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बीते दिन की याद नई

डॉ राम निरंजन परिमलेंदु जी की जयंती पर विशेष

बीते दिन की याद नई

डॉ सच्चिदानन्द प्रेमी
दो-तीन दिन पूर्व रवि जी का फोन आया । बिना किसी लाग लपेट के उन्होंने बताया कि आदरणीय परिमलेन्दु जी की स्मृति में एक ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है जिसमें आपका(मेरा) संस्मरण( रचना )भी होना चाहिए ।उसी क्षण से मैं अपने स्मृति -पटल पर उभरते शब्दों ,विषयों को सहेजने का प्रयास करने लगा । जो कुछ सोच पाया ,वही खट्टा -मीठा परोसने का प्रयास कर रहा हूँ ।
मुजफ्फरपुर का वह सभागार जिसमें वनस्पति शास्त्र के विभागाध्यक्ष डॉ सुरेश श्रीवास्तव के बुलाने पर मुझे भी सम्मिलित होने का अवसर मिला था, साक्षी बना और परिमलेन्दु जी से प्रथम परिचय का ।जहाँ तक तिथि की बात है, याद करने के लिए दविड़ प्राणायाम कर चुका हूँ, अश्वगंधा की पूरी बोतल साफ कर गया,स्मृति सागर रसायन दो किलो वाली मधु के साथ चटनी की तरह चाट गया , परंतु सफलता पाने में असफल ही रहा ।उस कार्यक्रम की समाप्ति के उपरांत श्रीवास्तव जी से मैंने कहा कि गया के ही आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री जी हैं ।उनके जन्मदिन पर होने वाले समारोह में मैं यदा -कदा भाग लेता रहा हूँ। उनसे मुझे मिलना है ,इसे आप याद रखेंगे ।उन्होंने पार्श्व में विराजमान हस्ताक्षर की ओर इशारा करते हुए कहा था -और ये क्या गया के नहीं हैं ! पहले इनसे ही क्यों नहीं मिल लेते ! पूर्व परिचय नहीं होने से संकोच भी हो रहा था और उत्सुकता भी हाबी हो रही थी ।फिर भी कुछ बनावटी भावों की चासनी चेहरे पर चढ़ा कर मैंने पूछा -अच्छा !आप भी गया से ही आते हैं ,यह तो सौभाग्य
है ।फिर तो इनके मधुर स्वभाव का सुमधुर पाक प्रसाद पाकर में धन-धन हो गया । बातचीत का सिलसिला बढ़ा । उन्होंने कई प्रकाशित पुस्तकों के नाम गिना दिए ।एक ऐसा भी विषय था जिस पर बात चली जो अंत तक चलती ही रही । परंतु इस विषय पर न मैं संतुष्ट हो सका, नहीं वे मेरी असंतुष्टि पर दुखी हुए। ऐसे व्यक्तित्व के धनी डॉ रामनिरंजन परिमलेंदु जी को सम्मान के साथ प्रणाम करता हूँ ।
इनका जन्म भाद्रपद कृष्ण दशमी शुक्रवार संवत् 1992 तदनुसार 24 अगस्त 1935 ईस्वी को गया जिले के टिकारी अनुमंडलांतर्गत सिमुआरा गांव में हुआ था ।इनकी विद्यालयी शिक्षा राज स्कूल टिकारी एवं जिला स्कूल गया से हुई । उन्होने यह भी बताया कि टिकारी के होने नाते बाबु देवकी नन्दन खत्री का असली वारिस मैं हूँ ।उनके प्रभाव के कारण ही इनकी कई पुस्तकें विदेशों में कई सौ वर्षों के लिए सुरक्षित कर दी गई हैं ,इसे वे बार-बार कहा करते थे । यूं तो रचना यात्रा 1951-52 से ही शुरू हो गई थी ,परंतु प्रकाशन यात्रा 1953 से आरंभ हुई जो कभी रुकी नहीं ।विषयों के चयन में इतने अन्वेषी थे कि भूले बिसरे विषयों का ही चयन करते रहे , जिस पर किसी की दृष्टि नहीं पड़ी हो, बिल्कुल ही कोरा ,अखरा जो अभी तक अगवेशित अल्पज्ञात अज्ञात रहा हो ।खासकर दिवंगत हस्तियों और चर्चाओं की परिधि से बाहर के साहित्यकारों ,दिवंगत साहित्यकारों की रचनाओं को जिन्हें दीमकों ने अपना आहार बनाना आरम्भ कर दिया हो,जो नष्टार्णव में तिरोहित होने के कगार पर हो ।
