मैं हार मानूँगा नहीं।
मैं
रार ठानूंगा नहीं
तकरार करूंगा नहीं
अपनी धुन में
चलता चलूँगा मैं
हाँ
मैं हार मानूँगा नहीं।
भीख मागूँगा नहीं
सीख चाहूँगा मगर
भूख में भी रूख
न बदलूंगा शहर
चलता रहूंगा डगर
मिल जाये मंजिल कहीं
हाँ
मैं हार मानूँगा नहीं।
तोड़ लाऊंगा आसमान से
चाँद सितारों को
सजाऊँगा धरती को
खर पतवारों से
गर पड़ी जरूरत तो
समंदर के बीच लगाकर गोते
मोती ढूंढ लाऊंगा यहीं
हाँ
मैं हार मानूँगा नहीं।
जाकर पर्वतों के पार
पाऊंगा तेरा प्यार
बनाऊंगा अपना यार
बसाऊंगा "शब्दाक्षर"संसार
महल बनाऊंगा नहीं
यायावर बन निशा बिताऊँगा कहीं
हाँ
मैं हार मानूँगा नहीं।
.....मनोज कुमार मिश्र"पद्मनाभ"।
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