गया की सांस्कृतिक परम्परा और आस्था
संस्कृति और आस्था का पारस्परिक संबंध है दोनो ही एक दूसरे पर आश्रित होते हैं। संस्कृति का संरक्षण और संबर्धन आस्थावान लोगों के द्बारा ही हो पाता है ।जिसमेंअपनी संस्कृति के ्प्रति आस्था नहीं होती उसे अपने पारंपरिक संस्कारों के प्रति न तो प्रेम होता है न कोई आकर्षण ही।आचरण के सभी अंग कुटिल और व्यर्थ लगने लगते हैं। भारतीय
संस्कृति का प्राथमिक केंद्र घर-परिवार के साथ मंदिर होतें हैंं। यहीं से संस्कार का श्रीगणेश होता है। बचपन से जिन संस्कारों का अक्षरारंभ होता है उसका प्रामाणिक विकास मंदिरों में होने लगता है।मंदिर धार्मिक अनुष्ठानों,जीवनोपयोगी विविध संकल्पों का बहु आयामी परिसर है जहाँ सेवा, सहानुभूति त्याग,निष्ठा पूर्बक अध्यात्म बोध का विनियोग कराया जाता है।संभवत: यही कारण रहा होगा कि मंदिरों में ही पूजन अर्चन के साथ अध्यापन के लिए पाठशालाओ की भी व्यवस्था हुई होगी। मैंने गया में देखा है मंदिरों मे पाठशालाएंँ चलती थी।
गया में प्राथमिक से उच्चतर शिक्षा की व्यवस्था रही है जिसके पोषक मंदिर रहे हैं ।जैसे,
ब्रजभूषण संस्कृत महाविद्यालय,खरखुरा, सोना संसकृत पाठशाला,सेनजी की ठाकुरवाडी ब्राह्मणी घाट,कान्यकुब्ज संस्कृत पाठशाला, पुरानी गोदाम, शारदा संस्कृत पाठशाला पीपरपाँती, राय विनोद संस्कृत पाठशाला ,पितामहेश्वर, श्रीनिवास संस्कृत पाठशाला, बहुआर चौरा ,बोधगया यठ द्बारा संचालित संस्कृत महा विद्यालय बोध गयाआदि।इनके अतिरिक्त अपारंपरिक शिक्षालयों में जिला स्कूल,हरान चंद हाई स्कूल,,हादी हासिमी हाई स्कूल सीटी स्कूल(राजेन्द्र विद्यालय), कासमी हाई स्कूल,हरिदस सेमिनरी, टी मोडल स्कूल, महावीर हाई स्कूल,नाजरेथ अकाडमी,क्रेन मेमोरियल, चन्द्र शेखर हाई स्कूल भी विद्यार्थीकाल को समृद्ध कर रहे थे।इन विद्यालयों में शिक्षा का शुल्कीकरण था किंतु पारंपरिक विद्यालयों में छात्रों को नि:शुल्क शिक्षा के साथ रहने-खाने की भी व्यवस्था थी।ऐसा कब से हो रहा था ,नही कह सकते पर195तक तो थी।बाद में अन्न की जगह नगद द्रव्य प्रतिमाह छात्र वृत्ति के रूप में दी जाने लगी। ब्रजभूषण इषटापूर्ति न्यास के अंतर्गत संचालित संस्कृत महाविद्यालय केसाथ दो मंजिला आवासीय भवन जिसमें छात्र और अध्यापक भी रहते थे।उनके भोजन केलिए अलग ही एक पंक्ति में बनी पाकशाला तथा अलग हट कर शौचालय भी बने थे।छात्र वृत्ति के कारण छात्रों की उपस्थिति होती थी।एक दिवानजी ,बूढे़ थे, सबका नाम एक बही में देखकर पुकारते और जो उत्तर देंते उनके नाम वाले खाने मे उ(उपस्थित), जो उपस्थित नहीं रहते उनके नामके खानें मे अ लिख देते ।माह के अंतिम दिन प्रबंधक मनोहर अवस्थी सभी छात्रों ं को उनकी वृत्ति का द्रव्य दे देते थे।