महाप्राण निराला से लेकर पंत,राजा राधिका रमण प्रसाद , बच्चन ,काका कालेलकर, बाबूजी यानी शिवपूजन सहाय, बाबा नागार्जुन ऐसी महान हस्तियों से संपर्क में रहने के कारण उन्होंने अपनी साधना को कवि कर्म में समर्पित कर दिया परंतु यह कवि- साधना बहुत दिनों तक टिक नहीं सकी और समीक्षा कर्म के सोते में बह गई । बिहार विश्वविद्यालय संप्रति बी आर अंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय मुजफ्फरपुर में आचार्य पद पर कार्यरत रहे। शोध विद्यार्थियों के साथ अनबरत गवेषणा में संलिप्त रहने के कारण इनकी प्रवृत्ति ही गवेषणा मय हो गई ।इसीलिए लुप्त प्राय विषयों के अनुसंधान (चयन ) में ही एक इतिहास पुरुष इन की प्रतीक्षा कर रहे थे जिनकी सेवा का लाभ मिला ।इतिहास पुरुष राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद को प्रकाश में लाकर उन्होंने हिंदी के साथ जो उपकार किया, वह स्तुत्य है । अगर हिंदी व्याकरण का पुनर्प्रकाशन नहीं होता तो वे अद्यतन प्रकाश में नहीं आते । इनकी पुस्तक शिवप्रसाद सितारे हिंद का हिंदी व्याकरण आज के लगभग 150 वर्ष पूर्व 1875 ईस्वी में छपा था । इसका पुनर्मुद्रण 1886 में हुआ और तिमिरांचल में यह पुस्तक विलीन हो गई । लेकिन परिमलेंदु जी की खोजी प्रबृति इसे खोज निकाला और 2017 में उसका पुनर्मुद्रण करवाया ।
यह हिंदी और उर्दू का एक ऐसा व्याकरण है जो ऐतिहासिक एकीकृत दस्तावेज भी है । इसलिए यह गुलाम भारत की हथकड़िओं की चिंगारी का ऐसा शिकार हुआ कि इसे तत्कालीन अंग्रेजी हुकूमत ने सर्वाधिक विवादग्रस्त रचना की श्रेणी में रख दिया था । यह हिंदी और उर्दू के बीच समाधान माना जा रहा था क्यों कि यह दो दिलों को जोड़ने वाला सेतु का काम कर रहा था ।इससे दो परस्पर विरोधी संप्रदाय एक साथ आ गए थे । हालांकि जॉन जोसुआ केटलर महाशय का व्याकरण इससे पूर्व आ गया था और वह भी यही काम यानी हिंदी और उर्दू भाषा को जोड़ने का कर रहा था ।परंतु वह डच भाषा में लिखा गया था इसलिए सितारे हिन्द के हिंदी व्याकरण की तरह अछूत नहीं था । ऐसी गुमनाम पुस्तक को खोज कर पुनःप्रकाशन कराना इन्हीं के बस की बात है ।
किसी के जीवन की गहराई नापने के गुणों के कारण लोक भावना ने इन्हें साहित्य का इतिहासकार या इतिहास का साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित किया है ।जैसा कि राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद कृत हिंदी व्याकरण की भूमिका में इन्होने लिखा है - राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद माघ सुदी दो विक्रम संवत 1880 तदनुसार 3 फरवरी सोमवार 1824 ईसवी ,23 फरवरी 2017 3:00 बजे रात्रि 1895 ईस्वी हिंदू पंचांग के अनुसार हिंदी व्याकरण 1875 ईस्वी में मेडिकल हॉल का छापाखाना बनारस में मुद्रित होकर प्रकाशित हुआ ।परिमलेन्दु जी इसी तरह सभा - गोष्ठियों में भी अपने व्याख्यान में योग लगन ग्रह वार तिथि के साथ पंचांग वर्ष प्रस्तुत करते थे । फिर उस इतिहास को भौगोलिक धरातल पर उतारने का प्रयास करते थे ।
इनकी सहयोगात्मक प्रवृत्ति इनके कद के अनुसार ही विकसित थी । इधर ही कुछ वर्ष पूर्व की घटना है ।एक दिन केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा में उनसे मुलाकात हो गई ।वे कई दिनों पूर्व से ही यहाँ विराज रहे थे ।मेरा तो ठहरने का कोई ठौर- ठिकाना पक्का था नहीं।जहाँ ठहर गया ,वहीं पसर गया ।इन्होने पूछा-"आप कहाँ ठहरे हैं?" मैं ने निवेदन पूर्वक बताया-आगरा कॉलेज के प्रधानाचार्य डॉ मनोरमा शर्मा के यहाँ ,शायद आप जानते होंगे ,मनोरमा जी कविवर गोपाल दास नीरज की पत्नी हैं । इनके साथ वाले महाशय ने यह भी कहा -हां सर ,हम जानते हैं,अपने माननीय राष्ट्रपति डॉ शंकर दयाल शर्मा जी की वहन भी लगती हैं। इन्होने समाधान भाव से कहा -चलिए,तब तो कोई बात ही नहिं रही ,अन्यथा आपको यहीं बुला लेता । कार्यक्रम के बाद वहाँ हमलोग खाने की टेबुल पर बैठे ।