प्रख्यात कवि शिवमंगलसिंह
'सुमन' की जयन्ती : 5 अगस्त पर विशेष.... पुराने ख़त में धड़कती सुधियाँ...
आनन्दवर्धन ओझा की कलम से
डॉ. शिवमंगलसिंह 'सुमन' इलाहाबाद के ज़माने के पिताजी के अनुगत मित्र थे। भौतिक दूरियाँ बढ़ गयीं तो संपर्क शिथिल हुआ, किन्तु मित्रता प्रगाढ़ रही। सभा-सम्मेलनों में मुलाक़ातें होती रहीं और यह चुभन भी निष्प्रभावी हुई कि काल का लंबा विक्षेप संबंधों में बाधक बना।...
अपनी किशोरावस्था के एक रेडियो कवि-सम्मेलन की मुझे याद आती है, जिसका संयोजन-संचालन पिताजी ने किया था। श्रोताओं की भीड़ में अग्रिम पंक्ति में मैं भी अपनी माता के साथ बैठा था। सुमनजी को जब पिताजी ने काव्य पाठ के लिए आमंत्रित किया तो उन्होंने जिस कविता का पाठ किया, उसकी पंक्तियाँ इस पकी उम्र तक मेरी स्मृति में ठहरी हुई हैं--
मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार,
पथ ही मुड़ गया था।...
देख मेरे पंख चल, गतिमय
लता भी लहलहाई
कली भी मुस्कुराई।
एक क्षण को थम गए डैने
समझ विश्राम का पल
पर प्रबल संघर्ष बनकर
आ गई आंधी सदल-बल।
डाल झूमी, पर न टूटी
किंतु पंछी उड़ गया था।
मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार,
पथ ही मुड़ गया था।...
सम्मेलन की समाप्ति पर पिताजी ने मेरी माताजी को सुमनजी से मिलवाया, मैं भी उनके साथ ही था। वह दीर्घ देह-यष्टि के सत्पुरुष थे, ऊर्थ्व स्वर में बोलते थे। उनकी कविता में गज़ब का प्रवाह था और अपनी काव्य-पंक्तियाँ भी ऊर्ध्व स्वर में श्रोताओं के सम्मुख अर्पित करते थे। 'मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार, पथ ही मुड़ गया था।...' इन दो पंक्तियों की आवृत्ति मैं किशोरावस्था से बढ़ी उमर तक निरंतर करता रहा और मेरी स्मृति में बने रहे कवि 'सुमन'। पकी हुई उम्र में भी उनके दर्शन तब हुए, जब वह पटना आये और मैं पिताजी को उनसे मिलवाने होटल के उन सुसज्जित कमरों में ले गया। वह बड़ी गर्मजोशी से मिलते, श्रद्धा से नत हो जाते। पिताजी को वयोज्येष्ठता का सम्मान वह आजीवन देते रहे।...
पिछले दिनों सुमनजी का एक पत्र पिताजी के गट्ठर से झाँकता मिला था। आकाशवाणी से सेवा-मुक्त होने के बाद पिताजी ने उन्हें वर्षों बाद पत्र लिखा होगा, उसी के प्रत्युत्तर में लिखा उनका यह खत अत्यंत भावपूर्ण है। तत्कालीन संवेदनाएँ पत्र की हर पंक्ति में धड़क रही हैं। उसी की अविकल टंकित प्रति यहाँ रख रहा हूँ :
हिंदी विभाग
सरदार पटेल विश्वविद्यालय
वल्लाभ विद्यानगर, गुजरात
26-7-'79.
आदरणीय मुक्तजी,
आपका 22/6 का कृपापत्र यथासमय प्राप्त हो गया था। लगभग एक युग बाद आपका पत्र प्राप्त कर अनायास ही पुरानी स्मृतियाँ सजीव हो उठीं। बच्चन के मधुशाला-रचना के प्रारम्भिक प्रहर! आपकी परेशानियों से अवगत होकर चिंतित भी हुआ। आपने आकाशवाणी की जिस समिति का ज़िक्र किया है, उसका सदस्य मैं भी था और भवानी भाई का नाम भी मैंने ही प्रस्तावित किया था। पर इधर या तो उसकी बैठक बहुत दिनों से बुलाई नहीं गयी है या उसकी सदस्यता में कुछ हेर-फेर हुआ है। जो भी हो, निकट भविष्य में जब भी दिल्ली जाऊँगा तो वस्तुस्थिति जानने का प्रयत्न करूँगा और आप निश्चिंत रहें, यदि मैं वहाँ हूँ तो आपके लिए अवश्य यथासंभव प्रयत्न करूँगा। इससे अधिक सुख मुझे और क्या मिल सकता है कि बड़े भाई की सेवा का पुण्य-लाभ करूँ। आपने जीवन में बहुत संघर्ष किया है, पर बहुत-से लोग उससे अपरिचित हैं, क्योंकि आपने कभी अपना विज्ञापन नहीं किया।
मैं विगत फरवरी से यहाँ आ गया हूँ मानदेय प्राध्यापक के रूप में, 31 जनवरी 1980 तक के लिए। बीच 2 में उज्जैन आता-जाता रहता हूँ। आप भी इस समिति के संबंध में नई जानकारी प्राप्त कर सकें तो अवश्य अवगत करें। साहित्य अकादेमी के सचिव डा. केलकर भी इसके सदस्य हैं।
विशेष कृपा--
विनीत,
ह. (शिवमंगलसिंह 'सुमन')
सुधीजन इस पुराने ख़त का दर्शन करें, पढ़ें और सुधियों की धड़कन सुनें।...
--आनन्दवर्धन ओझा/ 05-08-2021.
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