इस परिसर मे एक बडा़ मंदिर है जिसे अवस्थी जी की ठाकुरवाड़ी के नाम से जाना जाता है।शहर के गण्य मान्यलोग जैसे राय बहादुर काशीनाथ सिंह,,गंगाधर डालमिया उर्फ मल्ली बाबु ,नंद किशोर तिवारीजी न्यास के सदस्य थे।
मंदिर की व्यवह्था का क्या कहना! भोग राग के अतिरिक्त ठाकुरजी को संगीत सुनाने केलिए स्थाई पूजारी और गायक भी नियुक्त थे।
इस विद्यालय में सभी प्राच्य विद्या,जैसे, वेद-कर्म काणड,ज्योतिष, न्यायदर्शन, व्याकरण, साहित्य,आयुर्वेद के निष्णात विद्वान अध्यापक पूर्ण मनोयोग से अध्यापन करते थे।यहाँ आयुर्वेदिक चिकित्सालय भी था औषधियाँ निर्मित होती थी ।एक सेवक वैद्यजी के निर्देशन में जडी बूटियाँ कूटता ,गोली बनाता और छाया में सुखाया करता।ंजो आयुर्वेद के छात्रों को पढ़ाते, वे ही चिकित्सक भी थे। उनकी सहायता के लिए एक मिश्रक(कम्पाउंडर) भी थे।पं हरदेव मिश्रजी की ख्याति शहर में कई मायने मे थी ।ये राय बहादुर काशीनाथजी के परम मित्र थे। बड़े विनोदी स्वभाव के तथा आशु कवि भी थे। संस्कृत ही नहीं हिंदी में भी तुरत तुकबंदी कर देते थे। साहित्य के छात्र भी कक्षा के बाद उनसे साहित्यिक श्लोक सुनने सीखने केलिए घेरे रहते थे। अपराह्न चार बजे सभी छात्रों को ठाकुरवाड़ी के सभाकक्ष में उपस्थित होना पड़ता जहाँ कम से कम आधे घंटे तक हरे राम संकीर्तन होता,उसके बाद जीवनोपयोगी विभिन्न ग्रंथों के उद्धरण केसाथ आदरणीय हरदेव मिश्र जी का प्रवचन होता तब जाकर छुट्टी होती।यह क्रम नित्य का था।तब यहाँ एकादशी तिथि को साहित्य तथा त्रयोदशी को व्याकरण विषय का अनध्याय(अवकाश)होता। मैने कई लोगों से कारण पूछा था पर सब मौन रहे। एक दिन मैंने आचार्य चंद्रशेखर मिश्र जी से बहुत साहस कर पूछा,उन्होंने ही सपष्ट किया कि त्रयोदशी को पाणिणि का गोलोक गमन हुआ था ।अत:उस तिथि को अनध्याय रहता है और साहित्य में प्राय:मिथ्या बाते होती हैं ,एकादशी के दिन झूठ नहीं सुनना या बोलना चाहिए इसलिए अनध्याय का विधान है।यहाँ किसी न किसी बहाने संस्कारीकरण ही होता रहता ।
यों तो भारत पर्वों त्योहारों का देश है उसमें भी मगध और फिर गया की परंपरा।।श्रावण मास शुरू होते ही शिवालयों में आस्था जीवन्त हो जाती है। बेल पत्र ,मे हल्दी चंदन के घोल से राम-राम लिखने का आनंद ही कुछ और है।वैसेतो हरिशयनी एकादशी के बाद ही शिवालयों के रंग रोगन का काम शुरू हो जाता।