वार्ता समाप्त होने पर इन्होंने सहभागी पदाधिकारी से यह कहते हुए मेरा परिचय कराया ,"मैं अब थक गया हूं ,अब गया से ही काम करूंगा ।मेरी अनुपस्थिति की रिक्ति को प्रेमी जी भरेंगे ।"मैंने हाथ जोड़ लिए ।वहाँ जो इनका बिस्तार देखा ,उसके आधार पर यही कहा जा सकता है कि परिमलेन्दु जी राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त सर्व प्रतिभा संपन्न अपने कृत्य से गया को विश्व पटल पर सम्मानित कराने वाले कवि ,लेखक ,समीक्षक यानी सर्वविध साहित्यकार हैं ।
वहीं से इनके घर पर आना -जाना शुरु हो गया । इन्होंने अपने घर पर अपनी गवेष्णात्मक प्रतिभा से सम्पन्न एक पुस्तक दिखलाई -"भारतेंदु काल के भूले बिसरे कवि और उनका काब्य" । इसमें इन्होंने अपनी खोजी प्रतिभा उड़ेल कर 700 वैसे कवियों की रचनाएं प्रकाशित की हैं जो गुमनाम की उदधि में उपला रहे थे ।इसी प्रकार इन्होंने "भारतेंदु काल का अल्प ज्ञात गद्य साहित्य" में प्रेमचंद के पूर्व भुवनेश्वर मिश्र द्वारा लिखित "बलवंत भूमिहार" पहला आदर्शवादी उपन्यास कह कर साहित्य जगत को चौंका दिया ।
उनके साथ रहने का एक लंबा अवसर मिला है ।बड़े लोगों के साथ की जो घटनाएं होती हैं वह संस्करण हो जाती हैं ।लंबी अवधि के संस्मरण भी बहुत हैं ।इन्हीं में से एक संस्मरण से समाप्त करूंगा ।बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन का शताब्दी समारोह मनाया जा रहा था । संपूर्ण बिहार में पच्चीस साहित्यकारों का चयन कर सम्मेलन में ने 10 जून 1919 को शताब्दी साहित्यकार सम्मान से सम्मानित करने का निर्णय लिया गया था । गया से प्रेमी जी चयन किया गया था । समारोह के उपरांत पटना के सभी समाचार पत्रों ने समाचार को प्रमुखता से प्रकाशित किया । एक अखबार ने सम्मानित होने वाले साहित्यकारों में इनका नाम छाप दिया ।इन्होने पहले तो मुझे धन्यबाद दिया फिर साथ में पटना चलने का कार्यक्रम बनाते हुए समारोह के बारे में पूछा । मैं सोच में पड़ गया ।मैंने इनसे और समाचार पत्रों को देखने का तथा डॉ राम क्रृष्ण जी से बात करने का निवेदन किया । थोड़ी देर में उन्होंने सम्मेलन के कार्यों की आलोचनात्मक प्रारूप मुझे रसीद कर दिया । मैं उनके आवास पर कई अखबारों के साथ गया । उस अखबार वाले स्वामी से बात की गई ।उन्होंने कहा कि मुझे जैसे ही मालूम हुआ कि एक साहित्यकार गया से हैं ,बस आपका नाम संस्कृत हो गया ।मैं तो यही जानता था कि दूसरा साहित्यकार गया में आप के समांतर कोई है ही नहीं। सुनते ही अम्लान मुख मण्डल ज्ञान-गरिमा से दमक उठा । इसी तरह मान रखने के लिए कुछ कह देते थे ।
एक बार एक पत्रिका के लिए इन्होने एक लेख भेजा ।वह लेख मुझे अच्छा नहीं लगा ।मैंने उसमें कह दिया कि यह लेख अच्छा नहिं है ।पहले तो उसके पक्ष में वे तर्क देते रहे ,परन्तु मेरे स्वीकार नहीं करने पर यह भी कह दिया-अच्छा नहीं लगता है तो दूसरा चुन लिजीए । मैं ने तुरत अपनी भूल स्वीकारी और वही लेख छपा ।
अपनी महानता के साथ पधारे कई महापुरुष काल के महापरुष प्रभाव को नहीं झेल सके और इहलोक की जीवन लीला समाप्त कर मुक्त हो गए । हम उनके मधुर संस्मरण को सादर प्रणाम करते हैं ।
प्रधान संपादक,आचार्यकुल,(मासिक)
प्रधान संपादक,आचार्यकुल,(मासिक)
सम्पर्क-आनन्द विहार कुञ्ज,माड़न पुर,गया-823001बिहार।दूरभाष-9430837615
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