाले मजहब के अलग-अलग वाद या फिरकों के जैसा, धर्म में भी सबको एक जैसा करने की मजबूरी नहीं होती है।


शाक्त परम्पराओं के लिए देवी की शक्ति के रूप में उपासना एक आम पद्धति थी। शक्ति का अर्थ किसी का बल हो सकता है, किसी कार्य को करने की क्षमता भी हो सकती है। ये प्रकृति की सृजन और विनाश के रूप में स्वयं को जब दर्शाती है, तब ये शक्ति केवल शब्द नहीं देवी है। सामान्यतः दक्षिण भारत में ये श्री (लक्ष्मी) के रूप में और उत्तर भारत में चंडी (काली) के रूप में पूजित हैं। अपने अपने क्षेत्र की परम्पराओं के अनुसार इनकी उपासना के दो मुख्य ग्रन्थ भी प्रचलित हैं। ललिता सहस्त्रनाम जहाँ दक्षिण में अधिक पाया जाता है, उतर में दुर्गा सप्तशती (या चंडी पाठ) ज्यादा दिखता है।


शाक्त परम्पराएं वर्ष के 360 दिनों को नौ-नौ रात्रियों के चालीस हिस्सों में बाँट देती हैं। फिर करीब हर ऋतुसन्धि पर एक नवरात्र ज्यादा महत्व का हो जाता है। जैसे अश्विन या शारदीय नवरात्री की ही तरह कई लोग चैत्र में चैती दुर्गा पूजा (नवरात्रि) मनाते भी दिख जायेंगे। चैत्र ठीक फसल काटने के बाद का समय भी होता है इसलिए कृषि प्रधान भारत के लिए महत्वपूर्ण हो जाता है। असाढ़ यानि बरसात के समय पड़ने वाली नवरात्रि का त्यौहार हिमाचल के नैना देवी और चिंतपूर्णी मंदिरों में काफी धूम-धाम से मनाया जाता है। माघ नवरात्री का पांचवा दिन हम सरस्वती पूजा के रूप में मनाते हैं।


सरस्वती के रूप में उपासना के लिए दक्षिण में कई जगहों पर अष्टमी-नवमी तिथियों को किताबों की भी पूजा होती है। शस्त्र पूजा में भी उनका आह्वान होता है। बच्चों को लिखना-पढ़ना शुरू करवाने के लिए विजयदशमी का दिन शुभ माना जाता है और हमारी पीढ़ी तक के कई लोगों का इसी तिथि को विद्यारम्भ करवाया गया होगा। देवी जितनी वैदिक परम्पराओं की हैं, उतनी ही तांत्रिक पद्धतियों की भी हैं। डामर तंत्र में इस विषय में कहा गया है कि जैसे यज्ञों में अश्वमेध है और देवों में हरि, वैसे ही स्तोत्रों में सप्तशती है।


तीन रूपों में सरस्वती, काली और लक्ष्मी देवियों की ही तरह सप्तशती भी तीन भागों में विभक्त है। प्रथम चरित्र, मध्यम चरित्र और उत्तम चरित्र इसके तीन हिस्से हैं। मार्कंडेय पुराण के 81 वें से 93 वें अध्याय में दुर्गा सप्तशती होती है। इसके प्रथम चरित्र में मधु-कैटभ, मध्यम में महिषासुर और उत्तम में शुम्भ-निशुम्भ नाम के राक्षसों से संसार की मुक्ति का वर्णन है (ललिता सहस्त्रनाम में भंडासुर नाम के राक्षस से मुक्ति का वर्णन है)। तांत्रिक प्रक्रियाओं से जुड़े होने के कारण इसकी प्रक्रियाएं गुप्त भी रखी जाती थीं। श्री माधवाचार्य ने तो सप्तशती पर अपनी टीका का नाम ही ‘गुप्तवती’ रखा था।


पुराणों को जहाँ वेदों का केवल एक उप-अंग माना जाता है वहीँ सप्तशती को सीधा श्रुति का स्थान मिला हुआ है। जैसे वेदमंत्रों के ऋषि, छंद, देवता और विनियोग होते हैं वैसे ही प्रथम, मध्यम और उत्तम तीनों चरित्रों में ऋषि, छंद, देवता और विनियोग मिल जायेंगे। इस पूरे ग्रन्थ में 537 पूर्ण श्लोक, 38 अर्ध श्लोक, 66 खंड श्लोक, 57 उवाच और 2 पुनरुक्त यानी कुल 700 मन्त्र होते हैं। अफ़सोस की बात है कि इनके पीछे के दर्शन पर लिखे गए अधिकांश संस्कृत ग्रन्थ लुप्त हो रहे हैं। अंग्रेजी में अभी भी कुछ उपलब्ध हो जाता है, लेकिन भारतीय भाषाओँ में कुछ भी ढूंढ निकालना मुश्किल होगा।


ये एक मुख्य कारण है कि इसे पढ़कर, खुद ही समझना पड़ता है। तांत्रिक सिद्धांतों के शिव और शक्ति, सांख्य के पुरुष-प्रकृति या फिर अद्वैत के ब्रह्म और माया में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। जैसा कि पहले लिखा है, इसमें 700 ही मन्त्र हैं (सिर्फ पूरे श्लोक गिनें तो 513) यानी बहुत ज्यादा नहीं होता। पाठ कर के देखिये। आखिर आपके ग्रन्थ आपकी संस्कृति, आपकी ही तो जिम्मेदारी हैं!


बाकि सबरीमाला की ही तरह प्रतिरोध जारी रखिये। ध्यान रहे कि हमलावरों ने जब जिस देश पर आक्रमण किया, वहां की सभ्यता संस्कृति को नष्ट करके वहां स्वयं को स्थापित कर लिया। सनातनी परम्पराएं इन आक्रमणकारियों का सबसे लम्बे समय तक (हज़ार वर्षों से ज्यादा) सामना करने वाली परम्परा है। प्रतिरोध की सबसे लम्बी परम्परा की एक कड़ी होने के नाते आपकी जिम्मेदारी होती है कि इसे एक पीढ़ी आगे बढ़ाएं। आपके मन के विचार, आपके शारीरिक कर्म, आपके वचन के एक भी शब्द से शत्रुओं की सहायता तो नहीं हुई न? जागृत रहिये!✍🏻आनन्द कुमार
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