निऋत का सान्निध्य
---:भारतका एक ब्राह्मण.
संजय कुमार मिश्र "अणु"
सूर्य चाहे रहे आग्नेय-
या फिर ईशान।
रहता है वह तेजयुक-
देदिव्यमान भाष्यमान।।
पर वह ज्यों-ज्यो
जाता है नैऋत्य।
होने लगता है निस्तेज
आसिन अपने क्रान्तिवृत।।
अंततः उसका-
वहीं हो जाता है अवसान।
छा जाती है राका
ये धरती से लेकर आसमान।।
घोर तमिस्रा में हो निमग्न-
भुल पद,पदवी और मान।
सबको बता देता है अवकात-
समय का चक्र है बड़ा बलवान।।
है वह एक चक्र का रथी-
दिव्य पथ आरुढ अरुण सारथी।
है कौन इस भू-मंडल में-
कहो भुवन भास्कर सा सत्पथी।।
टिक नहीं सकता है कभी-
उसके सम्मुख घनघोर तिमिर।
करता रहेगा जगमग-जगमग-
है "मिश्र अणु" मग मिहिर।।
अग्नि और ईशान
दोनों है रुप-गुण समान।
पर ये निऋत का सान्निध्य-
देता है पराभव अपमान।।
वलिदाद अरवल (बिहार)८०४४०२
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