श्रावण के प्रथम दिन से ही मंदिरों, शिवालयों में भक्तों का शिवार्चन कार्य पूर्णिमा तक तोअवश्य चलता। यह आस्था का ही स्वरूप है कि अधिकांश लोग भर सावन क्षौर कर्म के साथ मांसादि आहार भी वर्जित रखते हैं। कुछ अपने परिवार के मंगल अथवा कामना विशेष के लिए ब्राह्मणों को शिवार्चन हेतु संकल्प के साथ निय ोजित करते हैं।श्रावण मेंं सोमबार का महत्व विशेष रूप से महिलाओं के उपवास,व्रत से स्पष्ट होता है। सोमबार को शंकरजी का विशेष शृंगिर और सजावट देखने केलिए लोगों की भीड़ को नियंत्रित करना कठिन हो जाता।गया में पितामहेश्वर मारकणडेश्वर तथा देवघाट अधिक भीड़ देखी जाती।उन ददिनों बर्फ की सिल्लियों से सजावट होती।कलाकारों द्बारा अनेक तरह के प्रदर्श्य बनिये जाते। श्रावणी मंगलबार भी कम महत्वपूर्ण नहीं।हो भी क्यों न। शिवजी के साथ ही भवानी की पूजा अर्चना अनि वार्म होती है।गया में अन्य देवी मंदिरों के साथ वागीश्वरी मंदिर का बहुत महत्व है। मैं वहाँ बचपन से ही जाता रहा हूँ।मंगल के दिन दोपहर से ही मेला लगने लगता।बच्चों से बूढ़ों तक का सामान, खिलौने मिठाइयां सडक के दोनों किनारे फैल जातीं।
मंदिर परिसर के सामने एक बड़ा सा परेड़ था जिसकी डाल पर रस्सी ढाल कर झूला बना कर मस्ती होती उसी के बगल मे दक्षिण बड़ा सा गड्ढा पस रा था जिसमे कुश्ती दंगल का आयोजन होता।
श्रावण आते ही लोग सावनी सैर यानि वन भोज का दिन समय निश्चय करने लगते।उस समय रमणीक ब्रह्म योनी पर्वत की तराई,खजुरिआ झरना,हदहदवा, रामशिला आदि उपयुक्त स्थान थे।श्रावण शुक्ल एकादशी से राधाकृष्ण मंदिरों मे ं झूलनोत्सव का आयोजन होता।मंदिरों सजावट और भगवत् शृंगार तो होता ही।भगवान की सेवा में ंभजन गायन के साथ नृत्य कला की भी प्रसतुति होती।इन मंदिरो में अवस्थी जी की ठाकुरवाड़ी, भगवानदुन की ठाकुरवाड़ी बाटा मोड़,चमारी साव की ठाकुरवाड़ी पुरानी गोदाम, कान्यकुब्ज।ज पाठशाला मंदिर पुरानी गोदाम, छट
ठूस साव की ठाकुरवाड़ी फतेह गंज,राम खेलावन साव की ठाकुरवाड़ी पुरानीगोदाम,नई गगोदाम ठाकुरवाड़ी, पितामहेश्रर,,विष्णुपद आदि स्थाननों मे अर्ध रात्रि तक का र्य क्रम चलता रहता।बाटा मोड़ और चमारी साव की ठाकुरवाड़ी रामलीलाऔर रासलीला होती।अनय स्थानो मै सिद्ध संगीतज्ञ जयराम तिवरी नर्तक लखन नटराज का भी कला-प्रदर्शन होता। लोग बड़े मनोयोग से आनंद लेते ।यह क्रम जनमाष्टमी तक चलता।प्राचीन गया के कृष्ण द्वारका और गोडीय मठ में विशेष उत्सव होता।इसी तरह दुर्गा पूजा,दिवाली , छठ पूजा,सरस्ती पूजा होली केअवसर पर आसथा और संस्कृति का संगम देखने को मिल जाता।
इन अवसरों पर पारिवारिक संस्कार छाया चित्र की तरह झलकने लगते हैं ।
डा रामकृष्ण:
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